निर्भया के 10 साल: औरतों के लिए इस देश में क्या बदला ?
एनसीआरबी की रिपोर्ट में लगातार तीसरे साल दिल्ली को महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित शहर बताया गया है.
16 दिसंबर. ये तारीख न सिर्फ इस देश के इतिहास में, बल्कि आज से दस साल पहले की उस घटना की गवाह रही हरेक लड़की और स्त्री के दिमाग में इस तरह दर्ज है कि नींद में भी याद रहे.
वो घटना, जिसमें देश की राजधानी में एक 23 साल की मेडिकल स्टूडेंट के साथ चलती बस में हुए बलात्कार और हिंसा ने पूरे देश का मानो एक गहरी नींद से जगा दिया था. अचानक एक मुद्दा देश की हर बहस, हर खबर, हर लड़ाई की सुर्खी बन गया था. वो मुद्दा, जो मौजूद तो इसके पहले भी था, लेकिन जिसे लेकर कभी इतना शोर नहीं हुआ.
इस सवाल को लेकर न अखबारों के इतने पन्ने रंगे गए, न न्यूज चैनलों में इतनी बहस हुई, न इतनी बार देश की संसद और न्यायालय में दोहराए गए ये शब्द.
“स्त्रियों के साथ हिंसा और स्त्रियों की सुरक्षा.”
इस देश ने इसके पहले कभी इतनी बड़ी संख्या में लोगों को स्त्रियों की सुरक्षा के मुद्दे पर सड़कों पर उतरते नहीं देखा था. कई दिनों तक रायसीना हिल्स से लेकर इंडिया गेट तक लोगों का जमावड़ा लगा रहा. इस कदर कि पुलिस को भीड़ को काबू करने के लिए दिसंबर की ठंड में वॉटर केनन का इस्तेमाल करना पड़ा.
पहली बार लड़कियां और महिलाएं चीख-चीखकर बोल रही थीं. हर संवेदनशील लड़के और पुरुषों की आवाज हर आवाज में शामिल थी.
महिलाओं के साथ रेप और हिंसा की घटनाएं तो पहले भी होती थीं, लेकिन पहले कभी इस बारे में इतनी बात नहीं होती थी. पहले कभी सुप्रीम कोर्ट से लेकर संसद तक इस तरह हरकत में नहीं आया था कि इस मुद्दे को एड्रेस करने और रेप से जुड़े कानूनों को रिव्यू करने के लिए रातोंरात कमेटी कठित की गई हो. रातोंरात रेप कानून को और सख्त बनाने का फैसला लिया गया हो. आईपीसी की धारा 376 में बदलाव की बात की गई हो, रेप केस के लिए अलग से फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने की मांग की गई हो, 60 दिनों के अंदर चार्जशीट फाइल करने का मुद्दा उठा हो.
जेएस वर्मा की अगुआई में बनी कमेटी ने सिर्फ 29 दिनों के भीतर जनवरी, 2013 को अपनी 631 पन्नों की रिपोर्ट सौंपी थी. यह इस देश के इतिहास में एक रिकॉर्ड है. जनवरी में रिपोर्ट आई और महज तीन महीने के भीतर अप्रैल, 2013 में यह कानून भी बन गया.
जितनी तेजी से ये सारे काम हो रहे थे, उसके बाद तो ये उम्मीद की जानी चाहिए थी कि इस देश में महिलाओं के हालात कुछ बदलेंगे. इस देश की सड़कें और सार्वजनिक जगहें महिलाओं के लिए और ज्यादा सुरक्षित होंगी. लेकिन उसके बाद क्या हुआ?
आइए, इन गुजरे 10 सालों पर एक नजर डालते हैं.
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की ताजातरीन रिपोर्ट में लगातार तीसरे साल दिल्ली को महिलाओं के लिए सबसे ज्यादा असुरक्षित और डरावना शहर बताया गया है. यह रिपोर्ट कहती है कि देश की राजधानी में हर दिन औसतन दो नाबालिगों के साथ रेप होता है. पिछले साल 2021 रेप के कुल 1,250 बलात्कार मामले दर्ज किए गए.
एनसीआरबी की ही रिपोर्ट के मुताबिक 2016-17 में अकेले देश की राजधानी में महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों की संख्या मे 26.4 फीसदी का इजाफा हुआ. यह नया ज्यादा कठोर, ज्यादा सख्त कानून बनने के चार साल बाद की बात है. पूरे देश की बात करें तो यह आंकड़ा 55 फीसदी ज्यादा था.
जेएस वर्मा कमेटी की रिपोर्ट में रेप केसेज में 60 दिनों में चार्जशीट फाइल करने और फास्ट ट्रैक कोर्ट में उसकी सुनवाई करने की मांग की गई थी, लेकिन हुआ क्या. आज भी इस देश की जिला और तालुका अदालतों में 3 करोड़ 17 लाख 35 हजार से ज्यादा केसेज लंबित पड़े हैं और उनमें से दो करोड़, 27 लाख केसेज महिलाओं के साथ हुई यौन हिंसा, रेप और वॉयलेंस के हैं. उत्तर प्रदेश की फास्ट ट्रैक अदालतों में दुष्कर्म व पॉस्को के 36,008 से ज्यादा मामले लंबित पड़े हैं.
थॉमसन रॉयटर्स की रिपोर्ट कहती है कि भारत महिलाओं के लिए दुनिया के सबसे डरावने और असुरक्षित मुल्कों में से एक है.
सारे तथ्य, आंकड़े और घटनाएं गवाह हैं कि सख्त कानून का महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. निर्भया के बाद देश की राजधानी से लेकर छोटे शहरों, गांवों और कस्बों तक महिलाओं के साथ वीभत्स रेप और हिंसा की अनगिनत घटनाएं हो चुकी हैं. चाहे वह कठुआ रेप केस हो या मथुरा में रेप केस. हर बार शोर होता है, कुछ दिन घटनाएं खबरों की सुर्खियों में बनी रहती हैं और फिर सब भूल जाते हैं, जब तक कि कोई दूसरी ऐसी घटना हमें नींद से न जगाए.
बिन लाग-लपेट के साफ सीधे शब्दों में कहें तो यह कि पिछले 10 सालों में दरअसल कुछ भी नहीं बदला है. यह देश महिलाओं के लिए आज भी उतना ही असुरक्षित है, जितना 10 साल पहले या उसके भी पहले था. एनसीआरबी का डेटा हर साल बता रहा है कि हिंसा की घटनाओं का ग्राफ कम होने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है.
क्योंकि बलात्कार कानून बनाने से नहीं रुकते. मृत्युदंड देने से, कठोर सजा देने से नहीं रुकते. बलात्कार और औरतों के साथ होने वाली हिंसा को रोकने के लिए एक लंबे और जागरूक सांस्कृतिक आंदोलन की जरूरत है. यदि समाज में हिंसा है, पितृसत्ता है तो समाज का कमजोर व्यक्ति उस हिंसा का शिकार होगा. औरतें अपनी कमजोर सामाजिक, आर्थिक के कारण पुरुषों की हिंसा के निशाने पर होंगी.
यदि खानापूर्ति ही मकसद है तो वो कानून बनाकर, सेमिनार आयोजित करके भी की ही जा रही है. लेकिन यदि सचमुच स्त्रियों के साथ होने वाली हिंसा के यह भयावह आंकड़े डराते और परेशान करते हैं तो कुछ और सोचने की जरूरत है.
Edited by Manisha Pandey