लोटपोट कर देते हैं चकल्लस वाले चक्रधरजी
अशोक चक्रधर कवि और व्यंग्यकार ही नहीं, नाट्यकर्मी, फिल्म निर्देशक, शिक्षक, वृत्तचित्र लेखक भी हैं। उनको सर्वाधिक शोहरत देश-विदेश के हिंदी कविसम्मेलनों के मंच से मिली है। आज (08 फरवरी) उनका जन्मदिन है।
वह मथुरा में आकाशवाणी केन्द्र में ऑडिशंड आर्टिस्ट, जननाट्य मंच के संस्थापक सदस्य, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निर्देशक, हिन्दी सलाहकार समिति, ऊर्जा मंत्रालय, भारत सरकार, हिमाचल कला संस्कृति, भाषा अकादमी के सदस्य, दूरदर्शन के कई एक महत्त्वपूर्ण कार्यक्रमों, वृत्तचित्र, टेलीफिल्मों के निदेशक, धारावाहिकों के लेखक भी रहे हैं।
हास्य-व्यंग्य के जीते-जागते प्रतिरूप, कवि-लेखक टेलीफ़िल्म एवं वृत्तचित्र निर्देशक, धारावाहिक लेखक, नाट्यकर्मी पद्मश्री डॉ अशोक चक्रधर का आज (8 फ़रवरी) जन्मदिन है। हिंदी के विश्व-मंच पर उनकी वाचिक परंपरा के शीर्ष कवियों में महत्वपूर्ण पहचान है। वह दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में हिंदी और पत्रकारिता विभाग के प्रोफेसर, केन्द्रीय हिंदी संस्थान तथा हिन्दी अकादमी दिल्ली के उपाध्यक्ष भी रहे हैं। वह मूलतः उत्तर प्रदेश के उपनगर खुर्जा के रहने वाले हैं। उनके पिता डॉ राधेश्याम 'प्रगल्भ' भी कवि थे। बचपन से ही उन्हें पिता का साहित्यिक स्नेहाशीष मिला।
साठ के दशक में उन्होंने रक्षामंत्री 'कृष्णा मेनन' के सामने अपना पहला कविता-पाठ किया था। उसी दशक में उन्होंने राष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी की अध्यक्षता में कविसम्मेलन के मंच से पहला कविता पाठ किया। उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं - बूढ़े बच्चे, सो तो है, भोले भाले, तमाशा, चुटपुटकुले, हंसो और मर जाओ, देश धन्या पंच कन्या, ए जी सुनिए, इसलिये बौड़म जी इसलिये, खिड़कियाँ, बोल-गप्पे, जाने क्या टपके, चुनी चुनाई, सोची समझी, जो करे सो जोकर, मसलाराम आदि। वह मथुरा में आकाशवाणी केन्द्र में ऑडिशंड आर्टिस्ट, जननाट्य मंच के संस्थापक सदस्य, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निर्देशक, हिन्दी सलाहकार समिति, ऊर्जा मंत्रालय, भारत सरकार, हिमाचल कला संस्कृति, भाषा अकादमी के सदस्य, दूरदर्शन के कई एक महत्त्वपूर्ण कार्यक्रमों, वृत्तचित्र, टेलीफिल्मों के निदेशक, धारावाहिकों के लेखक भी रहे हैं।
उनको 'ठिठोली पुरस्कार', 'हास्य-रत्न', 'काका हाथरसी हास्य पुरस्कार', 'टीओवाईपी अवार्ड, पं.जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय एकता अवार्ड, मनहर पुरस्कार, बाल साहित्य पुरस्कार, टेपा पुरस्कार, राष्ट्रभाषा समृद्धि सम्मान, हिन्दी उर्दू साहित्य अवार्ड, दिल्ली गौरव, राजभाषा सम्मान आदि से समादृत किया जा चुका है। अपनी व्यंग्यात्मक रचनाओं से वह देश-विदेशों में हिंदी कविसम्मेलनों के मंचों पर पिछले लगभग पांच दशकों से धूम मचाए हुए हैं। एक छोटी-सी उनकी 'सिक्के की औकात' शीर्षक कविता है-
एक बार बरखुरदार, एक रुपए के सिक्के,
और पाँच पैसे के सिक्के में लड़ाई हो गई,
पर्स के अंदर हाथापाई हो गई,
जब पाँच का सिक्का दनदना गया
तो रुपया झनझना गया, पिद्दी न पिद्दी की दुम
अपने आपको क्या समझते हो तुम!
मुझसे लड़ते हो, औक़ात देखी है, जो अकड़ते हो!
इतना कहकर मार दिया धक्का,
सुबकते हुए बोला पाँच का सिक्का-
हमें छोटा समझकर दबाते हैं, कुछ भी कह लें
दान-पुन्न के काम तो हम ही आते हैं।
अशोक चक्रधर की मंचीय लहर को उन दिनो से झटके लगने लगे, जब लॉफ्टर चैलेंज के झोंको ने भारतीय दर्शक-श्रोताओं को घटिया किस्म के लटको-झटकों का चस्का लगा दिया। मंचों की कविता और पढ़ने की कविता का अंतर साफ नजर आने लगे। ऐसे दौर में गंभीर-अगंभीर कविता के सवाल घुमड़ने लगे। वैसे भी, सवाल जायज थे, मंचों के मैराथन में कविता कैसे बनी रहे, बची रहे ! जबकि प्रतिदिन विविध विधाओं में असंख्य कविताएं लिखी जा रही हों, साहित्य रचा जा रहा हो, कवि-गोष्ठियों और कवि-सम्मेलनों, मुशायरों का तांता लगा हुआ, ऑनलाइन दुनियाभर में साहित्य बरस रहा हो, ऐसे में यह प्रश्न सर्वथा अटपटा लगता है, किंचित चौंकाता भी है। व्यंग्यकार अरविंद तिवारी कहते हैं कि कविसम्मेलनों में अब कविता कहाँ बची रह गई है।
आदमी की भावनाओं और विचारों पर रोज-रोज प्रहार, फिर आदमी की उपयोगिता, आदमी के भीतर की कविता का कुंद होते जाना, यह सब क्या है? कविता स्वयं एक विचार होती है। विचार न हो तो कविता, कविता नहीं रहे। जब तक सृष्टि है, सृष्टि में लय है, विलय है, ताल और ध्वनि है, तब तक कविता की मृत्यु नहीं हो सकती है। जब तक मनुष्य इस धरती पर जीवित है और उसके भीतर संवेदनापूर्ण हृदय का स्पंदन है और जब तक उसमें विचार हैं, कविता कभी समाप्त नहीं हो सकती है। आज का कविकर्म केवल स्वान्तः सुखाय नहीं रह गया है, बल्कि आधुनिक युगबोध के साथ उसका दायित्व और भी बढ़ गया है।
सदियों से घुन खाये समाज के यातना शिविरों में घुट-घुटकर मरते हुए सामान्य आदमी की पीड़ा का चित्रण करने वाली कविता ही श्रेष्ठ कविता की श्रेणी में आती है। बरसात में उगने वाले असंख्य पौधे, बेल बहूटियाँ और जंगली घास-फूस मौसम की मार पड़ते ही झुलस जाते हैं, मर जाते हैं। टिकते वही हैं, जिनकी जड़ें मज़बूत होती हैं। कविता के सन्दर्भ में भी यही बात लागू होती है। जिन कविताओं की वैचारिक पृष्ठभूमि ठोस एवं मजबूत होगी, वही कविता समय के साथ चलेगी। पहले श्रोता-पाठक की संख्या ज़्यादा होती थी, आज कवियों की। मंचीय कवियों ने सस्ती लोकप्रियता के व्यामोह में पड़कर कविता को मात्र मनोरंजन का साधन बना दिया है। वैसी ही लोगों की अभिरुचि हो गई है।
अभी कुछ दिन पहले ही फेसबुक पर एक कवि ने बड़ा ही शर्मनाक बयान दिया था कि वह कविता सिर्फ जनता के मनोरंजन के लिए लिखते हैं। जब कवि का सोच ऐसा हो तो कविता जन-मानस में अपनी पैठ कैसे बना पायेगी। और तो और जाने दीजिए, सैकड़ों ऐसी पत्र-पत्रिकाएं निकलती हैं, जिनके सम्पादकों को कविता की सही समझ नहीं। आपाधापी और मनोरंजन के ढेर सारे विकल्पों के चलते श्रोताओं, पाठकों की संख्या में भी काफी कमी आई है। अधिकांत: कवि ही कविता के पाठक-श्रोता नही हैं, केवल आत्म-मुग्धता ही उनका शगल है। ऐसे में (प्रसिद्ध कवि काका हाथरसी के रिश्ते में सगे दामाद) अशोक चक्रधर की कविताओं को भी आलोचना के केंद्र में आना ही था। एक बात तो तय है कि मंचीय कवियों को पैसा अच्छा मिलता इसीलिए चल रहे हैं, अब चाहे वो कविता सुनाएं या चुटकुला या फिर मसखरी... सामने बैठे लोग हू हू हा हा तो कर ही लेते हैं। जब कलम से पैसे कमाने की ठान ही ली तो ऐसे में नखरा कैसा। दूसरी तरफ, अमंचीय कवियों से तो प्रकाशक किताबें छापने तक के पैसे माँग रहे हैं।
प्रसिद्ध व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय कहते हैं कि अब यह विषय एक बड़ी बहस की मांग करता है। बहुत से श्रोता अभी भी इन चीजों से ऊपर हैं। कवि सम्मलेन लाफ्टर का रूप धारण कर रहा है। जो कविता पसन्द करता है उस वर्ग में ऐसे कवियों का स्थान नहीं है। आज के कवि सम्मेलनों में पढ़ी जाने वाली कविताओं में चुटकलों से अलग हास्य कविताएं हैं। कुछ कवि लिखते भी हैं किन्तु मंच के स्थापित कवि अपने चुटकलों के सामने हास्य कविताओं को नकारने क़ा शानदार उपक्रम करते हैं कि वह कवि निराश हो कर हल्केपन पर आ जाता है। खेमेबाजी से कोई भी अछूता नहीं है। जिनके कंधों पर कवि सम्मेलन की जिम्मेदारी है, उनके रवैय्ये की विवेचना सबसे ज्यादा जरूरी है। एक दूसरों को दोष देने के बजाय आत्म विश्लेषण करना प्रासंगिक होगा।
जो वाकई बड़े और विशुद्ध कवि हैं, उनकी भूमिका इस समय कैसी है? आशीष कुमार 'अंशु' लिखते हैं कि किसी कविता के लिये पहली शर्त भले उसका कविता होना हो, लेकिन मंचीय-कविता के माध्यम से विकसित कविता के बाज़ार में भी यही शर्त लागू हो, ऐसा नहीं है। एक अनुमान के अनुसार देश भर में बारह सौ मंचीय कवियों की फ़ौज और डेढ़ सौ करोड़ की इस ‘कवि-सम्मेलन इंडस्ट्री’ में जमे रहने के लिए अब कविता की समझ, संवेदना और हुनर बिलकुल नहीं चाहिए। अगर कुछ चाहिए तो जोड़-तोड़, ख़ेमेबाज़ी और ओढ़े गए आत्मविश्वास के साथ बला की नौटंकी। इधर देश भर में एक बड़ा वर्ग है जिसके लिये कविता का अर्थ मंच की कविता ही है।
इस वर्ग की नज़र में अशोक चक्रधर और सुरेंद्र शर्मा सरीखे रचनाकार सबसे बड़े कवि हैं। यह भोला वर्ग उन गजानन माधव मुक्तिबोध को नहीं जानता, जिनकी कविताओं पर अशोक चक्रधर ने डॉक्टरेट की उपाधि पाई है। पिछले लगभग दो दशकों में मंच के कवि और लिखने वाले कवियों में ऐसी फांक हुई कि दोनों एक दूसरे को अछूत मानने लगे हैं। इससे पहले यह दृश्य हिंदी में कभी नहीं था मगर अब लिखने वाले कवियों की राय में मंच पर फुहड़ता बढ़ गई और चुटकले को कविता बताया जा रहा है तो मंच के कवियों की शिकायत है कि लिखने वाले कवि, कविता और खुद को आम जनता से दूर कर चुके हैं।
लेकिन इस तरह की तमाम बहसों के बाद भी एक बड़े वर्ग के लिये मंच की कविता ही ‘सच्ची कविता’ है. और चुटकुलों व सतही व्यंग्यों से भरी यही ‘सच्ची कविता’ आम-आदमी के रुपयों से आयोजित मेलों-ठेलों के बड़े-बड़े कवि-सम्मेलनों से लेकर शासकीय और अर्ध-शासकीय संस्थाओं द्वारा ‘हिंदी पखवाड़े’ में आयोजित कवि-सम्मेलनों में बड़ी आत्ममुग्धता के साथ प्रस्तुत की जाती है। मंच की कविता का अपना गुणा-भाग और भूगोल है। जिन नामों के बिना मंच और मंच की कविता दोनों अधूरी लगती हैं, वह नाम सुरेन्द्र शर्मा और अशोक चक्रध्रर का है। अशोक चक्रधर कहते हैं कि जो लोग राडिया और राजा के दौर में जी रहे हैं, उनसे इतने छोटे बाज़ार पर क्या कहा जाए?
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