160 साल पुरानी इस सेल्फ़ हेल्प बेस्टसेलर से सीखकर आज खड़ा हो गया है पर्सनल डवलपमेंट का 5000 करोड़ का बाज़ार
इंसान चाहे तो कुछ भी कर सकता है, सब कुछ इंसान के भीतर होता है, अमीरी ग़रीबी दिमाग़ में होती है और गरीब तभी ग़रीब रहता है जब वह मेहनत नहीं करता - यह सब बातें जिन पर आज का सेल्फ़ हेल्प उद्योग खड़ा है, सैम्युअल स्माइल्स ने आज से एक सौ साठ पहले अपनी बेस्टसेलर किताब ‘सेल्फ़ हेल्प’ में लिख दीं थीं.
साल 1859 दुनिया की पब्लिशिंग हिस्ट्री में एक ऐतिहासिक साल रहा था. उस साल जॉन स्टुअर्ट मिल (John Stuart Mill) की “ऑन लिबर्टी” (On Liberty), चार्ल्स डार्विन (Charles Darwin) की “ऑन द ऑरिजिन ऑफ स्पीशीज” (On the Origin of Species) आयीं थीं जिन्होंने दुनिया को देखने समझने पर क्रांतिकारी असर डाला. डार्विन ने यह थ्योरी दी कि इंसान जैसा आज है वैसा ही पृथ्वी पर नहीं आया था, उसका एवोल्यूशन हुआ है. उन्होंने कहा कि इंसान पहले इंसान नहीं था, उसके पूर्वज ape प्रजाति के थे. डार्विन की बातें चर्च की मान्यताओं के ख़िलाफ़ थी क्योंकि बाइबिल के अनुसार ईश्वर ने इंसान और सारे जीव जंतु जैसे आज है वैसे ही छह दिन में बनाये थे. लिहाज़ा इस किताब को लेकर तहलका तो मचना ही था. लेकिन इस किताब ने इंसानों और उनके इतिहास के बारे में सोच तो हमेशा के लिये बदल दिया.
मिल की किताब का भी व्यापक, गहरा और दूरगामी प्रभाव पड़ा. मिल के उपयोगितावाद ने सामाजिक और राजनीतिक दर्शन, और राज्य की आधुनिक संरचनाओं को प्रभावित किया.
लेकिन उसी साल एक और किताब आई थी जिसे इन दोनों किताबों से ज्यादा खरीद कर पढ़ा गया. वह किताब थी सैमुएल स्माइल्स (Samuel Smiles) की “सेल्फ-हेल्प: कैरेक्टर एंड कन्डक्ट” (Self-Help: Character and Conduct) जिसने सेल्फ-हेल्प कल्चर जैसा हम आज जानते हैं की नींव रखी. 1859 में किताब से ज़्यादा सिर्फ एक किताब ज्यादा बिकी थी- बाईबल.
अगर आप पर्सनल ग्रोथ के महँगे सेमिनार और कोर्सेज़ का, लाइफ़ कोचिंग और कॉर्पोरेट सेल्फ-केयर इनिशिएटीव्स की आज की सालाना 80 करोड़ रुपये की इंडस्ट्री का स्त्रोत जानना चाहते हैं तो आपको सैमुएल स्माइल्स की “सेल्फ-हेल्प” पढनी चाहिए.
आत्म-निर्भर बनने के उपदेशों से भरी हुई यह किताब आज के दौर के सेल्फ-हेल्प केटेगरी की बेस्टसेलर किताबों की जननी कही जा सकती है.
लेकिन जाहिर है, स्माइल्स की किताब सेल्फ़ हेल्प की पहली किताब नहीं थी. सेल्फ-हेल्प बुक्स का हज़ारों सालों का इतिहास रहा है. उतना ही पुराना इतिहास इनको पसंद और नापसंद करने का भी रहा है.
सबसे पहला सेल्फ-हेल्प बुक्स एक इजिप्शियन ट्रेडिशन “सेब्य्त” (Sebayt) को कहा जा सकता है जिसमें नैतिक व्यवहार (moral conduct) , मेडीटेशन (meditations), अफोरिस्म्स (aphorisms), सेल्फ-कंट्रोल (self-control) की हिदायतें लिखीं जाती थीं. फिर मध्ययुग के दौरान “मिरस ऑफ प्रिंसेस” (Mirrors of Princes) नामक किताब में अच्छे राजा और बुरे राजा के गुणों और उनकी कहानियाँ लिखी होती थीं और राजाओं के लिए हिदायतें भरी होती थीं. भारत में पंचतंत्र और जातक कथाओं को और पश्चिम में ईसप के फ़ेबल्स को भी इस श्रेणी में रखा जा सकता है.
समाज के आधुनिक होने के साथ-साथ, लोगों में आधुनिक दिखने और आधुनिक तौर-तरीकों में अभ्यस्त होने की चाह सेल्फ-हेल्प के पॉप्प्यूलर होने की बहुत बड़ी वजह बनी. जो देश सबसे पहले आधुनिक हुए जैसे इंग्लैंड, फ्रांस, इटली वहां इस तरह की किताबों का एक व्यापक बाज़ार बना. साथ ही साथ प्रिंटिंग प्रेस के आ जाने से किताबों का छपना शुरू हुआ और प्रचार-प्रसार भी बढ़ने लगा. जेंटलमन कैसे बना जाए जाये? उनकी तरह कैसे बातें की जाएँ, विनम्र कैसे बनें, सभ्य कैसे दिखें या बनें ऐसे विषयों पर ढेरों किताबें लिखी जाने लगीं. कुछ इतना यह चलन हुआ कि Blowing the Nose, Beards of A Frightful Length, Hair-cut Round Like A Bowl-Dish जैसे विषयों पर किताबें आने लगी.
इसी सब के बीच आई स्कॉटिश मूल के सैमूएल स्माइल्स की “सेल्फ-हेल्प” को सनसनीखेज़ सफलता मिली और स्माइल्स खुद एक गुरु माने जाने लगे.
यह किताब कहती है कि दो तरह के गरीब होते हैं. पहले वो दो खूब मेहनत करते करते हैं और इसलिए डिजर्व करते हैं कि उनके साथ उचित बर्ताव हो, उन्हें सुना जाये. दूसरी तरह के गरीब वह होते हैं जो काम से जी चुराते हैं और इसलिए अनडिजर्विंग होते हैं - ऐसे ग़रीबों की कोई बात नहीं सुनी जानी चाहिये और उनको राज्य या सरकार से मिलने वाली सारी चैरिटी और मदद छीन ली जानी चाहिए. उन्हें खुद अपने हाथ-पैर मारने चाहिए और अपने खाने-पीने का इंतज़ाम करना चाहिए.
‘डिजर्विंग’ और ‘अनडिजर्विंग’ गरीब का यह आइडिया उस वक़्त के बिजनेस क्लास के लोगों को बहुत पसंद आया.
स्माइल्स और उनकी किताब को वैसी लोकप्रियता और अमरता नहीं मिली जैसी डार्विन और मिल को और उनकी किताबों को मिली लेकिन अब यह स्पष्ट होता जा रहा है कि दुनिया पर इसका असर भी कुछ कम नहीं रहा.
गरीबों के बारे में किताब की यह सोच आज बड़े पैमाने पर एक बड़ी जनसंख्या की सोच बन गयी है. आम लोगों के साथ साथ जिन्होंने इस किताब को इतना लोकप्रिय बनाया, व्यवसायी और सत्ता वर्ग के लोगों को इसकी सोच ख़ास तौर पर पसंद आती रही है. इसका अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि कुछ साल पहले इंग्लैंड की प्राईम मिनिस्टर मार्गरेट थैचर इस किताब इंग्लैंड के हर एक बच्चे को गिफ्ट करना चाहती थीं.
इस किताब का मक़सद ज़िन्दगी के लिए प्रैक्टिकल सलाह (advices) देना था. इसीलिए बहुत सारे ‘विजडम’ टीचिंग मॉडर्न, क्लासिकल, धार्मिक सभी जगहों से ली गयीं थी. शायद यही वजह है की इसमें लिखी काफी बातें सुनी-सुनी सी लगती हैं जैसे भगवान उसी की मदद करते हैं जो खुद की मदद करते हैं. या ग़रीबी में एक अजीब क़िस्म की फ़कीरी होती है जो इंसान की चेतना को जगा सकती है.
यह किताब एक साथ मॉडर्न, धार्मिक या स्पिरिचुअल होती हुई इंसान को सब कुछ के केंद्र में रखते हुए उसे अपना भाग्य-विधाता बताती है. मॉडर्न इसलिए क्योंकि इस किताब ने इंसान को “विक्टिम” के तौर पर देखने से इनकार कर दिया था. अमीर-गरीब कोई किस्मत से नहीं बनता, बल्कि अपने आदतों की वजह से बना रहता है. गरीब गरीब रह जाते हैं क्यूंकि वो मेहनत नहीं करते, असफल लोग अपनी हालात के लिए खुद ज़िम्मेदार होते हैं—हममें से बहुत लोग आज भी इस तरह की बातों को मानते ही हैं. उनका मानना था चाहे जो भी मुश्किलें हो, अगर इंसान कुछ ठान ले तो उसके लिए कुछ भी संभव नहीं है. इसीलिए उनकी किताब में नाई से लेकर ईंट के भट्टों पर काम करने वाले लोगों के बच्चों के बड़े आदमी बनने की कहानियाँ खूब मिलती हैं. मेहनत का फल मीठा होता है यह सबक, गीता में ही नहीं लिखा है, सैमुएल स्माइल्स की सेल्फ-हेल्प की विचारधारा से भी आता है. सार यह है कि “बाहर” से मदद के बिना इंसान अपनी तमाम चाहतों, इच्छाओं को पूरा कर सकता है क्योंकि सारी संभावनाएं इंसान के “भीतर” होती हैं. यह शिक्षा आज की स्पीरिचुल टीचिंग या विश्वास के स्रोत की तरह देखी जा सकती है. जिसमें अपने ऊपर कंट्रोल रखने की बात, सेल्फ को डिसिप्लिन करने की बात, खुद को लगातार बेहतर करने की बात या हमेशा कुछ ना कुछ नया सीखने की हिदायतें या सलाहें दी जाती हैं.
स्माइल्स के मुताबिक़ शॉर्ट-कट अपनाना, छोटी-छोटी आदतों को कमतर आंकना, क्विक-फिक्स सोल्यूशन ढूंढना आलसी लोगों का काम है और उनके मुताबिक़ “ज़िंदगी की कठिन पठशाला” में उनकी कोई जगह नहीं हो सकती है.
व्यक्ति ना सिर्फ अपने जीवन के केंद्र के बल्कि समाज के केंद्र भी, स्माइल्स की किताब में, व्यक्ति और उनकी क्षमताएं ही हैं. इसीलिए सरकार की जरुरत नहीं है. सरकार के पास पैसा होता है जिससे पॉवर आती है इसीलिए सरकार निकम्मी होती है इत्यादि इत्यादि. पैसे सहेजना, जमा करना इस किताब में बुरी आदतों की तरह बताया गया है इसीलिए दान करते रहना चाहिए. परोपकार नैतिकता की पराकाष्ठा है और चैरिटी उसका उत्कृष्ट नमूना. दान-दक्षिणा करते हुए हमें नेक काम करने चाहिए और समाज को समृद्ध बनाने में योगदान करना चाहिए. बिल गेट्स से लेकर वारेन बफे, एड्सेल फोर्ड, जमशेदजी टाटा के नाम के ऊपर समाज को चैरिटी करके बेहतर करना आज के दौर में भी बिना ज़्यादा आलोचना के स्वीकार कर लिया जासैमुएल स्माइल्स की किताब पढ़ते हुए उस वक़्त के इंग्लैंड की सामाजिक व्यवस्था का बहुत पता नहीं लगता है. सैमुएल स्माइल्स का कथन अमीर-गरीब का फ़र्क ‘दिमाग’ में होता है यह बात पढ़ते हुए इंग्लैंड के ही लेखक चार्ल्स डिकेन्स के उपन्यास “ग्रेट एक्स्पेक्टेशन” की याद आती है जो स्माइल्स के समय के ही एक ग़रीब लड़के के अमीर बनने की कहानी है जो अमीर बनने पर भी लाख कोशिशों के बावजूद अपने पास्ट से पीछा नहीं छुड़ा पाता है. और हमें सोचने पर मज़बूर करता है कि जो समस्याएँ राजनैतिक और सामाजिक ढाँचे के कारण पैदा होती हैं जैसे कि अमीरी और ग़रीबी क्या उन्हें व्यक्ति केवल अपने दम पर हल सकते हैं - जैसा सैमूएल स्माइल्स अपने इस किताब में प्रॉमिस करते हैं.