84 दंगों के पीड़ित बलविंदर सिंह सब कुछ खोकर भी पेश कर रहे हैं जिंदगी की मिसाल
84 के दंगों में मारे गए बहुत लोग बेघर हो गए। इन्हीं में से कई इस ज़ख़्म पर मरहम लगते रहे, कितनों के दिलों में बदले की आग दहकती रही मगर कुछ ऐसे भी हुए जो इतना होने के बावजूद भी टूटे नहीं। उन्हीं में से एक शख्स हैं बलविंदर सिंह जो आज सड़कों पर लैंप बेचकर अपना गुजारा करते हैं।
जिस दौर में रातें तो रौशन रहती थीं मगर चांद की चांदनी से नहीं बल्कि सिक्खों के जल रहे घरों से। पंजाब की इसी आग में बलविंदर सिंह ने अपना सबकुछ खो दिया। एक एक पैसा जो इन्होने खून पसीना एक कर के कमाया था वो सब जल कर ख़ाक हो गया।
84 के नरसंहार से भारत के दमन पर जो खून के छींटे पड़े उनका दाग धुलना लगभग नामुमकिन है। लोग उस दाग को भुला भी दें फिर भी वो दर्द कैसे भुलाएं जिसने उनका सब कुछ छीन लिया। किसी ने अपना जवान बेटा खोया तो किसी के घर का इकलौता सहारा चला गया। छोटे छोटे बच्चे मांओं की लाश से लिपट कर रोते रहे तो कहीं बूढ़े बाप का कन्धा जवान बेटे की अर्थी के बोझ से और झुक गया। बहुत मारे गए बहुत बेघर हो गए, इन्हीं में से कई इस ज़ख़्म पर मरहम लगते रहे, कितनों के दिलों में बदले की आग दहकती रही मगर कुछ ऐसे भी हुए जो इतना होने के बावजूद भी टूटे नहीं। पूरी तरह ढह गए मगर किसी से सहारे की उम्मीद नहीं की। रेंगते हुए ही सही मगर खुद अपनी हिम्मत से खड़े हुए।
आज मैं एक ऐसे ही शख्स की बात आपको बताने जा रहा हूं जिसने अपने दम पर मौत के जबड़े से जिंदगी को छीना। ये हैं दिल्ली के बलविंदर सिंह, 84 के वो दंगे जिसे पंजाब के इतिहास का सबसे काला दौर कहा जाता है। जिस दौर में रातें तो रौशन रहती थीं मगर चांद की चांदनी से नहीं बल्कि सिक्खों के जल रहे घरों से। पंजाब की इसी आग में बलविंदर सिंह ने अपना सबकुछ खो दिया। एक-एक पैसा जो इन्होंने खून पसीना एक कर के कमाया था वो सब जल कर ख़ाक हो गया। खुद सड़क पर आ गए।
लेकिन गुरु के इस सिक्ख के पास अगर कुछ बचा था तो वो थी हिम्मत और इसी हिम्मत के दम पर इन्होने फिर से उठ खड़े होने की ठानी। उन विकट परिस्थितियों से लड़ते हुए ये फिर से अपाहिज हो चुकी ज़िन्दगी को पैरों पर खड़ा करने में जुट गए। ऐसे हालात में हर कोई चाहता है कि उसे किसी का सहारा मिल जाए मगर इन्होने किसी से भी मदद की गुहार नहीं लगाई। किसी के सामने विनती नहीं की कभी किसी के आगे हाथ नही फ़ैलाया।
आज बलविंदर सिंह पैदल ही शहर शहर गांव गांव घूम कर लैंप बेचते हैं। यकीन मानिए इस आराम पसंद दौर में जहां हम एक गिलास पानी खुद से पीना एक बड़ा काम मानते हैं, ये प्रतिदिन 25 किमी पैदल यात्रा करते हैं। इतना करने के बाद ये 300 से 500 रुपये कमा पाते हैं। मगर कहते हैं न कि जिसके पास संतुष्टि है वो शख्स सबसे अमीर है। बलविंदर जी भी उन्हीं अमीरों में से हैं क्योंकि वे अपनी इतनी कमाई से संतुष्ट ही हैं।
इनके संदर्भ में जो सबसे प्यारी बात है वो ये कि इन्होने कभी अपनी परिस्थितियों का रोना रोते हुए सरकार से मदद नहीं मांगी। जो किया वो अपने दम पर किया और इनकी यही बात इनके प्रति मन में आदर भर देती है। हमें गर्व है इस बात का कि हम इनकी कौम से हैं, गर्व है हमें बलविंदर सिंह जी और इनके संघर्षपूर्ण किन्तु संतुष्ट जीवन पर। ये उन्हीं सिक्खों में से हैं जिनके कारण आज हम किसी को गर्व से कह सकते हैं कि आपने कभी किसी सिक्ख को किसी के सामने हाथ फैला कर भीख मांगते हुए नहीं देखा होगा। दिल से नमन करता हूं इन्हें।
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(यह स्टोरी लिख भेजी है हमें हरपाल सिंह भाटिया ने)