कुंवर नारायण फिल्म की तरह टुकड़ों में लिखते हैं कविता
सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन अज्ञेय द्वारा संपादित तार सप्तक के प्रमुख कवियों में रहे कुंवर नारायण नई कविता आंदोलन के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनका रचना संसार इतना व्यापक एवं जटिल है कि उसको कोई एक नाम देना सम्भव नहीं। यद्यपि उनकी मूल रचना-विधा कविता है लेकिन उन्होंने कहानी, लेख और समीक्षा के साथ सिनेमा, रंगमंच सहित कला के अन्य माध्यमों में भी महारत प्राप्त की है।
कालांतर में कुंवर नारायण का रुझान फिल्मों की ओर भी हुआ। इसकी एक ख़ास वजह बताई जाती है। उनका मानना है कि सम्प्रेषणीयता की दृष्टि से एक माध्यम के रूप में फ़िल्म और कविता में काफी समानता है। वह कहते हैं,- जिस तरह फ़िल्मों में रशेज इकट्ठा किए जाते हैं और बाद में उन्हें संपादित किया जाता है, उसी तरह कविता रची जाती है। फ़िल्म की रचना-प्रक्रिया और कविता की रचना-प्रक्रिया में साम्य है। आर्सन वेल्स ने भी कहा है कि कविता फ़िल्म की तरह है।
हिन्दी कविता के पाठकों के बीच एक नई तरह की समझ विकसित करने का श्रेय उन्हें जाता है। हिंदी साहित्य में उनके संग्रह 'परिवेश हम तुम' के माध्यम से मानवीय संबंधों की एक विरल व्याख्या प्रस्तुत हुई। उन्होंने अपने प्रबंध 'आत्मजयी' में मृत्यु संबंधी शाश्वत समस्या को कठोपनिषद का माध्यम बनाकर अद्भुत व्याख्या के साथ रेखांकित किया।
पद्मभूषण, ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी, व्यास सम्मान, प्रेमचंद पुरस्कार, कबीर सम्मान, शलाका सम्मान, प्रीमियो फ़ेरेनिया सम्मान से समादृत हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि कुंवर नारायण का आज (19 सितंबर) जन्मदिन है। सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन अज्ञेय द्वारा संपादित तार सप्तक के प्रमुख कवियों में रहे कुंवर नारायण नई कविता आंदोलन के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनका रचना संसार इतना व्यापक एवं जटिल है कि उसको कोई एक नाम देना सम्भव नहीं। यद्यपि उनकी मूल रचना-विधा कविता है लेकिन उन्होंने कहानी, लेख और समीक्षा के साथ सिनेमा, रंगमंच सहित कला के अन्य माध्यमों में भी महारत प्राप्त की है। वह चार वर्षों तक उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी के उप पीठाध्यक्ष रहने के अलावा अज्ञेय द्वारा संपादित मासिक पत्रिका 'नया प्रतीक' के संपादक मंडल में भी रहे। उच्च शिक्षा प्राप्त करने की उम्र में ही उनका प्रथम काव्य संग्रह 'चक्रव्यूह' पाठकों के बीच आ गया था।
साहित्य में अपने प्रयोगधर्मी रुझान के कारण केदारनाथ सिंह, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और विजयदेव नारायण साही के साथ उन्हें भी ‘तीसरा सप्तक‘ से अपार प्रसिद्धि मिली। जब 1965 में उनका ‘आत्मजयी‘ प्रबंध काव्य प्रकाशित हुआ, वह देश के अतिसंभावनाशील कवियों में शुमार हो गए। उसके बाद तो उनकी अनमोल कृतियों - 'आकारों के आसपास', 'परिवेश : हम-तुम', 'अपने सामने', 'कोई दूसरा नहीं', 'इन दिनों', 'आज और आज से पहले', 'मेरे साक्षात्कार', 'वाजश्रवा के बहाने', 'इन दिनों', 'साहित्य के कुछ अन्तर्विषयक संदर्भ', 'कुंवर नारायण-संसार', 'कुंवर नारायण उपस्थिति', 'कुंवर नारायण चुनी हुई कविताएं', 'कुंवर नारायण- प्रतिनिधि कविताएं' आदि का आश्चर्यजनक रचना-प्रवाह-सा उमड़ पड़ा। आज वह देश के प्रयोगधर्मी शीर्ष कवियों में एक हैं।
हिन्दी कविता के पाठकों के बीच एक नई तरह की समझ विकसित करने का श्रेय उन्हें जाता है। हिंदी साहित्य में उनके संग्रह 'परिवेश हम तुम' के माध्यम से मानवीय संबंधों की एक विरल व्याख्या प्रस्तुत हुई। उन्होंने अपने प्रबंध 'आत्मजयी' में मृत्यु संबंधी शाश्वत समस्या को कठोपनिषद का माध्यम बनाकर अद्भुत व्याख्या के साथ रेखांकित किया। इसमें नचिकेता अपने पिता की आज्ञा, 'मृत्य वे त्वा ददामीति' अर्थात मैं तुम्हें मृत्यु को देता हूं, को शिरोधार्य करके यम के द्वार पर चला जाता है, जहां वह तीन दिन तक भूखा-प्यासा रहकर यमराज के घर लौटने की प्रतीक्षा करता है। उसकी इस साधना से प्रसन्न होकर यमराज उसे तीन वरदान मांगने की अनुमति देते हैं। नचिकेता इनमें से पहला वरदान यह मांगता है कि उसके पिता वाजश्रवा का क्रोध समाप्त हो जाए। नचिकेता के इसी कथन को आधार बनाकर कुंवर नारायण की कृति 'वाजश्रवा के बहाने' हिंदी साहित्य में लोकख्यात हुई।
कालांतर में कुंवर नारायण का रुझान फिल्मों की ओर भी हुआ। इसकी एक ख़ास वजह बताई जाती है। उनका मानना है कि सम्प्रेषणीयता की दृष्टि से एक माध्यम के रूप में फ़िल्म और कविता में काफी समानता है।
वह कहते हैं,- 'जिस तरह फ़िल्मों में रशेज इकट्ठा किए जाते हैं और बाद में उन्हें संपादित किया जाता है, उसी तरह कविता रची जाती है। फ़िल्म की रचना-प्रक्रिया और कविता की रचना-प्रक्रिया में साम्य है। आर्सन वेल्स ने भी कहा है कि कविता फ़िल्म की तरह है। मैं कविता कभी भी एक नैरेटिव की तरह नहीं बल्कि टुकड़ों में लिखता हूं। ग्रीस के मशहूर फ़िल्मकार लुई माल सड़क पर घूमकर पहले शूटिंग करते थे और उसके बाद कथानक बनाते थे।
क्रिस्तॉफ क्लिस्वोव्स्की, इग्मार बर्गमैन, तारकोव्स्की, आंद्रेई वाज्दा आदि मेरे प्रिय फ़िल्मकार हैं। इनमें से तारकोव्स्की को मैं बहुत ज्यादा पसंद करता हूं। उसको मैं फ़िल्मों का कवि मानता हूं। हम शब्द इस्तेमाल करते हैं, वो बिम्ब इस्तेमाल करते हैं, लेकिन दोनों रचना करते हैं। कला, फ़िल्म, संगीत ये सभी मिलकर एक संस्कृति, मानव संस्कृति की रचना करती है लेकिन हरेक की अपनी जगह है, जहाँ से वह दूसरी कलाओं से संवाद स्थापित करे। साहित्य का भी अपना एक कोना है, जहां उसकी पहचान सुदृढ़ रहनी चाहिए। उसे जब दूसरी कलाओं या राजनीति में हम मिला देते हैं तो हम उसके साथ न्याय नहीं करते। आप समझ रहे हैं न मेरी बात?'
कुंवर नारायण की कविताओं के अपने दुख हैं। उनकी जड़ों में झांकते हुए वह स्वयं बताते हैं - 'मेरी मां, बहन और चाचा की टीबी से मौत हुई थी। यह सन् 35-36 की बात है। मेरे पूरे परिवार में प्रवेश कर गयी थी टीबी। उन्नीस साल की मेरी बहन बृजरानी की मौत के छह महीने बाद 'पेनिसिलीन' दवाई मार्केट में आयी। डॉक्टर ने कहा था, 'छह महीने किसी तरह बचा लेते तो बच जाती आपकी बहन। बीच में मुझे भी टीबी होने का शक था। चार-पांच साल तक हमारे मन पर उसका आतंक रहा। ये सब बहुत लंबे किस्से हैं। बात यह है कि मृत्यु का एक ऐसा भयानक आतंक रहा हमारे घर-परिवार के ऊपर जिसका मेरे लेखन पर भी असर पड़ा। मृत्यु का यह साक्षात्कार व्यक्तिगत स्तर पर तो था ही सामूहिक स्तर पर भी था।
द्वितीय विश्व युद्ध खत्म होने के बाद सन् पचपन में मैं पौलेंड गया था। विश्वनाथ प्रताप सिंह भी गए थे मेरे साथ। वहां मैंने युद्ध के विध्वंस को देखा। तब मैं सत्ताइस साल का था। इसीलिए मैं अपने लेखन में जिजीविषा की तलाश करता हूं। मनुष्य की जो जिजीविषा है, जो जीवन है, वह बहुत बड़ा यथार्थ है। लोग कहते हैं कि मेरी कविताओं में मृत्यु ज्यादा है लेकिन मैं कहता हूँ कि जीवन ज्यादा है। देखिए, मृत्यु का भय होता है लेकिन जीवन हमेशा उस पर हावी रहता है। दार्शनिकता को मैं न जीवन से बाहर मानता हूँ और न कविता से। कविता में मृत्यु को मैंने इसलिए ग्रहण किया क्योंकि वह जीवन से बड़ा नहीं है। इसे आप मेरी कविताओं में देखेंगे। मैंने हमेशा इसको ‘एसर्ट’ किया है। ‘आत्मजयी’ कविता में भी मैंने इसी शक्ति को देखा है।'
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