सबसे ख़तरनाक होता है मरसिए की तरह पढ़ा जाने वाला गीत
एक बड़ा सवाल जमाने से चलता, चला आ रहा है कि साहित्य का राजनीतिक पक्ष होना चाहिए कि नहीं? और उसका राजनीतिक पक्ष हो, तो क्या हो? बात राजस्थान साहित्य अकादमी के अध्यक्ष डॉ. इंदुशेखर 'तत्पुरुष' की एक गौरतलब टिप्पणी से शुरू करते हैं। 'तत्पुरुष' कहते हैं, संवेदना का संस्कार, सौंदर्य का विस्तार और भाषा का परिष्कार, इन तीनों मानदंडों पर खरा उतरने वाला लेखन ही साहित्य की प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकता है।
वर्तमान में सोशल मीडिया पर हर कोई लिखने लगा है, जिसकी वजह से साहित्य के क्षेत्र में अराजकता का माहौल हो गया है। हर आदमी अपनी प्रतिक्रिया देने में लगा हुआ है। भले ही उसे उसका ज्ञान हो, न हो। पहले कई बार लेख को पढ़ा जाता था, उसकी एडिटिंग होती थी। इसके बाद ही वह लोगों के सामने आता था।
जब-जब शासक वर्गों की नीतियां जनहितकारी नहीं रही हैं, साहित्यकार ही सबसे पहले मुखर होता है क्योंकि वह जनता का सबसे संवेदनशील प्रतिनिधि होता है। जब वह ऐसा करता या लिखता है, निश्चित रूप से वह सत्ता प्रतिष्ठान का विपक्ष हो जाता है। जैसे ही वह विपक्ष की भूमिका में, जनता के सच्चे प्रतिनिधि के रूप में सामने आता है, उसकी राजनीतिक भूमिका की शुरुआत हो जाती है।
एक बड़ा सवाल जमाने से चलता, चला आ रहा है कि साहित्य का राजनीतिक पक्ष होना चाहिए कि नहीं? और उसका राजनीतिक पक्ष हो, तो क्या हो? बात राजस्थान साहित्य अकादमी के अध्यक्ष डॉ. इंदुशेखर 'तत्पुरुष' की एक गौरतलब टिप्पणी से शुरू करते हैं। 'तत्पुरुष' कहते हैं, 'संवेदना का संस्कार, सौंदर्य का विस्तार और भाषा का परिष्कार, इन तीनों मानदंडों पर खरा उतरने वाला लेखन ही साहित्य की प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकता है। तथ्य और कल्पनाओं में उलझना वैज्ञानिकों का काम है। साहित्य का आधार तो केवल संवेदना है। राजनीतिक विरोध के हथियार के रूप में प्रयुक्त होकर साहित्य अपनी अस्मिता को खो रहा है। रचनाकार को स्वप्रेरणा से संवेदनशील रहकर अपनी उड़ान भरनी है, लेकिन उसे किसी अन्य प्रभाव में आन्दोलन का हथियार नहीं बनना चाहिए।
वर्तमान में सोशल मीडिया पर हर कोई लिखने लगा है, जिसकी वजह से साहित्य के क्षेत्र में अराजकता का माहौल हो गया है। हर आदमी अपनी प्रतिक्रिया देने में लगा हुआ है। भले ही उसे उसका ज्ञान हो, न हो। पहले कई बार लेख को पढ़ा जाता था, उसकी एडिटिंग होती थी। इसके बाद ही वह लोगों के सामने आता था। यह भी होना चाहिए कि अकादमियों में राजनीतिक हस्तक्षेप न हों। व्यक्तिगत एवं दलगत राजनीति से ऊपर उठकर काम करना चाहिए। आमतौर पर साहित्यकार ही सरकार के प्रवक्ता बन जाते हैं, जबकि सरकार किसी पार्टी की नहीं विधि (कानून) की होती है। वैधानिक तरीके से नियमों का पालन करते हुए अपने दायित्वों का निर्वहन करती है।'
अब आइए, 'तत्पुरुष' की टिप्पणी के एक सबसे महत्वपूर्ण वाक्य पर दृष्टि टिकाते हैं- 'रचनाकार को ...किसी अन्य प्रभाव में आन्दोलन का हथियार नहीं बनना चाहिए।' इसी से मिलता-जुलता जुमला है- कला, कला के लिए। दरअसल, जब ऐसी बातें कही जाती हैं, उसमें भी एक राजनीति होती है। खासतौर से जो लोग शीर्ष सरकारी पदों पर आसीन होते हैं, उन्हें सरकार की भाषा बोलनी-हि-बोलनी होती है। अन्यथा कुर्सी डांवाडोल हो जाने का खतरा रहता है। साहित्य, और कुछ नहीं, शब्दों का जनतंत्र होता है। जनता का पक्ष होता है।
आज से नहीं, संतकवि तुलसीदास के जमाने से जब-जब शासक वर्गों की नीतियां जनहितकारी नहीं रही हैं, साहित्यकार ही सबसे पहले मुखर होता है क्योंकि वह जनता का सबसे संवेदनशील प्रतिनिधि होता है। जब वह ऐसा करता या लिखता है, निश्चित रूप से वह सत्ता प्रतिष्ठान का विपक्ष हो जाता है। जैसे ही वह विपक्ष की भूमिका में, जनता के सच्चे प्रतिनिधि के रूप में सामने आता है, उसकी राजनीतिक भूमिका की शुरुआत हो जाती है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या साहित्यकार को जनता का संवेदनशील, ईमानदार, सच्चा प्रतिनिधि नहीं होना चाहिए। यदि उसकी संवेदना का जनता से कोई लेना-देना नहीं है, तो उसके शब्दों का क्या महत्व है। जब इंदिरा गांधी ने भारत में आपातकाल लगाया था, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा था-
सदियों की ठंढी, बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
आपात काल में देश जबकि एक महाकारागर में तब्दील होता जा रहा था, तो, क्या उस वक्त दिनकर जी को ऐसा नहीं लिखना चाहिए था? उनके शब्दों में जनता का स्वर नहीं गूंजना चाहिए था। अब, जरा उससे पहले के एक प्रसंग पर आते हैं। उस समय ब्रिटिश शासक देश में घुस आए थे। पूरा हिंदुस्तान उनके अत्याचारों से थरथरा रहा था। मुगल शासक (1837-57) एवं मशहूर शायर बहादुरशाह जफर थे, जिनकी मजार पर यंगून में पिछले दिनो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चादर चढ़ाने गए थे, अंग्रेजों ने उनके दो बेटों मिर्ज़ा मुगल और ख़िज़ार सुलतान का सर काट कर थाली में उनके पास भेजा था और उन्हें गिरफ्तार कर रंगून भेज दिया था। जीवन के बाकी दिन उन्होंने वही कारागृह में काटे। उनके शब्दों में उन दिनो हिंदुस्तान की जनता की आवाज गूंज रही थी। फिर वही सवाल, कि क्या जफर को ये बागी पंक्तियां नहीं लिखनी चाहिए थीं?
हिंदिओं में बू रहेगी जब तलक ईमान की।
तख्त ए लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की।
आपात काल में जब जयप्रकाश नारायण पूरे देश में कांग्रेस राज के खिलाफ जनता को जगा रहे थे, उनकी हर सभा की शुरुआत से पहले इन पंक्तियों का सस्वर पाठ किया जाता था-
जयप्रकाश का बिगुल बजा है, जाग उठी तरुणाई है।
उठो जवानो, क्रांति द्वार पर तिलक लगाने आई है।
ये लाइनें भी तो किसी कवि ने ही लिखी होंगी, जो देश की करोड़ो-करोड़ जनता की आवाज बनकर इस तरह गूंज उठी कि कांग्रेस को सत्ता से हाथ धोना पड़ा। साहित्य को समाज का दर्पण क्यों कहा जाता है। उसमें जनता का स्वर होता है, समाज का सुख-दुख गाया जाता है, लिखा जाता है। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान देश के कवि-साहित्यकार अगर छायावादी गीत लिखते रहते तो देश की जनता उन्हें कभी माफ नहीं करती। अनेक कवि-साहित्यकार, पत्रकार अंग्रेजी हुकूमत के अत्याचारों के शिकार हुए। पंजाब में जिन दिनो आतंकवाद कहर बरपा रहा था, दहशदजदां जनता के पक्ष में क्रांतिकारी कवि पाश उठ खड़े हुए। उनके शब्द बुलंद हुए। आतंकवादियों ने उन्हें मार डाला। उन दिनो पाश ने लिखी थी ये कविता, जिसमें 'तत्पुरुष' की टिप्पणी का पूरा जवाब भी परिभाषित होता है, अब इसे राजनीति कहिए या कुछ और -
मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती,
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती,
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती....
सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना, सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर, और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है, हमारे सपनों का मर जाना
सबसे ख़तरनाक वो घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी नज़र में रुकी होती है
सबसे ख़तरनाक वो आंख होती है
जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्बात से चूमना भूल जाती है
और जो एक घटिया दोहराव के क्रम में खो जाती है
सबसे ख़तरनाक वो गीत होता है
जो मरसिए की तरह पढ़ा जाता है....।
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