सब चला जाए पर 'जाति' क्यों नहीं जाती!
मायावती एक और तो जात-पांत की बात करती है, दूसरी तरफ चुनाव के दौरान टिकट वितरण में बाकी पार्टियों की तरह सबसे ज्यादा जातीय समीकरण पर ही ध्यान देती हैं। ब्राह्मणों और मुस्लिमों को सर्वाधिक तरजीह देती हैं ताकि दलितों के समर्थन से जीत का गणित ठीकठाक रखा जा सके।
यह सच है कि वोट पर जाति का असर पड़ता है। कभी-कभार जाति के आधार पर ध्रुवीकरण इतना तीखा होता है कि जाति के सिवाय और कुछ नहीं लगने लगता है लेकिन आंकड़े बताते हैं कि जाति वोट पर असर डालने वाले कारकों में से एक है, एकमात्र क़तई नहीं।
उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की पूरी की पूरी राजनीति जात-पांत पर ही केंद्रित रही है। बहुत पहले उत्तर प्रदेश से डेपुटेशन पर दिल्ली में सेवारत एक सीनियर आइएएस ने बातचीत में कहा था कि वह तब तक उत्तर प्रदेश नहीं लौटना चाहते हैं, जब तक कि वहां सपा अथवा बसपा का राज होगा।
बहुजन समाज पार्टी की सर्वेसर्वा मायावती को लोग इज्जत से 'बहनजी' कहते हैं। देश, खासतौर से उत्तर प्रदेश की सियासत में उनका अपना अलग रोब-रुतबा है। हालात अब भले ही एकदम पतले हो चले हों लेकिन आवाज में तल्खी वही अपने शासन के जमाने जैसी है। उनकी टिप्पणियों में घूम-फिर कर जात-पांत की बात आ जाती है। कांसीराम के तेवरों में 'तिलक-तराजू और तलवार', जैसी बातों से भला कौन वाकिफ नहीं होगा। बड़बोलेपन से ही पिछले चुनाव में उनकी पार्टी की उत्तर प्रदेश में जो गत हुई है, अब उसे संवारने में वह जुटी हुई हैं। पिछले दिनो वह उत्तर प्रदेश के जिला आजमगढ़ के दौरे पर पहुंचीं तो उनकी धमकियों की सिरीज में एक और कड़ी जुड़ गई।
केंद्र और प्रदेश सरकार की नीतियों के खिलाफ आंदोलन और आगामी चुनाव के लिए कार्यकर्ताओं में जोश भरने की शुरुआत उन्होंने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर हमले के साथ की। बोला- देश और राज्य में भाजपा की सरकार है। यह सरकार दलितों के साथ अन्याय कर रही है। दलितों और दबे कुचले लोगों की दशा में सुधार नहीं हुआ तो वह समर्थकों के साथ बौद्ध धर्म अपना लेंगी। इसके बाद वह अपने भाषण में बीजेपी पर अपनी हत्या करवाने की साजिश रचने का आरोप लगाती हैं। कहती हैं- भाजपा आगामी लोकसभा चुनाव में वोट बैंक को मजबूत करने के लिए सर्जिकल स्ट्राइक का नाटक कर सकती है। चुनाव से पहले वह सांठगांठ से दाऊद को भारत ला सकती है।
मायावती एक और तो जात-पांत की बात करती है, दूसरी तरफ चुनाव के दौरान टिकट वितरण में बाकी पार्टियों की तरह सबसे ज्यादा जातीय समीकरण पर ही ध्यान देती हैं। ब्राह्मणों और मुस्लिमों को सर्वाधिक तरजीह देती हैं ताकि दलितों के समर्थन से जीत का गणित ठीकठाक रखा जा सके। पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनावों का मुआयना करें तो पता चलता है कि जात-पांत का समीकरण फिट करने का उनका पुराना फार्मूला बेकार साबित होने लगा है। इसकी कई खास वजहें हैं, जिनमें एक है, उनका सरकार चलाने का तरीका। जैसे वह सत्ता में आती हैं, भाषण की बातें उठाकर किनारे रख देती हैं। एक वजह और है, उनके और उनके खास लोगों के पास लगा दौलत का अंबार।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में सिर्फ बातों के जादू-मंतर से ज्यादा दिन तक काम नहीं चलता। जनता में हर वर्ग के लोग आते हैं। बौद्धिक वर्ग भी, अनपढ़ भी। बौद्धिक वर्ग ही जनमत बनाता है। वह अच्छी तरह जानता है कि कौन नेता ईमानदारी से अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह कर रहा है, किसके शासन में भ्रष्टाचारियों और घोटालेबाजों को संरक्षण मिलता है। जहां तक जात-पांत का आरोप लगाते हुए उनके बौद्ध धर्म ग्रहण कर लेने की धमकी की बात है, जातिवादी मानसिकता लगभग सभी राजनीतिक दलों में हावी है। आजादी के इतना लंबा समय व्यतीत हो जाने के बावजूद राजनीतिक दल जातिवाद की संकीर्णता से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। यह बीमारी इतनी गहराई तक पैठ चुकी है कि राजनीतिक दलों की संगठन से लेकर टिकट वितरण तक सारी गतिविधियां पूरी तरह से जातिवाद के इर्द गिर्द ही केन्द्रित होकर रह गई हैं।
उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की पूरी की पूरी राजनीति जात-पांत पर ही केंद्रित रही है। बहुत पहले उत्तर प्रदेश से डेपुटेशन पर दिल्ली में सेवारत एक सीनियर आइएएस ने बातचीत में कहा था कि वह तब तक उत्तर प्रदेश नहीं लौटना चाहते हैं, जब तक कि वहां सपा अथवा बसपा का राज होगा। दुर्भाग्य रहा कि सरकारी सेवा में उनके बने रहने तक यूपी में इन दोनों पार्टियों में से ही किसी न किसी एक की सरकारें रहीं। जब तक सूरत बदलती, वह सेवा से रिटायर हो चुके थे। जब उनसे पूछा गया था कि आप ने ऐसी क्यों ठान ली, तो उनका कहना था- वहां जात-पांत का नंगा नाच चल रहा है। हुक्मरान सबसे पहले शासकों पर ही दबाव डाल कर अपनी जातिवादी राजनीति के नफा-नुकसान के हिसाब से काम करवाना चाहते हैं।
यह सच है कि वोट पर जाति का असर पड़ता है। कभी-कभार जाति के आधार पर ध्रुवीकरण इतना तीखा होता है कि जाति के सिवाय और कुछ नहीं लगने लगता है लेकिन आंकड़े बताते हैं कि जाति वोट पर असर डालने वाले कारकों में से एक है, एकमात्र क़तई नहीं। आमतौर पर कोई भी एक जाति किसी एक दल या उम्मीदवार के पक्ष में चालीस-पैंतालीस फीसदी से ज्यादा वोट नहीं डालती है। कभी-कभार ही किसी एक जाति के ज्यादातर वोट किसी एक ही पार्टी को मिल जाने का करिश्मा हुआ है। एक ख़ास कारण से चुनाव हमें जातियों का खेल लगने लगा है। पिछले 10-15 साल में उत्तर प्रदेश और बिहार की परिस्थितियों ने हम सब के मन में कहीं न कहीं पूरे देश की छवि बना ली है।
हक़ीक़त यह है कि उत्तर प्रदेश और बिहार का जातीय ध्रुवीकरण भारतीय लोकतंत्र में एक अपवाद है, उसका सामान्य नियम कतई नहीं। ऐसा क्यों लगता है कि जाति सर्वव्याप्त है। इसलिए कि हम हर चीज़ को जातिवाद कहने को तैयार हैं। लोग जाति के नाम पर वोट डालें तब जातिवाद, भाषा के नाम पर डालें तब जातिवाद, धर्म के नाम पर डालें तब जातिवाद, उम्मीदवार की बिरादरी देखें तो जातिवाद, उम्मीदवार की ज़ात बिरादरी को नकारते हुए अपनी पसंद की पार्टी को वोट दें, तब भी जातिवाद। हक़ीक़त ये है कि एक औसत मतदाता को या तो अपनी जाति का कोई उम्मीदवार मिलता ही नहीं है या अपनी जाति के एक से ज़्यादा उम्मीदवार मिलते हैं। ज़ाहिर है कि उसे जाति के अलावा किसी और चीज़ के बारे में तो सोचना ही पड़ता है। उम्मीदवार की जाति देखने का प्रचलन घटा है तो पार्टियों में जाति देखने का चलन बढ़ा है।
भारत में ही नहीं वरन् सम्पूर्ण विश्व में जाति प्रथा किसी न किसी रूप में विद्यमान अवश्य होती है। यह एक हिन्दू समाज की विशेषता है जोकि गम्भीर सामाजिक कुरीति है। जाति प्रथा अत्यन्त प्राचीन संस्था है। वैदिक काल में भी वर्ग-विभाजन मौजूद था, जिसे वर्ण-व्यवस्था कहा जाता था, यह जातिगत न होकर गुण व कर्म पर आधारित थी। भारतीय राजनीति की मुख्य विशेषता है- परम्परावादी भारतीय समाज में आधुनिक राजनीतिक संस्थाओं की स्थापना। स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात् भारतीय राजनीति का आधुनिक स्वरूप विकसित हुआ। अत: यह सम्भावना व्यक्त की जाने लगी कि देश में लोकतान्त्रिक व्यवस्था स्थापित होने पर भारत से जातिवाद समाप्त हो जाएगा किन्तु ऐसा नहीं हुआ अपितु जातिवाद न केवल समाज में ही वरन् राजनीति में भी प्रवेश कर उग्र रूप धारण करता आ रहा है।
जाति का राजनीतीकरण 'आधुनिकीकरण' के मार्ग में बाधक सिद्ध हो रहा है क्योंकि जाति को राष्ट्रीय एकता, सामाजिक-साम्प्रदायिक सद्भाव एवं समरसता का निर्माण करने हेतु आधार नहीं बनाया जा सकता है। प्रोफेसर रजनी कोठारी लिखती हैं, अक्सर यह प्रश्न पूछा जाता है कि क्या भारत में जाति प्रथा खत्म हो रही है? इस प्रश्न के पीछे यह धारणा है कि मानो जाति और राजनीति परस्पर विरोधी संस्थाएं हैं। ज्यादा सही सवाल यह होगा कि जाति-प्रथा पर राजनीति का क्या प्रभाव पड रहा है और जात-पांत वाले समाज में राजनीति क्या रूप ले रही है? जो लोग राजनीति में जातिवाद की शिकायत करते हैं, वे न तो राजनीति के प्रकृत स्वरूप को ठीक समझ पाए हैं, न जाति के स्वरूप को। आज बहुत जरूरी हो गया है कि हमारे देश के बुद्धिजीवी और नेता इस संदर्भ में ईमानदारी के साथ सोचें और इस समस्या एवं इससे उत्पन्न अन्य समस्याओं का समाधान करने की दिशा में गम्भीर पहल करें।
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