मंहगी नौकरियों का ऑफर छोड़कर बच्चों की शिक्षा पर काम कर रहा है ये युवा इंजीनियर
लाखों की नौकरी छोड़ ये इंजीनियर निकल पड़ा बच्चों को पढ़ाने...
एक इंजीनियर ने अपने ज्ञान और कौशल को समाज की बेहतरी में लगाने का फैसला किया है। इस नौजवान का नाम है सुरेंद्र यादव। व्यवस्था और सरकार को कोस कर आगे बढ़ जाना बहुत आसान काम होता है, असल तरक्की तब होती है जब केवल शिकायत करने की बजाय सुधार के लिए कदम उठाया जाए। यही बात सुरेंद्र के जीवन का मूलमंत्र है।
सुरेंद्र ने अपने दोस्तों के साथ मिलकर एसआरआई यानि कि सेल्फ रिलाएयंट इंडिया नाम की एक संस्था की स्थापना की। जिसके तहत वो बच्चों को प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए तैयार करते हैं। उनकी संस्था अलग अलग जगहों पर कक्षाएं चलाती है।
सुरेंद्र ने कॉर्पोरेट नौकरी करने या आईआईटी जैसे कई अच्छे संस्थानों से एम.टेक डिग्री की पेशकश को स्वीकार नहीं करने का निर्णय लिया। उन्होंने लगता था कि समाज से अब तक लिया ही लिया है, अब देने का वक्त आ गया है। आज वो सैकड़ों बच्चों के लिए 'भैया' हैं।
एक बहुत ही प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग कॉलेज से बी.टेक करने के बाद किसी भी छात्र का क्या टार्गेट होता है, यही न कि एक उम्दा कंपनी में ऊंचे ओहदे पर नौकरी मिल जाए, बढ़िया गाड़ी हो, घर हो और चैन की जिंदगी हो। कुछ छात्र आगे पढ़ना चाहते हैं तो एम.टेक. के लिए अप्लाई करते हैं। लेकिन इस लीक को तोड़ते हुए एक इंजीनियर ने अपने ज्ञान और कौशल को समाज की बेहतरी में लगाने का फैसला किया है। इस नौजवान का नाम है सुरेंद्र यादव। व्यवस्था और सरकार को गरियाकर आगे बढ़ जाना बहुत आसान काम होता है, असल तरक्की तब होती है जब केवल शिकायत करने की बजाय सुधार के लिए कदम उठाया जाए। यही बात सुरेंद्र के जीवन का मूलमंत्र है।
सुरेंद्र ने कॉर्पोरेट नौकरी करने या आईआईटी जैसे कई अच्छे संस्थानों से एम.टेक डिग्री की पेशकश को स्वीकार नहीं करने का निर्णय लिया। उन्होंने लगता था कि समाज से अब तक लिया ही लिया है, अब देने का वक्त आ गया है। इस डगर पर आगे बढ़ते हुए उन्होंने अगले दो साल तक गांधी फैलोशिप में शामिल होने के निर्णय के लिए ले लिया। आज वो सैकड़ों बच्चों के लिए 'भैया' हैं। सुरेंद्र ने अपने दोस्तों के साथ मिलकर एसआरआई यानि कि सेल्फ रिलाएयंट इंडिया नाम की एक संस्था की स्थापना की। जिसके तहत वो बच्चों को प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए तैयार करते हैं। उनकी संस्था अलग अलग जगहों पर कक्षाएं चलाती है।
लेकिन ये सब इतना आसान नहीं था। एक अति सामान्य परिवार से आए सुरेंद्र पर काफी दबाव था। परिवार और दोस्तों में बहुत से लोग सोचते थे कि सुरेंद्र का ये निर्णय एक महीने या फिर कुछ दिन बुखार था जो जल्द ही दूर हो जाएगा। एक कार्पोरेट नौकरी या एम.टेक डिग्री में शामिल होने के लिए परिवार और साथियों के निरंतर तर्कों ने सुरेश को हमेशा एक धक्का दिया। लेकिन सुरेंद्र का मानना था कि वो उन मुद्दों को सुलझाने के लिए हमेशा अपने मस्तिष्क का सही उपयोग कर सकते हैं जो बड़े पैमाने पर नजरअंदाज किए जा रहे हैं। राजस्थान के ग्रामीण इलाके में एक गांधी फेलो के रूप में काम करने के दो साल बाद वो अपने घर रेवाड़ी लौट गए और वहां पर बच्चों की शिक्षा पर काम करने लगे।
योरस्टोरी से बातचीत में सुरेंद्र ने बताया, फेलोशिप के पूरा होने के बाद मैं अपने शहर रेवाड़ी में वापस चला गया और नवोदय विद्यालय परीक्षाओं को उत्तीर्ण करने में छात्रों को प्रेरित करने लगा। उन्हें प्रशिक्षण देने की ही शुरुआत की। निरंतर चुनौतियों के बीच मैंने खुद से प्रश्न पूछा कि केवल सरकारी स्कूलों के साथ काम क्यों करना और केवल बुद्धि से तीव्र छात्रों को ही क्यों लेना है? मुझे इस बात का विश्वास था कि हर आईक्यू वाले बच्चों को उनके हिसाब से ट्रेनिंग की जरूरत है। ये बच्चे भी अच्छा परफॉर्म करेंगे जब इन बच्चों का किसी प्रतियोगी परीक्षाओं मे चुनाव होगा। युवा स्वयंसेवकों के साथ कार्य करने ने मुझे सिखाया है कि किसी भी स्थिति में व्यावहारिक दृष्टिकोण है और प्रौद्योगिकी का उपयोग कैसे विकास के अगले चरण में हो सकता है। कभी भी समाप्त न होने वाली ताकत और ऊर्जा ने मुझे इससे आगे बढ़ने के लिए प्रेरणा दी है।
योरस्टोरी से बातचीत में सुरेंद्र बताते हैं, जैसा कि मैं सुरेंद्र से "भैया" बनने की यात्रा को वापस देखता हूं, मुझे एक फ्लैशबैक दिखाई देता है। मैं रेवाड़ी के पास एक छोटे से गांव में पैदा हुआ था जहां पिछली पीढ़ी देश के लिए लड़ाई लड़ी थी। गांव के एक छोटे विद्यालय में पढ़ाई शुरू की और फिर माध्यमिक विद्यालय के लिए 5 किलोमीटर दूर पढ़ने जाता था। माध्यमिक विद्यालय की यात्रा की दूरी मेरे विज्ञान अवधारणाओं और सामुदायिक संरचनाओं को समझने की लैबोरेटरी बन गई। किसी भी विज्ञान उत्साही की तरह मैंने भी एक इंजीनियर बनने का सोचा। कोटा से कोचिंग करने के बाद मैं वी.आई.टी. वेल्लोर पहुंच गया। वहां से अपनी मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की। यहां मेरे मन को भारत के बाकी हिस्सों में प्रदर्शन का मौका मिला। मैं पूरे चार सालों में एक औसत छात्र था। लेकिन फिर भी मुझे एक विशिष्ट पहचान के रूप में देखा जाता है क्योंकि मेरी सिद्धांतों को प्रयोगशालाओं में व्यावहारिक रूप से काम करने में सक्रिय रुचि थी।
सुरेंद्र जैसे नौजवान ही दुनिया को आगे बढ़ा रहे हैं। वो उस संकल्पना को पोषित कर रहे हैं, जहां केवल अच्छी नौकरी पा जाना ही अंतिम उद्देश्य नहीं होता बल्कि एक समाज के काम आ सकने वाले एक सार्थक जीवन को ही उचित माना जाता है। शिक्षा ही समाज में बदलाव की पहली कड़ी है और जब बिना वर्ग भेद के सभी बच्चे एकाग्र होकर पढ़ाई करेंगे तो तस्वीर यकीनन सुधरेगी।
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