मध्यमवर्गीय परिवार की आपाधापी और उठापटक से मुक्ति का अरमान लिए उद्यमी बने राजू जोशी के लिए ‘पानी का शुद्धिकरण’ बना जीवन का मुख्य लक्ष्य
भारत में मध्यमवर्गीय परिवारों की अपनी अलग ज़िंदगी है। इस ज़िंदगी में संघर्ष है। संघर्ष है गरीबी से जितना दूर हो सके उतना दूर भागने का, संघर्ष है अमीरी के जितना करीब आ सके उतना करीब आने का। संघर्ष है ये कोशिश करने का कि ज़िंदगी में दिक्कतें न हों,समस्याएँ न हों, ज़िंदगी में सुख-सुविधाओं का अभाव न हो। भारत में ज्यादातर मध्यमवर्गीय परिवारों के मुखिया या तो नौकरी करते हैं या फिर कोई छोटा-मोटा कारोबार। अक्सर देखने में आया है कि इन परिवारों के सपने और अरमान भी न ज्यादा बड़े होते हैं न ही बहुत छोटे। दिलचस्प बात ये भी है कि ज्यादातर मध्यमवर्गीय परिवारों में माता-पिता अपने बच्चो की आँखों से अपना सपना देखते है| माता-पिता को ये लगता है कि उनकी संतानें उन्हें आपाधापी और उठापटक वाली ज़िंदगी से मुक्ति दिलाकर सुख-शान्ति और तरक्की वाली ज़िंदगी की ओर ले जायेंगी। यही वजह भी है ज्यादातर माता-पिता अपने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर देते हैं। ज्यादातर माता-पिता/अभिभावक नहीं चाहते कि उनके बच्चे ज़िंदगी में ऐसी कोई नयी राह पकड़ें जिसमें जोखिम हो। मसलन, ज्यादातर नौकरीपेशा अभिभावक यही चाहते हैं कि उनके बच्चे उनसे अच्छी, बड़ी और तगड़ी नौकरी करें न कि कोई ऐसा काम करें जिसमें जोखिम हो।लेकिन, धीरे-धीरे ही सही, मध्यमवर्गीय परिवारों की सोच में भी बदलाव आ रहा है। इन परिवारों की नयी और युवा पीढ़ी कुछ नया और बड़ा करने के लिए लीक से हटकर काम करने को तैयार है। समाज में इन दिनों हमें कई ऐसे उदहारण देखने को मिल रहे हैं जहाँ मध्यमवर्गीय परिवार से आये युवाओं ने अपनी अलग राह चुनी है और चुनौतियों से भरे रास्ते को अपनाकर कामयाबी की नयी और बेमिसाल कहानी लिखी है। इन युवाओं में नया जोश है, नयी उमंग है। इन युवाओं में, हकीकत में, नयापन है, नयी सोच है, नयी रवानी है। इनके अरमान भी नए हैं और सपने भी बड़े हैं। इन्हें रूढ़िवादिता पसंद नहीं और इनमें परंपरा से हटकर काम करने और नया इतिहास लिखने की प्रबल इच्छा-शक्ति है। राजू जोशी एक ऐसी ही युवा उद्यमी हैं जिन्होंने लीक से हटकर काम किया है और कामयाबी की एक दिलचस्प कहानी लिखी है। कहानी अब भी जारी है। इस कहानी में भी एक मध्यमवर्गीय भारतीय परिवार के जीवन के सारे रंग मौजूद हैं। इस कहानी में सपने हैं, उम्मीद है, योजनाएँ हैं और हादसों की वजह से सपनों का टूटना है, उम्मीदों का बिखरना है और योजनाओं का बिगड़ना है। छोटी-छोटी खुशियाँ हैं, बड़े-बड़े गम है। निराशा है, उदासी है और मायूसी भी लेकिन इस निराशा, उदासी और मायूसी को हमेशा के लिए दूर करने का जुनून भी है। ये कहानी है मध्यमवर्गीय परिवार की आपाधापी और उठापटक से मुक्ति पाने के लिए एक युवक के उद्यमी बनने की, एक ऐसा उद्यमी जो समाज को कुछ देना चाहता है। ये कहानी ऐसे उद्यमी की है जो ‘पानी की किल्लत’ की समस्या से निजाद दिलाने में अपनी बड़ी भूमिका अदा करना चाहता है।
कामयाबी की इस कहानी के नायक राजू जोशी का जन्म 16 अक्टूबर, 1971 को एक गुजराती ब्राह्मण परिवार में हुआ। मुंबई में जन्मे राजू के पिता ज्ञानेश्वर जोशी सहकारी भण्डार में काम किया करते थे। माँ कोकिला गृहिणी थीं। ज्ञानेश्वर और कोकिला को दो संतानें हुईं। राजू के बाद उनकी छोटी बहन का जन्म हुआ। राजू के पुरखे पाकिस्तान में रहा करते थे। आजादी के वक्त जब भारत का बंटवारा हुआ तब राजू के दादा भगवान जोशी को अपने परिवार के साथ पाकिस्तान छोड़कर भारत आना पड़ा था। भगवान जोशी अपने परिवार के साथ कराची में रहते थे, लेकिन जैसे ही बंटवारे की प्रक्रिया शुरू हुई उन्हें भी दूसरे हिन्दुओं की तरह पाकिस्तान छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा था। घर-द्वार, ज़मीन-जायजाद सब कुछ छोड़कर भगवान जोशी भी दूसरे हिन्दुओं की तरह पाकिस्तान से भारत आ गए। भगवान ने मुंबई में शरण ली और उन्हें मरीन लाइन पर पाकिस्तान से आये शरणार्थियों के लिए बनाये/बसाये गए कैंप में जगह दी गयी। भगवान शुरू से ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे और नियमित रूप से पूजा-पाठ किया करते थे। मुंबई आने के बाद भी उन्होंने पंडिताई नहीं छोड़ी और लोगों को भगवद गीता के श्लोक सुनाकर उनका मतलब बताया करते थे। मरीन लाइन्स में भगवान का जो मकान था उसी में उन्होंने एक मंदिर भी बना लिया था। भगवान के घर में भक्तों और श्रद्धालुओं का आना-जाना लगा रहता था।
राजू जब चार साल के थे तब उनके दादाजी गुज़र गए। राजू के पिता ज्ञानेश्वर जोशी को सहकारी भण्डार में नौकरी मिल गयी थी वो ठाणे में दो बेडरूम वाले एक फ्लैट में अपने परिवार के साथ रहने लगे। एक बेहद ख़ास मुलाकात में राजू जोशी ने बताया कि पिता की तनख्वाह ज्यादा नहीं थी और इससे परिवार की गुज़र-बसर करने में कई तरह की तकलीफों का सामना करना पड़ता था। एक सहकारी संस्था में काम करने की वजह से फ्लैट मिल गया था लेकिन उसका मालिकाना हक़ हासिल करने के लिए हर महीने एक निश्चित रकम चुकानी पड़ती थी। एक तरफ ये रकम, दूसरी तरफ बच्चों की स्कूल फीस और घर-परिवार को चलाने के लिए ज़रूरी सामानों का इंतज़ाम, ये सब तनख्वाह-भर में कर जुटा पाना बहुत मुश्किल होने लगा था। पिता ने घर-परिवार की जिम्मेदारियों को निभाने में पेश आ रही आर्थिक दिक्कतों को कुछ हद दूर करने के मकसद से अपने दो बेडरूम वाले फ्लैट का एक कमरा किराए पर देने का फैसला किया था। किराए की रकम से कुछ राहत तो मिली लेकर आगे चलकर किरायेदार बड़ी परेशानी का सबब बने।
राजू को अब भी वो दिन अच्छी तरह से याद हैं जब माँ को घर-परिवार चलाने में बहुत दिक्कतें पेश आती थीं। बजट को संतुलित रखने के लिए माँ को कई सारे मामलों में समझौता करना पड़ता था। लेकिन, माँ की ये खूबी थी कि उन्होंने कभी भी अपने पति और बच्चों को ये अहसास होने नहीं दिया कि वे खुद कम में अपना काम चला रही। माँ हर चीज़ सोच-समझ कर खरीदतीं और बड़े किफायती तरीके से हर चीज़ का इस्तेमाल करतीं। फिजुलखर्ची पाप था और ज़रुरत से ज्यादा किसी चीज़ का इस्तेमाल गुनाह। माता-पिता ने बच्चों की परवरिश में अपनी ओर से कोई कमी नहीं छोड़ी, जितना बन पाया उतना सब कुछ किया। राजू ने दसवीं तक की पढ़ाई मुंबई के भारत इंग्लिश हाई स्कूल से की। राजू की बहन की पढ़ाई भी इंग्लिश मीडियम स्कूल से ही करवाई गयी। राजू के परिवार ने हर वो परेशानी झेली जोकि कोई भी निम्न मध्यमवर्गीय परिवार एक महानगर में झेलता है। राजू कहते हैं, “मेरा जीवन दूसरे बच्चों जैसा नहीं था। हमारी अलग मजबूरियां थीं। हम दूसरे बच्चों की तरह सिनेमा देखने नहीं जाते थे। छुट्टियों में हम कभी कहीं घूमने भी नहीं गए। कभी ‘साइट सीइंग’ पर नहीं गए।” वजह साफ़ थी, घर-परिवार की मूल-भूत ज़रूरतों को पूरा करने में ही पिता की तनख्वाह पूरी हो जाती थी और ऐशोआराम, भोग-विलास की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। गरीबी जैसे हालात नहीं थे, लेकिन रुपयों की कमी हमेशा बनी रहती थी। यही वजह भी थी कि राजू ने बचपन में ही रुपयों की अहमियत को अच्छी तरह से जान लिया था। छोटी उम्र में ही राजू ने रुपयों की किल्लत से सुख-सुविधाओं के अभावों और तकलीफों वाले जीवन का अनुभव करना शुरू कर दिया था। रुपयों की किल्लत से जूझ रहे राजू के परिवार की मुसीबतें किरायदार ने और भी बढ़ा दीं। राजू के पिता ने जिस सिंधी परिवार को अपने फ्लैट का एक कमरा किराये पर दिया था, उस परिवार ने कमरा खाली करने के लिए 35,000 रुपये का मुआवजा माँगा। उस समय ये रकम बहुत बड़ी थी और इतनी रकम देना राजू के पिता के लिए मुमकिन नहीं था। कमरा खाली करवाने को लेकर आये दिन राजू के पिता और किरायेदार में झगड़े-फसाद होने लगे। मूंह बोली जंग और तू-तू मैं-मैं आम बात हो गयी। मामला कचहरी में ले जाया गया। राजू के पिता को कोर्ट से राहत नहीं मिली। परेशानी से पीछा छुटाने के लिए उन्होंने अपना फ्लैट बेच दिया।
फ्लैट बेचने की घटना का राजू के दिलो-दिमाग पर बहुत गहरा असर पड़ा। उन्हें लगा कि नैतिकता और सच्चाई की हार हुई है। जिस सिंधी परिवार की मदद करने के मकसद से उनके पिता ने उन्हें कमरा किराए पर दिया था उसी परिवार ने अहसानफरामोशी की है। और सब कुछ न्यायसंगत होने के बावजूद उनके पिता को किरायेदार को मुआवजा देने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। यही वो समय था जब राजू ने ठान लिया था कि वे बड़ा होकर इतने रुपये कमाएंगे कि घर-परिवार में किसी तरह की कोई किल्लत नहीं रहेगी। राजू ने सपना देखना शुरू कर दिया कि वे पढ़-लिखाकर बड़ा आदमी बनेंगे और इतनी धन-दौलत कमाएंगे जिससे उनके माता-पिता को किसी भी तरह से सुख से वंचित न रहना पड़े। रईस बनने का सपना देखते हुए ही राजू ने अपनी पढ़ाई-लिखाई जारी रखी। परिवार भी दो कमरे वाले फ्लैट से एक कमरे वाले फ्लैट में शिफ्ट हो गया। दसवीं की परीक्षा पास करने के बाद राजू ने घाटकोपर के गुरुकुल टेक्निकल स्कूल में दाखिला लिया। टेक्निकल स्कूल में दाखिला लेने की भी एक ख़ास वजह थी। टेक्निकल स्कूल में पढ़ाई की वजह से कुल अंक में पांच फीसदी अंक अतिरिक्त मिलते थे। राजू को इलेक्ट्रॉनिक्स में काफी दिलचस्पी थी इसी वजह से उन्होंने ग्यारहवीं और बारहवीं की पढ़ाई के दौरान इलेक्ट्रॉनिक्स को अपना मुख्य विषय बनाया। उनसे पास इलेक्ट्रिकल और मैकेनिकल का भी विकल्प था लेकिन दिलचस्पी की वजह से इलेक्ट्रॉनिक्स की लाइन पकड़ी। राजू ने बताया कि उन दिनों ‘इलेक्ट्रॉनिक्स फॉर यू’ नाम से एक मैगज़ीन निकलती थी। इस मैगज़ीन में इलेक्ट्रॉनिक्स की दुनिया में हो रहे प्रयोगों और बाज़ार में आ रहे नए-नए इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की जानकारी दी जाती थी। उन दिनों इस मैगज़ीन की कीमत 25 रुपये प्रति अंक हुआ करती थी। 25 रुपये उन दिनों राजू और उनके परिवार के लिए बहुत बड़ी रकम हुआ करती थी, राजू ‘इलेक्ट्रॉनिक्स फॉर यू’ मैगज़ीन ‘सेकंड हैण्ड’ खरीदते थे, वो भी सिर्फ पांच रुपये में। यानी मैगज़ीन को पढ़ लेने के बाद लोग उसे तब बेंच देते थे तब वो जब बाज़ार में बिकने के लिए दुबारा आती थी तब उस पुरानी मैगज़ीन को ही राजू खरीद पाते थे। इलेक्ट्रॉनिक्स की दुनिया में राजू की दिलचस्पी दिनबदिन बढ़ती चली गयी। इलेक्ट्रॉनिक्स ही उनका पहला प्यार बन गया। आगे चलकर उन्होंने बॉम्बे इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी से इलेक्ट्रॉनिक्स में डिप्लोमा किया। साल 1991 में डिप्लोमा की डिग्री मिलने के दूसरे दिन ही उन्हें अपनी ज़िंदगी के पहली नौकरी मिल गयी।
राजू की पहली नौकरी ‘एस्सेल’ में थी जिसके मुखिया मौजूदा समय के मशहूर उद्यमी और उद्योगपति सुभाषचंद्रा हैं। ‘एस्सेल’ में राजू को 1250 रुपये की मासिक तनख्वाह पर नौकरी मिली थी। बकौल राजू, पहली नौकरी की वजह से उन्हें बहुत कुछ नया सीखने को मिला था। सबसे पहले तो राजू को ये जानकर बहुत ही आश्चर्य हुआ कि जो उनके इमीडियेट बॉस है उन्होंने इलेक्ट्रॉनिक्स की पढ़ाई ही नहीं की है और वे म्यूजिक में बीए हैं। ‘एस्सेल’ में राजू को प्रदीप नाम के एक अधिकारी को रिपोर्ट करने के लिए कहा गया था, और भी दूसरे कई सारे इंजीनियर प्रदीप को ही रिपोर्ट करते थे। जिस तरह से प्रदीप इंजीनियरों के काम करवाते थे उसे देखकर राजू को अहसास हो गया कि अच्छा काम करने और बड़े काम करवाने के लिए महाविद्यालय और विश्वविद्यालय की डिग्रीयां नहीं बल्कि ज्ञान और अनुभव की ज़रुरत होती है। प्रदीप के ज्ञान और कामकाज करने के तौर तरीकों से राजू बहुत प्रभाबित हुए। प्रदीप से जो सबसे बड़ी बात राजू ने सीखी थी वो ये थी कि – कॉमन सेंस यानी चीज़ों की सही समझ और व्यवहारिक ज्ञान से बड़े-बड़े किये और करवाए जा सकते हैं। अगर इंसान के पास कॉमन सेंस है और तो वह इसी से अपने सपनों को साकार कर सकता है। प्रदीप, सुभाषचंद्रा के भी बहुत करीबी थे। प्रदीप की वजह से ही राजू को भी सुभाषचंद्रा से मिलने का मौका मिला था। राजू बताते हैं कि वे तीन बार सुभाषचंद्रा से मिले हैं और हर बार उनकी सादगी और चीज़ों पर उनकी पैनी नज़र से बहुर प्रभावित हुए हैं। राजू को अब भी अच्छी तरह से याद है कि उन दिनों सुभाषचंद्रा अपना खुद का सॅटॅलाइट चैनल शुरू करने की तैयारी कर रहे थे। प्रदीप और राजू ने मिलकर की सुभाषचंद्रा के भाई अशोक के यहाँ उन दिनों प्रसारित सभी टीवी चैनल एक जगह देखने की व्यवस्था की थी। राजू बताते हैं कि कोशिश तो सुभाष के मकान पर भी सभी सभी टीवी चैनल एक जगह देखने की व्यवस्था बनाने की हुई थी लेकिन कुछ कारणों से ऐसा नहीं हो पाया था तब जाकर उनके भाई अशोक के मकान पर ये इंतज़ाम किया गया था। राजू ने मुताबिक, सुभाषचंद्रा ने काफी शोध-अनुसंधान करने के बाद टीवी चैनल शुरू किया था। राजू जानते थे कि सुभाषचंद्रा की कंपनियां खूब तरक्की करेंगी, लेकिन जब उन्हें दूसरी कंपनी से बड़ी तनख्वाह की नौकरी मिली तब उन्होंने ‘एस्सेल’ को अलविदा कह दिया। राजू ने जब ‘एस्सेल’ छोड़ने की बात कंपनियों के बड़े अधिकारियों से कही थी तब उन्हें रोकने की कोशिश की गयी, लेकिन राजू ने बताया कि दूसरी कंपनी उन्हें 4000 रुपये की तनख्वाह देने को तैयार है। ‘एस्सेल’ में राजू की तनख्वाह बढ़ाकर 2000 तक की जा सकती थी लेकिन 4000 की तनख्वाह नामुमकिन थी। बड़ी तनख्वाह के लिए ही राजू ने ‘एस्सेल’ को छोड़कर मोदी ज़ेरॉक्स का दामन थाम लिया। राजू बताते हैं, “मैंने ‘एस्सेल’ छोड़ दी थी, लेकिन मैं हमेशा सुभाषचंद्रा से बहुत प्रभावित रहा था। मैंने सुना था कि उन्होंने चावल खरीदने और बेचने का कारोबार करते हुए शुरूआत की थी और फिर एक के बाद के करते हुए कई तरह के कारोबार किया। उनकी कहानी को सुनकर मुझे बहुत प्रेरणा मिलती थी।”
‘एस्सेल’ की नौकरी छोड़ने की एक और बड़ी वजह भी थी। राजू ने पिता शेयरों का कारोबार भी किया करते थे। शेयर बाज़ार से भी थोड़ी बहुत आमदनी हो जाती थी। लेकिन, उन दिनों हुए हर्षद मेहता घोटाले की वजह से राजू के पिता को भी भारी नुकसान हुआ। नुकसान इतना ज्यादा था कि सारा परिवार उससे प्रभावित हुआ। पटरी पर लौटती नज़र आ रही ज़िंदगी एक बार फिर डांवाडोल हो गयी थी। घर-परिवार को संभालने के लिए ज़रूरी था कि राजू की तनख्वाह/आमदनी बढ़े। इसी वजह से जब राजू को बड़ी तनख्वाह वाली नौकरी मिली तब उन्होंने नयी नौकरी को स्वीकार करने में ज्यादा देर नहीं की। 1991 से 1993 तक ‘एस्सेल’ में काम करने के बाद जब राजू मोदी ज़ेरॉक्स से जुड़े तब भी उन्हें बहुत कुछ नया देखने, समझने और सीखने को मिला। ज़ेरॉक्स विदेशी कंपनी थी और भारत में वो अपनी एक सहयोगी कंपनी के साथ मिलकर फोटो कॉपी करने वाली मशीनें बेचती थी। ज़ेरॉक्स इतनी लोकप्रिय कंपनी थी कि कई सालों तक लोग फोटो कॉपी को ज़ेरॉक्स कॉपी ही कहते थे। मोदी ज़ेरॉक्स के लिए काम करते हुए राजू को विदेश के कई एक्सपर्ट्स और इंजीनियरों से मिलने का मौका मिला। कंपनी के ट्रेनिंग प्रोग्रामों में अक्सर विदेश आकर ही भारतीयों को ट्रेनिंग दिया करते थे। और तो और, ये सारे ट्रेनिंग प्रोग्राम पंचसितारा होटलों में आयोजित किया जाते थे। इसी वजह से राजू को बॉम्बे के सारे पंचसितारा होटल देखने और वहां का खाना खाने का भी मौका मिला। किसी मध्यमवर्गीय परिवार के इंसान के लिए किसी पंचसितारा होटल में एक समय का खाना खाना बहुत बड़ा सपना होता है। लेकिन, मोदी ज़ेरॉक्स में नौकरी की वजह से राजू को कई बार पंचसितारा होटलों में भोजन करने का मौका मिला। मोदी ज़ेरॉक्स की नौकरी अच्छी थी, तनख्वाह भी बढ़िया थी, लेकिन राजू को खूब मेहनत करनी पड़ती थी। वे सर्विस इंजीनियर थे और जब कभी कहीं पर फोटो कॉपी मशीन खराब हो जाती तो उन्हें उसे रिपेयर करने के लिए जाना होता। करीब 40 किलो वजन वाला बैग लेकर राजू मशीन ठीक करने के लिए क्लाइंट के यहाँ जाते थे। उन दिनों उनके पास बाइक भी नहीं थी इसी वजह से वे लोकल ट्रेन या फिर बस में सवार होकर क्लाइंट के यहाँ जाते थे। 40 किलो वजन वाला बैग अकेले ले जाना और मशीन रिपेयर करने के बाद उसे वापस लाना आसन काम नहीं थी, लेकिन घर-परिवार की ज़रूरतों को पूरा करने के मकसद से राजू ने जवानी भी खूब पसीना बहाया।
चार साल तक मोदी ज़ेरॉक्स में काम करने के बाद राजू को ‘हेचसीएल’ से नौकरी का ऑफर मिला। ‘हेचसीएल’ ने महीने 7000 रुपये तनख्वाह देने की पेशकश की थी। तनख्वाह को ध्यान में रखते हुए साल 1997 में राजू ने ‘हेचसीएल’ ज्वाइन कर ली। ये वो दौर था तब भारत में कंप्यूटर क्रांति जोर पकड़ रही थी। हर घर और दफ्तर में कंप्यूटर का प्रवेश होने लगा था। देश में कंप्यूटर की मांग लगातार बढ़ती चली जा रही थी। ‘हेचसीएल’ कंप्यूटर बेचती थी लेकिन राजू का काम था खराब हुए फोटो कॉपी मशीनों की मरम्मत करना। राजू की तरह कई सर्विस इंजीनियर ‘हेचसीएल’ के लिए काम कर रहे थे। इसी दौरान कंपनी के एक बड़ा फैसला लिया। घाटे को कम करने के मकसद से ‘हेचसीएल’ ने अपनी सारी सेल्स टीम को कंपनी से निकाल दिया और सेल्स की ज़िम्मेदारी भी सर्विस इंजीनियर्स को सौंपी गयी। ‘हेचसीएल’ में काम करते हुई राजू ने ‘सेल्स और मार्केटिंग’ की बारीकियों को भी अच्छे से समझा और सीखा। राजू कहते हैं, “‘हेचसीएल’ ने मुझे बेचना सिखाया था। एक प्रोडक्ट को बाज़ार में कैसे बेचा जाता है ये मैंने ‘हेचसीएल’ से ही सीखा।” ‘हेचसीएल’ में नौकरी इस वजह से भी राजू के लिए यादगार बन गयी क्योंकि इसी कंपनी में काम करने के दौरान वे अपनी छोटी बहन की शादी करवाने में भी कामयाब रहे थे। राजू ने जो कुछ कमाया था वो अपनी बहन की शादी के लिए बचा कर रखा था। उनकी नौकरी करने का बड़ा मकसद भी यही था कि वे एक अच्छे घर-परिवार में अपनी बहन की शादी करवा सकें। जब उनकी बहन का रिश्ता तय हुआ तब राजू ने अपनी सारी कमाई और जमापूंजी बहन की शादी में लगा दी थी। साल 1998 में राजू की बहन की शादी हुई थी।
बहन की शादी के दो साल बाद यानी साल 2000 में राजू की ज़िंदगी में एक नया मोड़ आया। उन्हें विदेश में जाकर काम करने का मौका मिला। राजू के एक मित्र ने उन्हें ओमान की एक कंपनी एमहेचडी में ओपनिंग के बारे में बताया। ओमान की इस कंपनी को फोटोकॉपी मशीन इंजीनियर की ज़रुरत थी। राजू ने अर्जी दी और उन्हें इंटरव्यू के लिए बुलाया गया। इंटरव्यू में राजू सेलेक्ट भी हो गए, उन्हें नौकरी मिली और उनकी तनख्वाह तय की गयी 30 हज़ार रुपये महीना। शुरू में तो माँ ने बेटे को अपनी नज़रों से दूर भेजने से साफ़ मना कर दिया था लेकिन बेटे की जिद के सामने उन्हें भी झुकना पड़ा। ओमान जाकर भी राजू ने ‘सेल्स’ का काम भी किया। लेकिन, शुरूआती दिनों में उन्हें भाषा को लेकर दिक्कतें आयीं। चूँकि ओमान में ज्यादातर लोग अरबी भाषा का ही इस्तेमाल करते थे, लोगों को समझने और उन्हें समझाने में राजू को कई तरह की तकलीफों का सामना करना पड़ा। लेकिन, राजू भी धुन के पक्के थे, वे जल्द ही समझ गए कि अगर ओमान में तरक्की करनी है तो अरबी भाषा सीखनी ही पड़ेगी। राजू ने मेहनत की, कड़ा अभ्यास किया और कुछ ही दिनों में अरबी भाषा भी सीख ली। ओमान में काम करते हुए राजू को लगने लगा था कि उनकी ज़िंदगी अब सँवारने लगी है। बहन की शादी हो चुकी है, माता-पिता खुश हैं, तनख्वाह अच्छी है, बचत भी होने लगी है... ऐसी स्थिति में राजू भविष्य को लेकर नए सपने संजोने लगे। सपना था, शादी का, नया मकान खरीदने का। राजू चाहते थे कि वे एक ऐसा मकान खरीदे जहाँ उनके माता-पिता सुख-शांति से जी सकें। वे एक बेडरूम वाले फ्लैट की ज़िंदगी से तंग आ चुके थे और एक बड़े मकान में जीना चाहते थे।
अपने इन्हीं सपनों को पूरा करने के लिए राजू जी जान लगाकर जुटे थे कि एक खबर ने उनके सपनों के पंख कतर दिए। खबर इतनी भयानक थी कि राजू के पाँव तले मानो ज़मीन खिसक गयी हो। राजू को उनके चाचा ने ईमेल के ज़रिये ये सूचना दी थी कि उनकी माँ पल्मोनरी फाइब्रोसिस नामक लाइलाज बीमारी का शिकार हैं। फेफड़ों की इस बीमारी को बढ़ने से न रोके जाने पर राजू की माँ की जान जा सकती थी। राजू अपनी माँ से बहुत प्यार करते थे। वे अपनी माँ पर जान छिड़कते थे। जब राजू को माँ की बीमारी के बारे में पता चला वे बहुत दुखी और उदास हुए। माँ का इलाज करवाने के लिए वे ओमान में अपनी नौकरी छोड़कर भारत चले आये। राजू अपनी माँ को मुंबई के सबसे बड़े अस्पताल ले गए। हिंदुजा अस्पताल के मशहूर पल्मोनोलोजिस्त डॉ महासुर ने जब राजू की माँ का इलाज करना शुरू किया तब उनकी सेहत में सुधार होना शुरू किया। डॉ महासुर की दी दवाइयों की वजह से कुछ ही महीनों में राजू की माँ ही हालत पहले जैसे सामान्य हो गयी। लेकिन, माँ के इलाज में राजू का बहुत सारा रुपया खर्च हो गया। जमापूंजी भी ख़त्म-सी हो गयी। माँ का इलाज जारी रखने, घर-परिवार की सारी जिम्मेदारियों को निभाने के लिए राजू को रुपयों की ज़रुरत महसूस होने लगी। नौकरी करना मजबूरी हो गयी। इस बार राजू को सिंगापुर में नौकरी मिली, कंपनी थी रिको। राजू ने करीब एक साल था यहाँ काम किया, लेकिन यहाँ भी उन्हें नौकरी छोड़कर भारत लौटना पड़ा। माँ की तबीयत फिर बिगड़ गयी थी। पिता भी बूढ़े हो गए थे और उनके लिए भी अपनी पत्नी की देखभाल करना मुश्किल हो रहा था। बूढ़े माता-पिता की देखभाल के लिए राजू को अच्छी खासी नौकरी छोड़कर सिंगापुर से भारत आना पड़ा था। भारत लौटने के बाद राजू खाली नहीं बैठ सकते थे। उनके लिए नौकरी करना बेहत ज़रूरी था। बिना नौकरी के वे अपने घर-परिवार को नहीं चला सकते थे। उम्र शादी की भी हो चली थी और राजू अच्छी तरह से जानते थे कि अच्छी नौकरी के बिना अच्छी घरवाली मिलना भी मुश्किल है। नौकरी करना एक बार फिर से मजबूरी हो गयी।
भारत लौटने के बाद एक दिन राजू ने एक अखबार में नौकरी का एक विज्ञापन देखा। नौकरी थी ‘केनस्टार’ कंपनी की। वाक इन इंटरव्यू था। राजू इंटरव्यू के लिए गए। कंपनी के आल इंडिया हेड मार्तंड पंडित ने राजू का इंटरव्यू किया। राजू ने पहले कभी भी कन्सूमर इलेक्ट्रॉनिक्स के क्षेत्र में काम नहीं किया था और ‘केनस्टार’ इसी क्षेत्र की कंपनी थी। मार्तंड पंडित को लग नहीं रहा था कि राजू इस नौकरी के लिए माकूल उम्मीदवार है। लेकिन, शायद राजू की किस्मत में ये नौकरी लिखी थी, उस दिन उनके अलावा कोई भी उम्मीदवार इंटरव्यू के लिए नहीं आया। मार्तंड पंडित को किसी न किसी उम्मीदवार को चुनना ही था और अब उनके पास राजू के सिवाय कोई और विकल्प भी नहीं था। इस तरह राजू को ‘केनस्टार’ में नौकरी मिल गयी। लेकिन, राजू को अपनी विदेश की तनख्वाह से आधी से कम तनख्वाह पर यहाँ काम करना पड़ा। हालात कुछ ऐसे थे कि राजू ने 15000 रुपये तनख्वाह वाली नौकरी को हाँ कर दी। ‘केनस्टार’ में काम करते हुए राजू ने घर-परिवार में इस्तेमाल में लाये जाने वाले सभी इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं के कारोबार के बारे सब कुछ सीख लिया। घरेलु इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं के कारोबार की बारीकियों को समझने में राजू को ज्यादा समय नहीं लगा। चीज़ चाहे 500 रुपये की हो या फिर 50000 रुपये की, राजू हर चीज़ की फैक्ट्री में तैयारी से लेकर बाज़ार में बिक्री तक के बारे में समझ गए। ‘केनस्टार’ में नौकरी के दौरान ही राजू की शादी भी हो गयी। अब घर में माता-पिता को संभालने के लिए एक और व्यक्ति राजू को मिल गया था। पत्नी ने माता-पिता की देखभाल में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी, पति का हर काम में बखूबी साथ देना शुरू किया।
इस बीच एक ऐसी घटना हुई जिसने राजू को कर्मचारी से उद्यमी बना दिया। राजू को पता चला कि घरेलु इलेक्ट्रॉनिक वस्तुएं बनाने वाली बड़ी नामचीन कंपनी एलजी को फ्रैन्चाइज़ी की ज़रुरत है तब उनके दिमाग की बत्ती जली और उन्हें लगा कि सपनों को नए पंख देने में ये मददगार साबित हो सकता है। ‘केनस्टार’ के साथी महेंद्र भावसार के साथ मिलकर राजू ने एलजी की फ्रैन्चाइज़ी लेने की योजना बनाई। योजना कामयाब भी रही और राजू और उनके साथी महेंद्र भावसार को एलजी की फ्रैन्चाइज़ी मिल गयी। राजू ने सिग्मा नाम से अपनी पहली कंपनी शुरू की और साल 2004 में एलजी के एयरकंडीशनर का अपना पहला सर्विस सेंटर शुरू किया। इसके बाद राजू की ज़िंदगी को एक नयी रफ़्तार मिली। राजू ने तेज़ी से तरक्की के रास्ते पर अपने कदम बढ़ाने शुरू किये। एलजी के बाद राजू को टाटा स्काई की फ्रैन्चाइज़ी मिली। ये फ्रैन्चाइज़ी ऐसे समय मिली थी जब भारत खासकर मुंबई में डायरेक्ट टू होम याजी डीटीएच की मांग बढ़नी शुरू हुई थी। राजू की टाटा स्काई की फ्रैन्चाइज़ी लेने से खूब फायदा हुआ। घर-घर जाकर डिश लगाकर टाटा स्काई की सेवाएँ शुरू करवाते हुए राजू की कंपनी ने खूब मुनाफा कमाया। आगे चलकर राजू ने एयरटेल डीटीएच की फ्रैन्चाइज़ी भी ली। इसी दौरान एलजी ने एक बड़े काम की ज़िम्मेदारी राजू की कंपनी को सौंपी। ज़िम्मेदारी थी पारवहन/ परिवहन के दौरान खराब हुए एलजी के उत्पादों की मरम्मत करना। इस काम से भी राजू की कंपनी ने खूब रुपये कमाए।
देश में जब मोबाइल फोन की क्रांति शुरू हुई तब राजू ने खुद को इससे भी जोड़कर बड़ा मुनाफा कमाने की भी योजना बनाई। अपनी इस योजना के तहत की राजू ने नोकिया फ़ोन का सर्विस सेंटर शुरू करने की परमिट भी ले ली। राजू को अब लगने लगा था कि वे एक बड़ा कारोबारी बनने जा रहे हैं। उन्होंने बतौर उद्यमी जो भी काम अपने हाथ लिया था उसमें उन्हें सिर्फ और सिर्फ कामयाबी ही मिली थी। उनके पास कारोबारी सूझ भूझ थी, तकनीकी ज्ञान था, अनुभव था और साथ में एक भरोसेमंद पार्टनर भी। राजू ने अब बड़े सपने देखने शुरू किये। इस बार के सपने पीछे सभी सपनों से बहुत बड़े थे, हसीन भी। लेकिन, इस बार भी सपनों के साकार होने से पहले ही ज़िंदगी में एक के बाद एक दो बड़े हादसे हो गए। जिस दिन नोकिया के सर्विस सेंटर का उद्घाटन होना था उसी दिन राजू के पिता की मृत्यु हो गयी। सुबह उठकर राजू तैयारी में जुटे थे कि उन्होंने देखा कि उनके पिता अचेत पड़े हुए हैं। राजू अपने पिता को लेकर अस्पताल पहुंचे, लेकिन बहुत देर हो चुकी थी। डाक्टरों ने बताया कि तड़के की पिता को दिल का दौरा पड़ा था और वे उसी समय गुज़र गए।
पिता की मौत ने राजू को हिलाकर रख दिया। राजू ने जितने सपने संजोये थे उन सभी के केंद्र में उनके पिता थे। राजू ने बचपन से देखा था कि किस तरह से उनके पिता ने घर-परिवार की जिम्मेदारियां निभाने के लिए दिन-रात मेहनत की है। बच्चों की खुशी के लिए अपना सब कुछ न्योछावर किया। राजू चाहते थे कि वे अपनी कमाई से अपने पिता को वो सुख-आराम और शान्ति दे सकें जिसके लिए वे जीवन भर संघर्ष करते रहे। राजू ने अपने छोटे मकान के बगल में ही एक और मकान भी खरीद लिया था। ‘गुडीपर्व’ पर ‘गृह-प्रवेश’ होना था। लेकिन, नए घर में प्रवेश के पहले ही पिता उन्हें हमेशा के लिए छोड़कर चले गए। पिता की मौत ने राजू को दुःख के सागर में डुबो दिया था। राजू के पिता की मौत का उनकी माँ पर बहुत बुरा असर पड़ा। माँ की सेहत भी लगातार बिगड़ती चली गयी। पति के चले जाने के गम से राजू की माँ कभी उभर ही नहीं पायीं। पति की मौत को अभी एक साल भी नहीं हुआ था कि राजू की माँ का भी निधन हो गया। माँ की मौत से राजू की हालत भी बहुत ही ज्यादा बिगड़ गयी। ज़िंदगी में सिर्फ उदासी, मायूसी और निराशा ही रह गयी। राजू की माँ जब उदास रहती थीं तब राजू उनकी हौसलाअफजाही के लिए ये गाना गाते थे – “दुखों की हार होगी, अपने घर भी कार होगी।” लेकिन, जब घर-परिवार से दुखों के दूर होने और कार के आने का वक्त आया तब पिता गुज़र गए। पिता के जाने के गम को माँ भी सह न सकीं और चली गयीं। बेटे ने जो कुछ कमाया था उसका सुख भोगे बिना ही माता-पिता चले गए थे। इसी बात के दुःख में हालत कुछ इस तरह बिगड़ी की राजू को किसी बात की सुध-बुध ही नहीं रही। वे ‘डिप्रेशन’ में चले गए। उन्होंने दफ्तर जाना बंद कर दिया। राजू सुबह-शाम घर पर ही रहते, कोई काम नहीं करते। हमेशा ग़मगीन रहते। उनकी ये हालत देखकर उनकी कंपनी के सभी कर्मचारी घबरा गए। उन्हें लगा कि राजू की मायूसी, उदासी और निराशा की वजह से उनकी सारी कंपनियां बंद हो जायेंगी। कर्मचारी राजू के घर जाते और अपना दुखड़ा सुनाकर उनसे काम पर वापस लौटने की गुहार लगाते। कई लोग तो आकर आंसू भी बहाते, लेकिन राजू की हालत ऐसी को गयी थी कि उन्हें इस बात का अहसास ही नहीं था कि उनके आसपास क्या हो रहा है। दुःख और संकट की इस घड़ी में राजू के साथी, दोस्त और साझेदार महेंद्र ने कंपनी के कामकाज को संभाला और आगे बढ़ाया।
एक और दोस्त रंजीत शेट्टी से भी राजू की ये हालत देखी नहीं गयी। रंजीत ने कर्नाटक के उडिपी के एक ज्योतिष-आचार्य की मदद ली। ज्योतिषी के कहने पर विशेष-पूजा-पाठ करवाए गए। राजू को उडिपी भी ले जाया गया। धीरे-धीरे ही सही लेकिन राजू की हालत में सुधार होना शुरू हुआ। पूरे 18 महीनों तक राजू कामकाज से दूर रहे। लेकिन जब वे लौटे तो वही पुरानी रंगत और जोश के साथ लौटे। खुद को संभालने के बाद राजू ने एक बार फिर से कारोबार की बागड़ोर अपने हाथों में ली। जब राजू ने दुबारा कामकाज संभाला तब नोकिया की लोकप्रिय ढलान पर थी और मौके की नजाकत को समझते हुए राजू ने सैमसंग से अपना नाता जोड़ा। राजू ने सैमसंग से सर्विस सेंटर की परमिट की और अपने कारोबार को आगे बढ़ाया।
इसी दौरान राजू को नागपुर में रहने वाले अपने एक मित्र से वाटर ट्रीटमेंट यानी पानी के शुद्धिकरण से जुड़े काम/कारोबार के बारे में पता चला। राजू ने अपने इसी मित्र की कंपनी अभि-अंश टेक्नोलॉजी से खुद को जोड़ लिया और पानी के शुद्धिकरण से जुड़े कारोबार की दुनिया में अपना कदम रखा। इसके बाद राजू ने पानी के शुद्धिकरण से जुड़े कारोबार की बारीकियों को समझना शुरू किया। पानी के शुद्धिकरण के अलग-अलग तौर-तरीके जानने-समझने शुरू किये। सीखने की इसी प्रक्रिया के दौरान राजू को इस बात का पता चला कि भारत में ही नहीं बल्कि विश्वभर में पानी की किल्लत एक बड़ी समस्या है। पीने के पानी की किल्लत की वजह से दुनिया-भर में लोग काफी परेशान हैं। इतना ही नहीं बढ़ती जन-संख्या की वजह से पानी की किल्लत भी लगातार बढ़ती जा रही है। अगर पानी का सही इस्तेमाल नहीं किया गया, पानी की बचत के सभी उपाय नहीं किया गए तो पानी की किल्लत की समस्या भयानक रूप ले सकती है। राजू को ये भी अहसास हुआ कि इस्तेमाल किये गए पानी को शुद्धिकरण कर उसे दुबारा इस्तेमाल में लाये जाने लायक बनाया जा सकता है। इस अहसास के बाद राजू ने पानी के शुद्धिकरण की सबसे बेहतर तकनीकों को बारे में पता लगाना शुरू किया। अपनी छानबीन और शोध से राजू को पता चला कि जर्मनी की ‘वाच’ के पास पानी के शुद्धिकरण की सबसे अच्छी तकनीक है और इस तकनीक से पर्यावरण को किसी तरह का नुकसान नहीं होता। इसके बाद क्या था, राजू ने जर्मनी की वाच कंपनी के अधिकारीयों से संपर्क किया और भारत में इस तकनीक के इस्तेमाल की अनुमति हासिल कर ली। राजू का दावा है कि वे विश्व के सबसे आधुनिक और उपयोगी पानी शुद्धिकरण यंत्र लगाने की ताकत रखते हैं। पानी से जुड़ी कोई भी समस्या हो उनकी कंपनी उसका समाधान निकालने में सक्षम हैं। अगर पानी में आयरन, फ्लोरीन, आर्सेनिक भी हैं तब भी उनके कंपनी ऐसे यंत्र लगा सकती है जिससे पानी बिलकुल शुद्ध बनकर पीने लायक हो जाता है। नाले के गंदे पानी को भी पीने लायक बनाने की तकनीक उनके पास है। राजू की कंपनी निक्सी इंजीनियर्स ने सिंगापूर की एसयूआई टेक्नोलॉजी के साथ करार किया है, जिससे वे भारत में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाने की हकदार बनी हैं।
राजू ने इन दिनों भारत में पानी की किल्लत को दूर करने के लिए पानी के शुद्धिकरण करने के काम को अपने जीवन का मिशन बना लिया है। वे चाहते हैं कि भारत में पानी के शुद्धिकरण के लिए दुनिया में मौजूद सर्वश्रेष्ट तकनीक का इस्तेमाल हो। राजू चाहते हैं कि भारत में हर इंसान को पीने का सुरक्षित पानी मिले ताकि सभी स्वस्थ रहें और पानी की वजह से लोगों को बीमारियों का शिकार न होना पड़े। बड़ी बात ये भी है राजू ने बीमा के क्षेत्र में भी कदम बढ़ाने शुरू कर दिए हैं। वे जल्द ही उपभोगता वस्तुओं की बीमा सेवा शुरू करने जा रहे हैं। लेकिन, उनके काम और कारोबार का केंद्र-बिंदु ‘पानी का शुद्धिकरण’ ही है। राजू का जीवन मकसद है कि वे कुछ ऐसा काम करें जिससे दुनिया-भर में उनका अच्छा नाम हो और उन्हें शोहरत मिले। राजू जानते है कि मौजूदा समय में शुद्ध पानी की किल्लत एक बहुत बड़ी समस्या है और एक उद्यमी के नाते वे इस समस्या का निदान करने की कोशिश करते हुए अपने नाम को भी रोशन कर सकते हैं।