जन्मांध रवींद्र जैन ने ‘दिल की नजर से’ देखी दुनिया
कवि एवं संगीतकार रवींद्र जैन की पुण्यतिथि पर विशेष...
कवि एवं संगीतकार रवींद्र जैन को जिंदगी की ऊंचाइयां छूने में उनकी जन्मांधता कभी आड़े नहीं आई। ‘दिल की नजर से’ वह अनदेखी दुनिया को वह दे गए, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। सरगम के सात सुरों के माध्यम से उन्होंने जितना समाज से पाया, उससे कई गुना अधिक अपने श्रोताओं को लौटाया। आज (9 अक्टूबर) उनकी पुण्यतिथि है।
सन् उन्नीस सौ अस्सी के दशक में जब उमर खय्याम, नौशाद, रवि जैसे चोटी के फिल्म संगीतकार ट्रैक से हटने लगे थे, उस वक्त में धारावाहिकों में रवींद्र जैन के गीत-संगीत गूंज उठे। यह उनकी मेहनत-मशक्कत का ही कमाल था कि एक बार वह सुर्खियों में आए तो फिर कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। आजीवन उन्हें कभी काम की कमी नहीं रही। वह जितना संगीत में, उतना ही लेखन में भी व्यस्त रहे।
‘दिल की नजर से’ उनका चर्चित गजल संग्रह रहा। इसके अलावा उन्होंने कुरान का अरबी से उर्दू में अनुवाद और श्रीमद्भगवत गीता का हिंदी में पद्यानुवाद किया। सामवेद और उपनिषदों का भी उन्होंने हिंदी में अनुवाद किया। अपनी कृति ‘सुनहरे पल’ में उन्होंने अपनी जिंदगी के अनुभवों को साझा किया है।
कवि एवं संगीतकार रवींद्र जैन को जिंदगी की ऊंचाइयां छूने में उनकी जन्मांधता कभी आड़े नहीं आई। ‘दिल की नजर से’ वह अनदेखी दुनिया को वह दे गए, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। सरगम के सात सुरों के माध्यम से उन्होंने जितना समाज से पाया, उससे कई गुना अधिक अपने श्रोताओं को लौटाया। आज (9 अक्टूबर) उनकी पुण्यतिथि है। सन् उन्नीस सौ अस्सी के दशक में जब उमर खय्याम, नौशाद, रवि जैसे चोटी के फिल्म संगीतकार ट्रैक से हटने लगे थे, उस वक्त में धारावाहिकों में रवींद्र जैन के गीत-संगीत गूंज उठे। यह उनकी मेहनत-मशक्कत का ही कमाल था कि एक बार वह सुर्खियों में आए तो फिर कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा।
आजीवन उन्हें कभी काम की कमी नहीं रही। वह जितना संगीत में, उतना ही लेखन में भी व्यस्त रहे। ‘दिल की नजर से’ उनका चर्चित गजल संग्रह रहा। इसके अलावा उन्होंने कुरान का अरबी से उर्दू में अनुवाद और श्रीमद्भगवत गीता का हिंदी में पद्यानुवाद किया। सामवेद और उपनिषदों का भी उन्होंने हिंदी में अनुवाद किया। अपनी कृति ‘सुनहरे पल’ में उन्होंने अपनी जिंदगी के अनुभवों को साझा किया है। 'रवींद्र रामायण' भी उनकी लोकप्रिय पुस्तक है। किडनी की बीमारी ने 9 अक्टूबर 2015 को उनकी जान ले ली।
रवींन्द्र जैन के हुनर को छूकर फिल्मों में एक-से-एक गीत लोकप्रिय हुए, जैसे- 'गीत गाता चल ओ साथी गुनगुनाता चल', ‘घुंघरू की तरह बजता ही रहा हूं मैं‘, 'जब दीप जले आना', 'ले जाएंगे ले जाएंगे दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे', 'ले तो आए हो हमें सपनों के गांव में', 'ठंडे-ठंडे पानी से नहाना चाहिए', 'एक राधा एक मीरा', 'अंखियों के झरोखों से मैंने जो देखा सांवरे', 'सजना है मुझे सजना के लिए', 'हर हसीं चीज का मैं तलबगार हूं', 'श्याम तेरी बंसी पुकारे राधा नाम', 'कौन दिशा में लेके चला रे बटोहिया', 'सुन सायबा सुन प्यार की धुन' आदि।
वर्ष 2015 में उनको पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इसके अलावा सन् 1985 में फ़िल्म 'राम तेरी गंगा मैली' के लिए उन्हें फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड से नवाजा गया।
उनका जन्म 28 फरवरी 1944 में उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले में हुआ था। वह सात भाई-बहनों में तीसरे नंबर के थे। वर्ष 1972 में उन्होंने अपने फिल्मी करियर की शुरुआत की। जन्म से अंध होने पर भी उन्होंने कभी हिम्मत नहीं हारी। अलीगढ़ विश्वविद्यालय के ब्लाइंड स्कूल से शिक्षा ली। जब वह चार साल के थे, तभी घर पर संगीत की शिक्षा लेने लगे। बाद में संगीत के शिक्षक के रूप में कोलकाता चले गए। वहां पहली बार वह फिल्मकार राधेश्याम झुनझुनवाला की संगत में आकर वर्ष 1969 में मुंबई चले गए। झुनझुनवाला अपनी एक फिल्म 'लोरी' में उनका संगीत चाहते थे। इस फिल्म में 14 जनवरी 1971 को उनके संगीत निर्देशन में पहली बार मोहम्मद रफी, लता मंगेशकर, आशा भोशले के सुरों में पांच गीत रिकॉर्ड हुए। यह फिल्म पर्दे पर नहीं आ सकी।
उनके निर्देशन में 1972 में पहली फिल्म रिलीज हुई- 'कांच और हीरा', जिसमें गीत के बोल थे- ‘नजर आती नहीं मंजिल’। यह फिल्म भी बॉक्स ऑफिस पर असफल रही लेकिन रवींद्र जैन ने हिम्मत नहीं हारी। अगले साल राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म 'सौदागर' से उन्होंने खुद को मुकद्दर का सिकंदर साबित कर दिखाया। इसके बाद 'चोर मचाए शोर', 'चितचोर', 'तपस्या', 'दुल्हन वही जो पिया मन भाए', 'अंखियों के झरोखों से', 'राम तेरी गंगा मैली', 'हिना', 'इंसाफ का तराजू', 'प्रतिशोध' आदि फिल्मों में संगीत देकर चलचित्र जगत में वह छा गए।
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