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आज के समय में जनहित याचिकाओं की प्रासंगिकता और महत्व

जनहित याचिका भारतीय संविधान या किसी कानून में परिभाषित नहीं है, यह उच्चतम न्यायालय की संवैधानिक व्याख्या से व्युत्पन्न है। जनहित याचिकाओं का सबसे बड़ा योगदान यह रहा कि इसने कई तरह के नवीन अधिकारों को जन्म दिया।

सुप्रीम कोर्ट (फाइल फोटो)

सुप्रीम कोर्ट (फाइल फोटो)


अदालत इन्हें 'हस्तक्षेप करने वालों' की संज्ञा दे चुकी है और कई बार इन याचिकाओं को खारिज करने का डर भी दिखाया जा चुका है। इन जनहित याचिकाओं के कारण कुछ समस्यायें अब उत्पन्न हुई हैं।

सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों ने इनकी बेबुनियाद याचिकाओं पर कई बार सख्त टिप्पणी करते हुए याचिकायें खारिज करके याचिकाकर्ता पर जबरदस्त जुर्माना भी लगाया है।

सार्वजनिक हित की रक्षा के लिए किया गया कोई भी मुकदमा जनहित याचिका है। यह अन्य सामान्य अदालती मुकदमों से भिन्न है और इस में यह आवश्यक नहीं कि पीड़ित पक्ष स्वयं अदालत में जाए। यह किसी भी नागरिक द्वारा पीड़ितों के पक्ष में किया गया मुकदमा है। स्वयं न्यायालय भी किसी सूचना पर संज्ञान लेकर इसे आरम्भ कर सकता है। इस तरह के अब तक के मामलों ने कारागार और बन्दी, सशस्त्र सेना, बालश्रम, बंधुआ मजदूरी, शहरी विकास, पर्यावरण और संसाधन, ग्राहक मामले, शिक्षा, राजनीति और चुनाव, लोकनीति और जवाबदेही, मानवाधिकार और स्वयं न्यायपालिका के व्यापक क्षेत्रों को प्रभावित किया है। न्यायिक सक्रियता और जनहित याचिका का विस्तार बहुत हद तक समानान्तर रूप से हुआ है और जनहित याचिका का मध्यम-वर्ग ने सामान्यत: स्वागत और समर्थन किया है।

जनहित याचिका भारतीय संविधान या किसी कानून में परिभाषित नहीं है, यह उच्चतम न्यायालय की संवैधानिक व्याख्या से व्युत्पन्न है। जनहित याचिकाओं का सबसे बड़ा योगदान यह रहा कि इसने कई तरह के नवीन अधिकारों को जन्म दिया। उदाहरण के लिए इसने तेजी से मुकदमें की सुनवाई का अधिकार, हिरासती यातना के विरुद्ध अधिकार, दासता के विरुद्ध अधिकार, यौन-उत्पीड़न के विरुद्ध अधिकार, आश्रय एवं आवास का अधिकार, गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार, स्वच्छ पर्यावरण का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, कानूनी सहायता प्राप्त करने का अधिकार, स्वास्थ्य सुरक्षा का अधिकार तथा ऐसे ही कई अन्य अधिकारों को अस्तित्व प्रदान किया। कुल मिलाकर इसने न्यायपालिका को काफी प्रतिष्ठा दिलायी तथा कई न्यायविदों ने न्यायपालिका के इस योगदान को पुनर्लोकतान्त्रीकरण की प्रक्रिया के रूप में देखा।

न्याय पाने के लिए जनहित याचिकाओं और सूचना के अधिकार के तहत कानूनी प्रक्रिया में आई तेजी की तुलना संचार में मोबाइल टेलीफोन और इंटरनेट के विस्तार से की जा सकती है। लेकिन अब यह भय भी सताने लगा है कि ये याचिकाएं वक्त की बर्बादी करने का महज साधन भर न बन जाय। देश की सर्वोच्च अदालत पिछले एक दशक में कई मामलों में इस तरह की याचिकाओं की कड़ी आलोचना भी कर चुकी है। अदालत इन्हें 'हस्तक्षेप करने वालों' की संज्ञा दे चुकी है और कई बार इन याचिकाओं को खारिज करने का डर भी दिखाया जा चुका है। इन जनहित याचिकाओं के कारण कुछ समस्यायें अब उत्पन्न हुई हैं। जैसे, 

1- इसकी वजह से न्यायालय के ऊपर काम का बोझ बढ़ गया है। इससे अन्य केस की सुनवाई के लिए ज्यादा समय नहीं मिल पाता है और न्यायालय में पेण्डिंग केस की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है।

2- न्यायालय ने कई बार ऐसे आदेश पारित कर दिये जिसे पूरा कर पाना कार्यपालिका के लिए काफी कठिन हो जाता है। उदाहरण के लिए, वर्ष 2010 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिल्ली में बिना सीएनजी वाली बसों को प्रतिबन्धित करने के आदेश दिये। इस आदेश को अन्तत: दिल्ली सरकार को तोडऩा पड़ा और बस चलाने की अनुमति देनी पड़ी थी।

3- न्यायालय की इस भूमिका को शक्ति के पृथक्करण सिद्धान्त के विरुद्ध भी बताया जाता है और इसे कार्यपालिका एवं व्यवस्थापिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप के रूप में भी देखा जाता है।

4- इतना ही नहीं, कुछ लोगों एवं संगठनों ने समाज में तुरन्त लोकप्रियता हासिल करने के लिए जनहित याचिका दायर करने को अपना व्यवसाय बना लिया। इसकी वजह से जनहित याचिका (public interest litigation) का निजी हित याचिका (personal interest litigation) में तब्दील होने का खतरा उत्पन्न हो गया।

उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ वकील अरविन्द जैन ने एक मामले की सुनवाई के दौरान, जनहित याचिकाओं के संन्दर्भ में सही कहा था, 'अगर इसको सही ढंग से नियन्त्रित न किया गया और इसके दुरुपयोग को नहीं रोका गया, तो यह अनैतिक हाथों द्वारा प्रचार, प्रतिशोध और राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि का हथियार बन सकता है। जनहित की आड़ में आधारहीन याचिकाओं की निरन्तर बढ़ती बाढ़ का भयावह खतरा, अदालतों के सिर पर मण्डरा रहा है विशेषकर तब, जब वर्षों से लम्बित विचाराधीन मुकदमे बढ़ते जा रहे हैं, जो एक बड़ी चुनौती भी है और गम्भीर चेतावनी भी।

दरअसल, 1979-80 के आसपास विचाराधीन कैदियों, लावारिस बच्चों, वेश्याओं, बाल मजदूरों और पर्यावरण के मुद्दों पर तमाम लोगों ने जनहित याचिकायें दायर कीं। अदालत ने भी 'जनहित याचिकाओं की अनिवार्यता को समझा और न्याय व्यवस्था में आम लोगों के बढ़ते आक्रोश को शान्त करने के लिये, यह जरूरी भी था और मजबूरी भी। हालांकि इससे सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक न्याय के लक्ष्य 'आधे-अधूरे ही रहे। शोषितों की आंख के आंसू कम नहीं हुए और राष्ट्रीय स्तर पर विषमता की खाई, लगातार चौड़ी और गहरी होती रही।

सर्वोच्च न्यायालय के माननीय न्यायमूर्ति ए.के. माथुर और मार्कण्डेय काटजू ने एक मामले का फैसला सुनाते समय, अपनी नाराजगी जाहिर करते हुए लिखा था, 'भारत में मौजूदा न्यायिक हालात से जनता बेहद क्षुब्ध है। मुकदमों में होने वाली जरूरत से अधिक देरी के कारण, न्याय व्यवस्था में उसकी आस्था तेजी से घट रही है। हम सम्बन्धित अधिकारियों से आग्रह करते हैं कि अगर न्यायपालिका में नागरिकों का विश्वास बनाये-बचाये रखना है, तो तुरन्त आवश्यक कार्यवाही करें ताकि मामलों को गति से निपटाया जा सके।

'जनहित में याचिकाओं की मन्जूरी मिलते ही, एक के बाद एक महत्वाकांक्षी 'स्वयंसेवी संगठन प्रबुद्ध समाजसेवी, बड़े वकील, पत्रकार और अन्य 'क्रान्ति-धर्मी या 'स्वप्न-जीवी' अपने या प्रायोजित मुद्दों पर अदालत में तर्क-कुतर्क करने लगे। कुछ ने तो अपनी सारी ऊर्जा और प्रतिभा 'जनहित योजनाओं पर ही केन्द्रित कर दी। इन लोगों ने राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय फंड और 'मान-सम्मान' भी कमाया। ऐसे अधिकांश स्वयं-सिद्ध संगठनों और नगर-नायकों या 'नरक मसीहाओं की विश्वसनीयता और प्रतिबद्धता, हमेशा सन्देह के घेरे में रहेगी। सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों ने इनकी बेबुनियाद याचिकाओं पर कई बार सख्त टिप्पणी करते हुए याचिकायें खारिज करके याचिकाकर्ता पर जबरदस्त जुर्माना भी लगाया है।

समय-समय पर ऐसी अनेक हास्यास्पद याचिकायें दायर हुईं जैसे भारत का नाम बदलकर हिन्दुस्तान करने, अरब सागर का नाम बदलकर सिन्धु सागर करने और राष्ट्रगान बदलने सम्बन्धी याचिकायें। यही नहीं, इन्दौर खण्डपीठ के समक्ष एक याचिका में सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्तियों के विरुद्ध ही एक केस दायर हुआ था, जो भारी जुर्माने के साथ खारिज हुआ। जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के बावजूद, गरीबों को कोई बड़ी राहत नहीं मिली। अदालतों के पर्यावरण प्रदूषण पर अनेक आदेश, हजारों फैक्ट्रियों को बन्द करने के निर्णय, झुग्गी-झोंपड़ियां हटाने के हुक्म समाजोपयोगी होने की बजाए जनविरोधी सिद्ध हुए।

वर्ष 1999 में रिहायशी इलाकों से फैक्ट्री हटाने के निर्णय से राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में मजदूर घर से बेघर हुए और झुग्गी-झोपड़ियां उजाड़ी गईं, जिससे 20 लाख लोग बुरी तरह प्रभावित हुये। एमसी मेहता बनाम भारत संघ मामले में प्रदूषण कम करने के लिये 2001 में सीएनजी वाले फैसले के बावजूद, प्रदूषण पहले से अधिक बढ़ गया और राजधानी 15 दिन 'ऑड-ईवन में उलझती-सुलझती रही। सच यह है कि 'जनहित याचिकओं का सुपर हाइवे हर समस्या का समाधान नहीं है। न्यायिक विडंबना यह है कि कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न संबंधी 'विशाखा दिशानिर्देश' लागू करने और विधेयक बनाने में 17 साल का समय लगा। इससे लिंग समानता और स्त्री रक्षा-सुरक्षा के सवाल पर, सरकारी गम्भीरता का अनुमान लगाया जा सकता है।

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