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2019 चुनाव: उपचुनाव के आधार पर भविष्यवाणी करना कितना सही!

राजयोग, राज-रोग पर बड़ी-बड़ी बातें करने की ठसक...

2019 चुनाव: उपचुनाव के आधार पर भविष्यवाणी करना कितना सही!

Saturday March 17, 2018 , 7 min Read

ऑटो चालक बोला- 'मैं भी अखबार पढ़ता हूं, टाइम मिलने पर थोड़ा-बहुत टीवी भी देख लेता हूं, लगता है, अगले साल जनता नरेंद्र मोदी को सेंटर के लिए एक चांस और देगी, कुछ काम-वाम तो हुआ नहीं, फिर भी।' अब इस 'फिर भी' के क्या मायने निकालें! बाकी रही-सही के लिए सोशल मीडिया, भांति-भांति के ज्योतिषाचार्य, वाट्सएप, फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग, वेबसाइट्स हैं ही।

सांकेतिक तस्वीर

सांकेतिक तस्वीर


पक्ष-विपक्ष की इस जनविरोधी कार्यनिष्ठा की शिनाख्त करते हुए ऑटो रिक्शा वाले की जुबान से 'फिर भी' सुनने को मिलता है। इस 'फिर भी' को चुनाव को दिनो में जमकर मथा जाता है, समुद्र मंथन की तरह।

अक्सर चुनावी जय-पराजय पर भारतीय राजनीति में राजयोग और राजरोग के तुरत-फुरत दोहरे विश्लेषण होने लगते हैं। जब से मीडिया लोकव्यापी हुआ है, नतीजे आने से पहले और बाद तक ऐसी सूचनात्मक हड़बड़ियों ने एक ओर जहां पत्रकारिता के प्रति जनविश्वास को ठेस मारी है, दलों और संगठनों, बारी-बारी कभी सरकार, कभी विपक्ष के शीर्ष राजनेताओं को समाज के अप्रिय अवयवों से समझौतापरस्ती, दिशाहीनता, मनमानी, राजकीय हठ और वास्तविकताओं के हनन के लिए विवश किया है। परिणामतः लोकतंत्र के प्रति लोगों की आस्था तो डिगी ही है, सत्ताजीवी स्वेच्छारिता ने सरकार में होने-न-होने के मायने ही छिन्न-भिन्न कर दिए हैं।

अभी-अभी के कुछ ताजे परिदृश्य पर नजर दौड़ाइए, देखिए, कि राजस्थान, मध्य प्रदेश में उप चुनाव होते हैं, भाजपा प्रत्याशी हार जाते हैं, कांग्रेस जीत जाती है, विपक्षित पंचाटों पर खुशी की तालियां गूंज उठती हैं। चोटी के विश्लेषक, राजनीति के ज्ञानी-ध्यानी बड़े-बड़े दावों-प्रतिदावों में, सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में होने वाली हार-जीत का डंका पीटने लगते हैं। उसके बाद मेघालय, त्रिपुरा, नागालैंड में विधानसभा चुनाव होते हैं। बड़े-बड़े धुरंधरों के गढ़ ढह जाते हैं। मुद्दत के ठाट के सिराजे बिखर जाते हैं। भाजपा में खुशी की लहर फैल जाती है। टिप्पणीकार एक बार फिर सन् 2019 के लोकसभा चुनाव को ही टारगेट कर तरह-तरह के 'उवाच' से टीवी, अखबारों के चेहरे लाद देते हैं। नरेंद्र मोदी की जय-जय होने लगती है।

इसके बाद इसी सप्ताह उत्तर प्रदेश और बिहार में लोकसभा और विधानसभा की फिर कुछ सीटों पर उपचुनाव होते हैं। उत्तर प्रदेश की दोनों लोकसभा सीटें भाजपा के तंबू से खिसक कर समाजवादी पार्टी की कनात में चली जाती हैं और बिहार में भी कमोबेश इस पार्टी की भद्द पिट जाती है। राजनीतिक विशारद एक बार पुनः राजस्थान, मध्य प्रदेश के उपचुनाव नतीजों के तेवर में अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव को लक्ष्य कर भविष्यवाणियों के चोखे-चौपदे बांचने लगते हैं। जब हम हाल के इन तीनों चुनावी पड़ावों के नतीजों पर गहरी दृष्टि डालते हैं, माजरा कुछ और ही इशारे करता है।

क्या, कि उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद, गोरखपुर की लोकसभा सीटें तो समाजवादी पार्टी ने बहुजन समाज पार्टी की राजनीतिक मित्रता के बूते जीती है। हां, यह भाजपा के लिए सदमे जैसा बड़ा झटका जरूर हो सकता है, क्योंकि एक सीट प्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री ने खाली की थी, दूसरी उपमुख्यमंत्री ने। सच कहें तो लोकतंत्रिक आस्था के प्रश्न पर तकाजा तो इन दोनो महानुभावों के कुर्सी खाली कर देने का होना चाहिए लेकिन आज की राजनीति में उतनी शुचिता की उम्मीद करना सठता होगी।

रही राजस्थान, मध्य प्रदेश के उपचुनाव नतीजों की बात, तो वहां भी सत्ता में होने के बावजूद भाजपा प्रत्याशियों का हार जाना, वह भी लोकसभा सीटों जैसे विशाल परिक्षेत्रों में, निश्चित ही वह भी एक नितांत अशुभ संकेत माना जाना जायज लगता है लेकिन हम बात कर रहे हैं, बार-बार रंग बदलती उन टिप्पणियों को केंद्र में रखकर, जिनकी सुर्खियां वस्तुपरक आंकलन कम करती हैं, दलीय निष्ठाओं का गोत्रोचार ज्यादा, और जिनको पढ़-सुनकर विश्लेषकों की अस्थायी अगंभीरता का गहरे से बखूबी थाह-पता चल जाता है। ऐसे में एक अतिस्वाभाविक प्रश्न सामने आता है, कि क्या त्रिपुरा, मेघालय, नागालैंड के चुनाव नतीजों से मान लिया जाए कि 2019 में भाजपा फिर सत्ता में लौट आएगी; अथवा राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार के उपचुनावों में गैरभाजपाई फतह से ये निष्कर्ष निकाल लिया जाए कि 2019 में केंद्र में कांग्रेस और उसके जोड़ीदारों को मतदाता सत्तासीन कर देंगे?

अब, आम आदमी की समझदारी की दृष्टि से एक ऑटो चालक की टिप्पणी सुनिए। लगभग डेढ़ किलो मीटर के संक्षिप्त सवारी-सफर में वह कहता है- 'मैं भी अखबार पढ़ता हूं। टाइम मिलने पर थोड़ा-बहुत टीवी भी देख-झांक लेता हूं। मुझे लगता है, अगले साल जनता नरेंद्र मोदी को सेंटर के लिए एक चांस और देगी। कुछ काम-वाम तो हुआ नहीं, फिर भी।' अब इस 'फिर भी' के क्या मायने निकाले जाएं! आखिर 'फिर भी' क्यों? 'फिर भी' में बहुत कुछ छिपा है, कोई बड़ा सवाल, कोई बड़ा अंदेशा, कोई दमदार उत्तर, जिसका भरपूर घालमेल आगामी लोकसभा चुनाव की घोषणा हो जाने के बाद मीडिया की लोकव्यापी सुर्खियों में पढ़ने, देखने को मिलेगा।

यह 'फिर भी' किसी खतरनाक चुप्पी का सबब भी हो सकता है और लक्षित-अलक्षित अनुमान का रहस्योदघाटन भी। है क्या कि अब दलों को अपने काम पर विश्वास कम, मीडिया की ढिंढोरों पर ज्यादा जा टिका है। इसने उस राजनीतिक निष्ठा का पतन किया है, जिस पर चुनाव के वक्त मतदाता के भरोसे का आकलन होता रहा है। पक्ष हो या विपक्ष, आज उनकी राजनीति छल-प्रपंच, प्रवंचना, प्रोपेगंडा और विज्ञापनों के ढूहों पर जा टिकी है। वहीं पालथी मारे-मारे जनमतवादी लोकतंत्र की दुंधभी बजाती रहती है, भले इसकी कीमत ईवीएम के साथ खुराफातों तक ही क्यों न चुकानी पड़े। अब देखिए, जब विपक्ष जीत जाता है, तब ईवीएम में छेड़छाड़ नहीं हुई रहती है, हार जाता है तो आसमान सिर पर उठा लिया जाता है, जबकि चुनाव आयोग बार-बार इस सम्बंध में वस्तुस्थितियां स्पष्ट कर चुका है। इससे ये पता लगता है कि विपक्ष को भी 'अपनी तरह की राजनीति' में रत्तीभर भी विश्वास नहीं रहा।

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पक्ष-विपक्ष की इस जनविरोधी कार्यनिष्ठा की शिनाख्त करते हुए ऑटो रिक्शा वाले की जुबान से 'फिर भी' सुनने को मिलता है। इस 'फिर भी' को चुनाव को दिनो में जमकर मथा जाता है, समुद्र मंथन की तरह। जर्रा-जर्रा चुनाव प्रचार से हिल जाता है, महीनों नाना प्रकार की सुर्खियां पाठकों-दर्शकों का दिमाग चाटती रहती हैं, जिस पर करोड़ों-करोड़ का बजट पानी की तरह बहाया जाता है। ऑटो रिक्शा वाले ने एक बात और कही। बोला- 'मोदी जी की एक बात बड़ी अच्छी लगी कि वह लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराना चाहते हैं।

ऐसा हो जाता तो बड़ा अच्छा रहता। बार-बार चुनाव से उस पर देश का बड़ा पैसा बर्बाद होता रहता है।' वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में केंद्र की सत्ता किसके हिल्ले-ठिकाने लगेगी, अभी तो कुछ भी कहना कनकौवा उड़ाने जैसा होगा लेकिन समस्त ज्ञानियों, ध्यानियों की लंबी लंबी टिप्पणियों और ऑटो रिक्शा वाले की नपी-तुली दो-एक बातों में से मुझे चालक की चाल ज्यादा सार्थक लगती है।

बाकी बातें तो चलती रहेंगी कि नरेंद्र मोदी बड़े मेहनती प्रधानमंत्री हैं, रात-दिन लगे रहते हैं, कहते हैं, न खाऊंगा, न खाने दूंगा, इसके लिए अपनों को भी खदेड़ते रहते हैं; और राहुल गांधी जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी की तरह कांग्रेस को पॉवर दे पाएंगे या नहीं लेकिन वह बाकी नेताओं से ज्यादा ईमानदार हैं, उन्हें खानदानी नेतागीरी विरासत में मिल गई है, मोदी के साथ ऐसा नहीं है, वैसा नहीं है। ढेर सारी बातें, तरह-तरह की। चट्टी की दुकानों से लेकर इलाहाबाद, कोलकाता, दिल्ली के कॉफी हाउसों तक आखिर निठल्ला चिंतन के लिए भी तो कुछ न कुछ खुराक रोजमर्रा में चाहिए ही।

बाकी रही-सही के लिए सोशल मीडिया, तरह-तरह के ज्योतिषाचार्य, वाट्सएप, फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग, वेबसाइट्स हैं ही। तो चुनाव-उपचुनाव नतीजों पर फिलहाल इन फिकरों की भी गांठ बांध लेते हैं, कि बीजेपी के मजबूत किले को भेद सकती है विपक्षी एकजुटता, कि वामदलों के लिए सबसे बड़ी चिंता यह बन गई है कि सत्तासीन पार्टी को चुनौती देने में बीजेपी उनसे कहीं आगे निकल गई है, कि बीजेपी के रणनीतिकार 2019 का लोकसभा चुनाव जीतने के लिये उत्तर प्रदेश और बिहार पर विशेष ध्यान दे रहे हैं, यूपी बिहार के उप-चुनाव नतीजे गेमचेंजर्स हो सकते हैं, मोदी-शाह की हार की भविष्यवाणी जल्दबाज़ी है, बोले सीएम योगी- खाई में गिरने से पहले ही संभल गए, आदि-आदि। साथ में कुछ और, कि केजरीवाल की माफी पर पंजाब आप में बगावत कर भगंवत मान ने इस्‍तीफा दे दिया है, अथवा टीडीपी और भाजपा के बीच बहुत पहले से दिख रहीं दरारें थीं, आदि-आदि।

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