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त्रिपुरा में मूर्ति विवाद: प्रतिमाजीवी सियासत की रोचक कहानियां

प्रतिमाजीवी राजनीति जमाने से हिंसा का सबब बनती रही है...

त्रिपुरा में मूर्ति विवाद: प्रतिमाजीवी सियासत की रोचक कहानियां

Thursday March 08, 2018 , 7 min Read

मुक्तिबोध ने ऐसा क्यों कहा कि 'अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे, तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।' त्रिपुरा में कॉमरेड लेनिन की प्रतिमा विजयोन्माद में बुल्डोजर से ढहा दी गई। उन्हीं लेनिन को रेखांकित करते हुए कभी शहीदे आजम भगत सिंह ने कहा था, 'यह एक काल्पनिक आदर्श है कि आप किसी भी कीमत पर अपने बल का प्रयोग नहीं करते, नया आन्दोलन जो हमारे देश में आरम्भ हुआ है और जिसकी शुरुआत की हम चेतावनी दे चुके हैं, वह गुरुगोविंद सिंह और शिवाजी महाराज, कमल पाशा और राजा खान, वाशिंगटन और गैरीबाल्डी, लाफयेत्टे और लेनिन के आदर्शों से प्रेरित है।'

लेनिन और श्यामा प्रसाद मुखर्जी की प्रतिमाएं

लेनिन और श्यामा प्रसाद मुखर्जी की प्रतिमाएं


त्रिपुरा के साथ पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में विभिन्न विचारधाराओं के प्रतीक हस्तियों की मूर्तियां तोड़े जाने के मुद्दे पर राजनीति तेज हो गई है। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों इन घटनाओं की निंदा कर रहे हैं, लेकिन आरोप एक-दूसरे पर लगा रहे हैं।

मुक्तिबोध ने ऐसा क्यों कहा कि 'अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे, तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।' त्रिपुरा में कॉमरेड लेनिन की प्रतिमा विजयोन्माद में बुल्डोजर से ढहा दी गई। उन्हीं लेनिन को रेखांकित करते हुए कभी शहीदे आजम भगत सिंह ने कहा था, 'यह एक काल्पनिक आदर्श है कि आप किसी भी कीमत पर अपने बल का प्रयोग नहीं करते, नया आन्दोलन जो हमारे देश में आरम्भ हुआ है और जिसकी शुरुआत की हम चेतावनी दे चुके हैं, वह गुरुगोविंद सिंह और शिवाजी महाराज, कमल पाशा और राजा खान, वाशिंगटन और गैरीबाल्डी, लाफयेत्टे और लेनिन के आदर्शों से प्रेरित है।'

बाबा साहब अंबेडकर ने कभी कहा था - 'भारत के राजनीतिक जीवन में नायक और नायक पूजा एक कड़वी सच्चाई है। मैं मानता हूं कि नायक पूजा भक्तों के लिए हतोत्साहित करने वाली है और देश के लिए खतरनाक है। मैं ऐसी आलोचनाओं का स्वागत करता हूं, जिनसे यह पता चले कि जिस व्यक्ति को आप महान मानकर पूजना चाहते हैं, उसके बारे में ज़रूर जानना चाहिए। ये कोई आसान काम नहीं है। इन दिनों जब प्रेस हाथ में हो तो उसके ज़रिये महान पुरुष को आसानी से गढ़ा जा सकता है। हम एक ऐसे चरण पर पहुंच गए हैं, जहां पॉकेटमारों से सावधान जैसे नोटिस बोर्ड के साथ−साथ हमें ये बोर्ड भी लगाना होगा, जिस पर लिखा हो महान पुरुषों से सावधान।'

त्रिपुरा में बुल्डोजर से कामरेड लेनिन की मूर्ति ढहा दी गई। कम्युनिस्ट तो मूर्तियों में विश्वास नहीं करते हैं, फिर लेनिन की मूर्ति ढहाने पर हिंसा क्यों? यह प्रश्न जरूरी भी है, नाजायज भी। अयोध्या में राम मंदिर तो पता नहीं कब बनेगा, वहां रामजी की सौ फीट की मूर्ति लगाने की घोषणा हो गई है। त्रिपुरा के साथ पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में विभिन्न विचारधाराओं के प्रतीक हस्तियों की मूर्तियां तोड़े जाने के मुद्दे पर राजनीति तेज हो गई है। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों इन घटनाओं की निंदा कर रहे हैं, लेकिन आरोप एक-दूसरे पर लगा रहे हैं।

तमिलनाडु में पेरियार की मूर्ति तोड़ दी गई। अभी इन दोनों घटनाओं की छानबीन पूरी भी नहीं हुई कि कोलकाता में श्यामा प्रसाद मुखर्जी की प्रतिमा को तोड़ कर उस पर कालिख पोत दी गई। इसके बाद गुटीय झड़पें होने लगीं। कुछ समय पहले इसी पश्चिमी बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने एक तरह की वोटबैंक की राजनीति के चलते ही मुहर्रम के दिन दुर्गा मूर्ति विसर्जन पर रोक लगाने का आदेश जारी किया था लेकिन कलकत्ता हाई कोर्ट ने तीखी टिप्पणी करते हुए आदेश रद्द कर दिया।

इसी तरह का एक सियासी मूर्ति आख्यान आता है वर्ष 2012 में, जब 403 सदस्यीय उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के मौके पर निर्वाचन आयोग ने मायावती और हाथी की मूर्तियों को ढंकने का आदेश दे दिया था। मायावती इससे इतना घबरा गई कि उन्होंने रात के अँधेरे में ही लखनऊ में अपनी मूर्तियों का अनावरण कर डाला। समाजवादी पार्टी ने भी मायावती के इस कदम का कड़ा जवाब देते हुए शोक दिवस मनाया और मायावती की मूर्तियों पर काली पट्टियाँ बाँध दीं। एक वाकया 2015 का तमिलनाडु का है, जब प्रशासन नेताओं की मूर्तियों के चारों ओर पिंजरा बनवाने लगा था।

पिछले कुछ वर्षों से मूर्ति विवाद का एक नया ट्रेंड चला है। जिस जमीन पर अवैध कब्जा करना हो, वहां शरारती तत्व या तो मूर्ति लगा देते हैं अथवा धार्मिक स्थल स्थापित करने का विवाद शुरू कर देते हैं। इसमें पुलिस और अदालत को भी हस्तक्षेप करने से पहले सौ बार सोचना पड़ता है। एक और नया ट्रेंड शुरू हुआ है, जिंदा व्यक्ति की मूर्ति लगवा देना। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती इसकी साक्षात उदाहरण हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने सरकारी खजाने से पांच हजार करोड़ लखनऊ-नोएडा में अंबेडकर और दलित अगुवों की मूर्तियों के पार्कों पर खर्च कर दिए।

आज भी दिल्ली में पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह स्मृति भवन को मेमोरियल में बदल देने का आंदोलन चल रहा है। हरियाणा के हर ज़िले के पार्कों में देवीलाल की मूर्तियां लगी पड़ी हैं। पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र हुड्डा अपने पिता रणवीर हुड्डा की स्मृति में रोहतक में स्मारक बनवा चुके हैं। राजनीति में मूर्ति पूजा आस्था नहीं, विचारों से खेलने का माध्यम मानी जाती है। देश के कोने-कोने में लगी महापुरुषों की मूर्तियों के अनावरण के बाद उनकी समुचित देखभाल, साफ-सफाई का किसी को ध्यान रखने की सुधि नहीं रह जाती है। मूर्ति भंजन से समाज में उत्तेजना फैलाने, हिंसक घटनाएं होने का सिलसिला भी आज तक थमा नहीं है।

तमिलनाडु में जिंदा रहते तत्कालीन मुख्यमंत्री कामराज की मूर्ति लगवा दी गई। बाद में कामराज की प्रतिमा की जगह अन्नादुरई की भी मूर्ति लगा दी गई। प्रतिमा स्थापना हर राजनीतिक दल के लिए आज सियासत का सॉफ कॉर्नर बन चुकी है। कभी कांग्रेस श्रीपेरंबुदूर में 12 एकड़ ज़मीन अधिग्रहीत कर राजीव गांधी की प्रतिमा लगवाती है तो गुजरात में सरदार पटेल की प्रतिमा के लिए बजट में केंद्र सरकार से 200 करोड़ और गुजरात सरकार ने 500 करोड़ रुपये जारी कर दिए जाते हैं।

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दिल्ली में 245 एकड़ ज़मीन पर गांधी, नेहरू, इंदिरा और राजीव के स्मृति-शेष रच दिए गए हैं। कभी छत्तीसगढ़ में पंडित दीनदयाल उपाध्याय की प्रतिमा की स्थापना के बाद श्यामाप्रसाद मुखर्जी की भी प्रतिमा को लेकर विवाद खड़ा हो जाता है तो कभी पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अयोध्या में भगवान राम की जगह 50 फीट ऊंची भगवान कृष्ण की मूर्ति मंगा लेते हैं, उधर, पंजाब में युवा कांग्रेस लुधियाना में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की प्रतिमा लगाने की घोषणा कर देती है। और इससे दिल्ली में सिख सियासत गरमा जाती है।

प्रतिमाजीवी सियासत से जुड़ा सबसे रोचक व्यथा-कथा तो उत्तराखंड की है। बात जुलाई 2016 की है। राजधानी देहरादून में विधानसभा के नज़दीक रिस्पना पुल के पास शहीद घोड़े शक्तिमान की प्रतिमा को अनावरण से ठीक पहले हटा लिया गया। इसकी वजह रही सोशल मीडिया गुस्से की लहर। गौरतलब है कि इसी साल 14 मार्च को विधानसभा के सामने भारतीय जनता पार्टी के प्रदर्शन के दौरान उत्तराखंड पुलिस के घोड़े शक्तिमान का पैर टूट गया था। इसके बाद भाजपा विधायक गणेश जोशी पर घोड़े की टांग तोड़ने का आरोप लगा और उनको गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें दो दिन जेल में बिताने पड़े। शक्तिमान को कृत्रिम टांग लगाई गई। बाद में शक्तिमान की मौत हो गई। इस पर जमकर सियासत हुई।

भाजपा-कांग्रेस एक-दूसरे पर शक्तिमान की हत्या का आरोप लगाने लगीं। तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत ने शहर के रिस्पना पुल के पास के चौराहे का नाम शक्तिमान चौक घोषित कर दिया। रिस्पना पुल पर एक चबूतरा बना। उस पर शक्तिमान की प्रतिमा रख दी गई। लोग कहने लगे कि केदारनाथ आपदा में मारे गए लोगों के लिए तो सरकार ने कोई स्मारक नहीं बनवाया, लेकिन घोड़े की प्रतिमा लगाई जा रही है। इसके बाद अनावरण स्थगित कर प्रतिमा हटा ली गई। प्रतिमा प्रकरणों से पता चलता है कि आज हमारे देश की सत्ताजीवी राजनीति किस हद दक गिर चुकी है।

दरअसल, जनभावनाओं के दोहन से लेकर उनको उकसाने तक के क्रियाकर्मों का एक सस्ता माध्यम बन चुकी है प्रतिमाजीवी राजनीति। त्रिपुरा में लेनिन की प्रतिमा हटाने, उत्तर प्रदेश में अंबेडकर प्रतिमाएं तोड़ने, पश्चिम बंगाल में श्यामाप्रसाद मुकर्जी की प्रतिमा पर कालिख पोतने का सिलसिला उसी प्रतिमाजीवी राजनीति का हिस्सा है। उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू सही कहते हैं - 'प्रतिमा तोड़ने वाले 'मैड', हंगामा करने वाले 'बैड'। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी राज्यों में प्रतिमाओं पर अटैक की घटनाओं की निंदा की है।

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