यह न समझें कि यूं ही गजल हो गई: चंद्रसेन विराट
'मुक्तिकाएँ लिखें, दर्द गायें लिखें, हम लिखें धूप भी, हम घटाएँ लिखें। हास की अश्रु की सब छटाएँ लिखें, बुद्धि की छाँव में भावनाएँ लिखें, सत्य के स्वप्न सी कल्पनाएँ लिखें, आदमी की बड़ी लघुकथाएँ लिखें। सूचनाएँ नहीं, सर्जनाएँ लिखें, भव्य भवितव्य की भूमिकाएँ लिखें। पीढ़ियों के लिए प्रार्थनाएँ लिखें, केंद्र में रख मनुज मुक्तिकाएँ लिखें।' इन लाइनों को लिखने वाले साहित्यकार हैं, चंद्रसेन विराट...
चंद्रसेन विराट कहते हैं कि समकालीन पाठ्यक्रमों में समकालीन स्तरीय कविताओं के चयन की कोई विशिष्ठ प्रामाणिक व्यवस्था नहीं होने से कई गड़बड़ियां होती रही हैं।
उर्दू भाषा की ग़ज़ल को सिर्फ देवनागरी लिपि में लिख भर देने से वह हिंदी ग़ज़ल नहीं हो जाती। उर्दू शब्दावली एवं विन्यास के कारण वह उर्दू की ग़ज़ल ही रहेगी।
ऐसी सहज-सशक्त पंक्तियों के शीर्ष रचनाकार चंद्रसेन विराट जितने सहज गीतकार हैं, अपनी शुद्ध हिंदी ग़ज़लों में उतने ही प्रयोगधर्मी (मुक्तिका), कथ्य और शैली में सबसे अलग। दुष्यन्त कुमार के बाद चंद्रसेन विराट हिन्दी गजलों को कथ्य और शैली के नये प्रयोग देने वाले अत्यंत महत्वपूर्ण कवि माने जाते हैं। मनुष्यता की हिफाजत उनके शब्दों का मुख्य स्वर है। उनकी ग़ज़लों के तेवर हमारे समय को जितनी बारीकी से रेखांकित करते हैं, उतनी ही गहरी तीक्ष्णता के साथ मनुष्यता के प्रति आस्थावान बनाते हैं। उनकी प्रकाशित कृतियों में 'मेंहदी रची हथेली', 'स्वर के सोपान', 'ओ मेरे अनाम', 'किरण के कसीदे', 'मिट्टी मेरे देश की', 'पीले चावल द्वार', 'दर्द कैसे चुप रहे', 'निवर्सना चांदनी', 'पलकों में आकाश', 'आस्था के अमलतास', 'कचनार की टहनी', 'सन्नाटे की चीख', 'धार के विपरीत', 'लड़ाई लम्बी है', 'कुछ छाया कुछ धूप' उल्लेखनीय हैं।
चंद्रसेन विराट कहते हैं- ग़ज़ल, गीत-नवगीत के रचनाकारों के स्थान पर साहित्यिक आलोचकों से पूछा जाना चाहिए कि आज छांदस रचनाओं के हाशिये पर होने के लिए वे ही सही उत्तरदायी हैं। वे बतायें कि अपने मुखों में दही जमाये हुए क्यों बैठे रहे हैं? यह सन्नाटा वे क्यों नहीं तोड़ते? कैसी अजीब बात है कि रचनाकार इन काव्यरूपों में रचना भी करें और फिर आलोचना भी करें। एक असंगत प्रश्न यह भी पूछा जाता है, या आरोप लगाया जाता है कि इस गीति विधा के काव्यरूपों के रचनाकारों ने अपने आलोचक पैदा क्यों नहीं किये?
हमारी पीढ़ी का सौभाग्य रहा कि शुरुआती दौर में हमारे समय धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी स्थापित साहित्यिक पत्रिकाएं रहीं, जिनमें कोई कवि/लेखक प्रमुखता के साथ छपकर साहित्य में स्थापित हो जाता था।
जो मान्य आलोचक हैं, उन्होंने जानबूझ कर या साजिश के अंतर्गत शुरू से गीति विधा की उपेक्षा की। उसे नजरअंदाज किया और उस पर लिखने की जोखिम ही नहीं उठाई। इन्हीं तथाकथित बड़े आलोचकों ने छायावाद के परिवर्ती काल में परंपरिक गीति विधा की उपेक्षा की (जिसमें बच्चन, दिनकर, नरेंद्र शर्मा, अंचल आदि-आदि गीतकारों के साथ परिवर्ती गीतकवि- नेपाली, नीरज, रंग, रमानाथ अवस्थी, रामावतार त्यागी आदि-आदि की भी उपेक्षा की) उस समृद्ध गीतकाल का कोई अच्छा या बुरा मूल्यांकन ही नहीं किया इन बड़े आलोचकों ने। उनसे क्या अपेक्षा की जाये कि वे बाद के गीत-नवगीत, ग़ज़ल आदि काव्यरूपों पर अपना मुंह खोलेंगे।
चंद्रसेन विराट का कहना है कि 'मुक्तिका' कोई स्वतंत्र विधा नहीं है। यह हिंदी ग़ज़ल की शुरुआत के वर्षों में मेरे द्वारा सुझाया हुआ - हिंदी ग़ज़ल के लिए वैकल्पिक नाम भर था- 'मुक्तिका'। मुझे मेरे संस्कार में परिनिष्ठित हिंदी मिली और यही मेरी अर्जित भाषा रही, इसीलिए स्वाभाविक रूप से मैंने वही भाषा प्रयुक्त की, जिसमें तत्सम शब्दों का प्रयोग स्वभाववश ही हुआ। हर कवि की अपनी भाषा एवं डिक्शन होता है। मेरी यही तत्समी हिंदी मेरी विशिष्टता भी रही। पाठकों ने तत्सम शब्दों को बहर में सही रूप में प्रयुक्त करके अर्थवत्ता बढ़ाने के प्रयोग की प्रशंसा की तो ठेठ उर्दू ग़ज़ल प्रेमियों ने आपत्तियां भी दर्ज करायीं। मेरी यह परिनिष्ठित हिंदी काव्य भाषा कभी सराही गई तो कभी कटु आलोचना भी हुई।
उनका कहना है कि साहित्य में काल क्रमानुसार हर पीढ़ी अपनी अग्रज पीढ़ी से संस्कारित, शिक्षित-दीक्षित होती आयी है। ऐसा ही हमारी पीढ़ी के साथ हुआ है और हमारे बाद की पीढ़ी के साथ भी होगा और हुआ है। हमारी पीढ़ी का सौभाग्य रहा कि शुरुआती दौर में हमारे समय धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी स्थापित साहित्यिक पत्रिकाएं रहीं, जिनमें कोई कवि/लेखक प्रमुखता के साथ छपकर साहित्य में स्थापित हो जाता था। ये बड़े घरानों की व्यावसायिक पत्रिकाएं भी कालांतर में कई कारणों (प्रमुख कारण आर्थिक हानि) से दम तोड़ गईं।
उसके बाद उतनी गंभीर साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएं नहीं आयीं। हां, इनके स्थान पर अखिल भारतीय स्तर की अपेक्षा अलग-अलग क्षेत्रों से लघु पत्रिकाएं निकलती रहीं और बंद होती रहीं। कोई माने न माने किंतु बंद होने के आर्थिक कारण ही प्रमुख रहे हैं। अब भी पत्रिकाएं निकलती हैं, चलती भी हैं और कुछ वर्षों बाद बंद हो जाती हैं। इसके कारण अक्षम प्रबंधन, व्यावसायिक अनुभव की कमी आदि तो रही ही हैं, प्रमुख कारण फिर भी आर्थिक ही रहा है। चंद्रसेन विराट कहते हैं कि समकालीन पाठ्यक्रमों में समकालीन स्तरीय कविताओं के चयन की कोई विशिष्ठ प्रामाणिक व्यवस्था नहीं होने से कई गड़बड़ियां होती रही हैं। सिफारशी नाम चयन कमेटियों में आकर पक्षपात करते रहे हैं, जिसमें प्रकाशकों के हित सधते हैं। चयन में पारदर्शिता न होने से भी बात बिगड़ती रही है। पिछले वर्षों में राजनीतिक हस्तक्षेप भी देखने में आया है, जो अपनी पार्टी विशेष की रीति नीति का पोषण करता है और सक्षम तथा सुपात्र की उपेक्षा हो जाती है।
जहां तक आजकल हिंदी-उर्दू के बहाने ग़ज़ल की भाषा के सवाल पर 'प्रिय-अप्रिय' बहुत-कुछ कहा जा रहा है, मान्य हिंदी भाषा में लिखी ग़ज़ल को ही सामान्य रूप से हिंदी ग़ज़ल कहा जाता है। सर्वमान्य हिंदी भाषा के प्रयोग के कारण ही कोई ग़ज़ल, हिंदी ग़ज़ल कही जाती है। अन्यथा तो वह ग़ज़ल ही है। उर्दू ग़ज़ल जानी-मानी उर्दू भाषा में लिखी गई (कालांतर में तथाकथित हिंदुस्तानी) विभिन्न बहरों में बद्ध गीति रचना है, गीति-तत्व जिसकी मूल अर्हता है। यही ग़ज़ल का काव्य रूप यदि परिनिष्ठित हिंदी (संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दावली अनिवार्य नहीं) में लिखा जाए तो उसे हिंदी ग़ज़ल कहा जाना सर्वथा उचित है।
उनका कहना है कि ग़ज़ल केवल हिंदी में ही नहीं, अपितु हिंदीतर भाषाओं जैसे, मराठी, गुजराती, बांग्ला आदि में भी लिखी जा रही है। और तो और, संस्कृत में भी ग़ज़लों की रचना हो रही है। इन भाषाओं में लिखी ग़ज़ल को क्रमशः मराठी ग़ज़ल, गुजराती ग़ज़ल, बांग्ला ग़ज़ल और संस्कृत ग़ज़ल ही तो कहा जाएगा। इसीलिए हिंदी भाषा में लिखी गई ग़ज़ल को हिंदी ग़ज़ल ही तो कहा जाएगा। उर्दू भाषा की ग़ज़ल को सिर्फ देवनागरी लिपि में लिख भर देने से वह हिंदी ग़ज़ल नहीं हो जाती। उर्दू शब्दावली एवं विन्यास के कारण वह उर्दू की ग़ज़ल ही रहेगी। 'ग़ज़ल' तो एक पात्र है। इस पात्र में जिस भाषा का रस आप भरेंगे, उसी भाषा का रस यह पात्र देगा। यही बात हिंदी ग़ज़ल पर भी लागू है। प्रस्तुत है विराटजी की एक लोकप्रिय गजल -
याद आई, तबीयत विकल हो गई। आंख बैठे बिठाये सजल हो गई।
भावना टुक न मानी, मनाया बहुत, बुद्धि थी तो चतुर पर विकल हो गई।
अश्रु तेजाब बनकर गिरे वक्ष पर, एक चट्टान थी, वह तरल हो गई।
रूप की धूप से दृष्टि ऐसी धुली, वह सदा को समुज्ज्वल, विमल हो गई।
आपकी गौर वर्षा वदन-दीप्ति से, चांदनी सावली थी, धवल हो गई।
मिल गये आज तुम तो यही जिंदगी, थी समस्या कठिन पर सरल हो गई।
खूब मिलता कभी था सही आदमी, मूर्ति अब वह मनुज की विरल हो गई।
सत्य, शिव और सौंदर्य के स्पर्श से, हर कला मूल्य का योगफल हो गई।
रात अंगार की सेज सोना पड़ा, यह न समझें कि यूं ही गजल हो गई।
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