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नाम-पवित्रा, पेशा-फिल्म-मेकिंग, मक़सद-समाज को बदलना

जिंदगी के करीब फिल्म को रखने की कोशिश करता: करले स्ट्रीट मीडिया

नाम-पवित्रा, पेशा-फिल्म-मेकिंग, मक़सद-समाज को बदलना

Saturday August 22, 2015 , 7 min Read

पवित्रा चालम ने अपने जीवन के कई साल बैंगलोर की करले स्ट्रीट पर बिताये हैं। यह स्ट्रीट उनके ‘कल और आज’ से जुड़ी हुई है। दरअसल ‘Curley Street Media’ की सही में शुरुआत पवित्रा के करले स्ट्रीट से गहरे सम्बन्ध और उनकी स्टोरी टेलिंग की कला से हुई। चालम पढ़ने के लिए न्यूयॉर्क फिल्म एकेडमी गयी।

उनके फिल्म-मेकिंग करियर की शुरुआत बस से हुई। जब उन्होंने ‘पीस इन पाकिस्तान’ पहल में भाग लिया था, जिसके जरिये बस भारतीय और पाकिस्तानी युवाओं को जोड़ती थी। इसके बाद 2005 में उन्होंने यूरोप में पीस चाइल्ड इंटरनेशनल के साथ बतौर फिल्ममेकर काम किया और इससे वे अपने मानवीय लक्ष्यों के और करीब आ गयी।

पवित्रा चालम

पवित्रा चालम


2012 में जिंदादिल युवाओं के समूह द्वारा CSM की नींव रखी गयी। इस विविध और स्वछंद समूह का लक्ष्य देश की छोटी लेकिन महत्वपूर्ण कहानियों को मुख्यधारा में लाने का था।

CSM अपने कार्यस्थल में अराजकतावादी कांफोर्मिस्ट, यथार्थवादी-आशावादी ऊर्जा के घोल-मेल को, संस्था को पटरी पर लाने और इसे आगे बढ़ाने का श्रेय देती है।

अपनी स्थापना के बाद CSM सामाजिक और न्याय की 50 कहानियों की डॉक्यूमेंट्री बना चुकी है। लेकिन फिल्म-मेकिंग में बिजनेस, पहला और महत्वपूर्ण अंग है। और फिल्म-मेकिंग का यही बिजनेस रचना में समस्याएं लाता है।

‘हम अक्सर टाइट बजट में काम करते हैं, जिसका मतलब होता है कि हमें कुछ मुश्किल शेड्यूल्ड और सीमित उपलब्धता उसी के साथ ही काम करना पड़ता है। साथ ही हमें ये भी ध्यान रखना पड़ता है कि सौन्दर्य के स्तर और डिटेलिंग के साथ समझौते ना हो।’

‘हर फिल्म अपने आप में एक रचनात्मक अभ्यास है। यह दुःख की बात है कि चमक-धमक के विषय से हाशिये पर आ जाने के कारण, डॉक्युमेंट्री और सामाजिक मुद्दों पर बनी फिल्मों की पहुँच कम ही है।’

‘समाज में बहुत सी ‘इनक्रेडिबल’ सच्ची कहानियां हैं। हम जानते हैं कि ये मुद्दे जैसे ही लोगों को छुएंगे वैसे ही हम सच्चे और ताकतवर बदलाव को लाने में सफल होंगे।’

जब सामजिक न्याय और फिल्म-मेकिंग साथ में आते हैं तो, सख्त डॉक्यूमेंट्री कमेंट्री फिल्म जादुई तरह से नेचुरल बम का स्तर हासिल करती है। कई बार हम मानव परिस्थिति को कला की ताकत से उस स्तर तक ले जाते हैं, जहाँ पर असली दर्द सामने आ जाता है।

कला और स्वांग (नाटक) के बीच अच्छा संतुलन एक अच्छे डाक्यूमेंट्री फिल्ममेकर की परिभाषा है।

‘हम ऐसी कहानियां कह रहे हैं जिन्हें लोग जी रहे हैं, ऐसे में हमारे कैमरे में सच्चाई का हर एक हिस्सा कैद होना जरूरी है। अक्सर इन कहानियों में हर एक भावना बहुत जमीनी होती है, ऐसे में हम उन्हें बढ़ा-चढ़ा के दिखाकर उनके महत्व को कम करने का खतरा नहीं ले सकते। यह सरल, ताकतवर होने के साथ बहुत वास्तविक होना जरूरी है।’

इन सब जमीनी भावनाओं और उदास कहानियों की फिल्मिंग इस दबाव के साथ होती है कि लोग आपकी बात सुनने पर मजबूर हों। इसलिए फिल्ममेकर को ज्यादा उदासी और ज्यादा ड्रामेबाजी के बीच कहीं फिल्म को रखना होता है।

‘हम जो भी कहानियां कहते हैं उसमे पूरी तरह से डूब जाते हैं। इस तरह की कहानियाँ दिल को चूर-चूर कर देने वाली वास्तविकता या किसी के दर्द भरे संघर्ष से भरी होती है। यह हमारी जिम्मेदारी होती है कि हम उन कहानियों में लचीलता और बहादुरी के संघर्ष और उसको तोड़ने वाली मुस्कान को देखें, ताकि यह दूसरों को भी मदद करे।

करले  स्ट्रीट  की  टीम

करले स्ट्रीट की टीम


CSM की बेबी रूना की कहानी ऐसी ही दिल को छू जाने वाली है। इस बच्चे के दिमाग के पर्दों में पानी भर गया था। यह कहानी जीत और उम्मीद की है, हालांकि हर दास्ताँ मुक्क्मल नहीं होती है।

‘रूना और उसके माता-पिता को जानने और उसकी स्थिति को सुधारने के रास्ते तलाशने से पहले ही हमें अनजाने में ही, उसकी जैसी हज़ारों लड़कियों की भावनात्मक कहानियाँ सुनने को मिली।’

‘हम लगातार रूना और उसके परिवार के सम्पर्क में रहे। रूना की ‘रिकॉवरी’ में हम हर कदम उसके साथ रहे।’

‘जिन लोगों ने हमें अपनी जिंदगी में शामिल किया और अपने संघर्ष को हमारे द्वारा दुनिया को बताने का मौका दिया, हम उनके सम्पर्क में रहते हैं। वे लगातार करलेस्ट्रीट परिवार का हिस्सा बनते जा रहे हैं।’

‘Indelible 8 लोगों की अदभुत कहानी होने वाली थी। लेकिन प्रोडक्शन के मध्य में उनमे से एक व्यक्ति की मृत्यु हो गई। वह बहुत सी जटिलताओं से संघर्ष कर रही थी और स्वास्थ्य सुविधा ना मिलने के कारण उसकी जिंदगी ने मौत के आगे घुटने टेक दिए। इससे हर किसी को अघात हुआ। इस तरह के समय में हमने अपने लक्ष्य को और केन्द्रित कर लिया ताकि आसानी से मिलने वाली कुछ चीज़ों के कारण कोई अपनी जाना का खो दे।’

यह स्टोरी चालम के बहुत करीब थी, वह आगे बताती हैं ‘सात साल पहले मैं कैंसर से जूझ रही आयशा से मिली। डॉक्टर ने उसे कुछ दिन का समय दिया था, वह करीब 30 किलो की हो गयी थी। लेकिन फिर भी वो कैमरे के आगे अपनी जिंदगी की अच्छाईयों को बताने के लिए बहुत उत्सुक थी, मैं कभी किसी ऐसे इंसान से नहीं मिली। वह फिल्म के दौरान रोज़ एक बात कहती थी ‘अगर मैंने एक भी मरीज की जिंदगी को प्रेरित कर दिया तो मैंने अपनी जिंदगी पूरी जी ली।’ यह बात आज भी हर दिन मेरे ज़हन में रहती है।’

‘हमने फिल्म को आयशा की मृत्यु से कुछ घंटे पहले तक बनाया और उसका नाम ‘आयशा-दि इटरनल वन’ रखा। फिल्म ने पूरे देश में कैंसर से लड़ रहे परिवारों को प्रेरणा दी। यह ऐसा अनुभव था जिसे बताया नहीं जा सकता, इसने मेरा अपने काम पर भरोसा और पक्का कर दिया। मेरा ऐसी कहानियों और लोगों को, दुनिया के सामने लाने का इरादा और मजबूत हुआ।’

यह एक ऐसा समय है जब बॉलीवुड स्टार, हमारे पड़ोसी के संघर्ष से ज्यादा चर्चा पाते हैं। ऐसे में सोशल डॉक्यूमेंट्री हमारे समाज के ऐसे हिस्सों को दिखाती हैं, जो हमें रोज़ अपने रूप से किसी ना किसी तरह से सामना करवाती है लेकिन जिन्हें हम अनदेखा कर देते हैं।

‘जब समाज में मुश्किल समस्याओं में जी रहे लोगों की जटिल मांगों की बात आती है तो निश्चित रूप से देश में जागरूकता और सकारात्मक पहल की कमी नज़र आती है। ज्यादा लोगों के सामाजिक मुद्दों से जुड़ने से धीरे-धीरे यह तस्वीर बदल रही है। हमारा उद्देश्य जिंदगी को फिल्म की ताकत के द्वारा बदलना है।’

“पश्चिम के मुकाबले भारत में डॉक्यूमेंट्री प्रोडूसर बहुत कम हैं। यह काम करने के लिए चुनौती भरा माध्यम है।”

‘शोर्ट डॉक्यूमेंट्रीयों की शैली तेजी से कहानी कहने की होती है, इस तरह यह कमर्शियल सिनेमा को देखने वाले लोगों को बांधे रख सकती है। इसके अलावा वितरण के मामले में टेलिविज़न शोर्ट डॉक्यूमेंट्रीयों को लोगों तक पहुंचाने के लिए सरल मंच हो सकता है। डिजिटल फिल्म-मेकिंग ने भी इस माध्यम को और ज्यादा उपलब्धता दी है।’

‘‘रूटिंग फॉर रूना’ को बनाते हुए बहुत चुनौतियां सामने थी। पहली यह थी कि केवल उनके डॉक्टर्स को पता था की उनकी सटीक स्थिति क्या है। दूसरा हम सब कला के छात्र थे और हेल्थकेयर और बर्थ डिफेक्टस से जुड़े मामलों में कोई कुछ नहीं जानता था। और सबसे बड़ी समस्या यह थी कि हमारे पास कोई प्रोडक्शन फंडिंग नहीं थी। हम जल्द ही अब फिल्म को पूरा करने वाले हैं।’

‘हम भारत की सबसे बड़ी क्राउड फंडिंग से इंडीगोगो पर बनी नॉन-फिक्शन फिल्म बनाने में सफल रहे हैं । हमें उम्मीद है कि रूटिंग फॉर रूना से बर्थ डिफेक्ट के खिलाफ जंग की शुरुआत होगी।'

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CSM कमर्शियल कार्य भी करता है। डॉक्यूमेंट्री, एड और वेब के लिए शूटिंग करते हुए, सिनेमेटिक टेक्निक के साथ प्रयोग करने के बहुत अवसर मिलते हैं।

CSM का भविष्य?

‘हम सावर्जनिक जीवन में एड की कैम्पेन चलाने वाले हैं और पहला मिशन ब्लड डोनेशन का है। हम यह साबित करना चाहते हैं कि फ़िल्में वाकई में दुनिया बदल सकती है।’

‘हम स्टार्ट-अप के लिए कुछ वेब विडियो और प्रमोशनल विडियो बनाने के कार्य से भी जुड़े हैं। इसके लिए हमारी ऊर्जा का स्तर, जुनून उसी तरह का है।