जब दौलताबाद के क़िले में आंबेडकर के छूने से पानी भी अछूत हो गया !!
एक बूढ़ा मुसलमान सफेद दाढ़ी लहराते हुए पीछे से चिल्लाते हुए आया, “थेड़ (अछूत) तुमने टैंक का पानी गंदा कर दिया.”
यह 1934 की बात है, दलित तबके से आने वाले आंदोलन के मेरे कुछ साथियों ने मुझे साथ घूमने चलने के लिए कहा. मैं तैयार हो गया. ये तय हुआ कि हमारी योजना में कम से कम वेरूल की बौद्ध गुफाएँ शामिल हों. यह तय किया गया कि पहले मैं नासिक जाऊँगा. वहाँ पर बाकि लोग मेरे साथ हो लेंगे. वेरूल जाने के बाद हमें औरंगाबाद जाना था. औरंगाबाद हैदराबाद का मुस्लिम राज्य था. यह हैदराबाद महामहिम निजाम के इलाके में आता था.
औरंगाबाद के रास्ते में पहले हमें दौलताबाद नाम के कस्बे से गुजरना था. यह हैदराबाद राज्य का हिस्सा था. दौलताबाद एक ऐतिहासिक स्थान है और एक समय में यह प्रसिद्ध हिंदू राजा रामदेव राय की राजधानी थी. दौलताबाद का किला प्राचीन ऐतिहासिक इमारत है. ऐसे में कोई भी यात्री उसे देखने का मौका नहीं छोड़ता. इसी तरह हमारी पार्टी के लोगों ने भी अपने कार्यक्रम में किले को देखना शामिल कर लिया.
हमने कुछ बस और यात्री कार किराए पर ली . हम लोग तकरीबन तीस लोग थे. हमने नासिक से येवला तक की यात्रा की. येवला औरंगाबाद के रास्ते में पड़ता है. हमारी यात्रा की घोषणा नहीं की गई थी. जाने- बूझे तरीके से चुपचाप योजना बनी थी. हम कोई बवाल नहीं खड़ा करना चाहते थे और उन परेशानियों से बचना चाहते थे, जो एक अछूत को इस देश के दूसरे हिस्सों में उठानी पड़ती हैं. हमने अपने लोगों को भी जिन जगहों पर हमें रुकना था, वही जगहें बताई थी. इसी के चलते निजाम राज्य के कई गाँवों से गुजरने के दौरान हमारे कोई लोग मिलने नहीं आए.
दौलताबाद में निश्चित ही अलग हुआ. वहाँ हमारे लोगों को पता था कि हम लोग आ रहे हैं. वो कस्बे के मुहाने पर इकट्ठा होकर हमारा इंतजार कर रहे थे. उन्होंने हमें उतरकर चाय-नाश्ते के लिए कहा और दौलताबाद किला देखने का तय किया गया. हम उनके प्रस्ताव पर सहमत नहीं हुए. हमें चाय पीने का बहुत मन था. लेकिन हम दौलताबाद किले को शाम होने से पहले ठीक से देखना चाहते थे. इसलिए हम लोग किले के लिए निकल पड़े और अपने लोगों से कहा कि वापसी में चाय पीएँगे. हमने ड्राइवर को चलने के लिए कहा और कुछ मिनटों में हम किले के फाटक पर थे.
ये रमजान का महीना था जिसमें मुसलामान व्रत रखते हैं. फाटक के ठीक बाहर एक छोटा टैंक पानी से लबालब भरा था. उसके किनारे पत्थर का रास्ता भी बना था. यात्रा के दौरान हमारे चेहरे, शरीर, कपड़े धूल से भर गए थे. हम सब को हाथ-मुँह धोने का मन हुआ. बिना कुछ खास सोचे, हमारी पार्टी के कुछ सदस्यों ने अपने पत्थर वाले किनारे पर खड़े होकर हाथ-मुँह धोया. इसके बाद हम फाटक से किले के अंदर गए. वहाँ हथियारबंद सैनिक खड़े थे. उन्होंने बड़ा सा फाटक खोला और हमें सीधे आने दिया.
हमने सुरक्षा सैनिकों से भीतर आने के तरीके के बारे में पूछा था कि किले के भीतर कैसे जाएँ. इसी दौरान एक बूढ़ा मुसलमान सफेद दाढ़ी लहराते हुए पीछे से चिल्लाते हुए आया, “थेड़ (अछूत) तुमने टैंक का पानी गंदा कर दिया.”
जल्दी ही कई जवान और बूढ़े मुसलमान जो आसपास थे, उनमें शामिल हो गए और हमें गालियाँ देने लगे, “थेड़ों का दिमाग खराब हो गया है. थेड़ों को अपना धर्म भूल गया है (कि उनकी औकात क्या है), थेड़ों को सबक सिखाने की जरूरत है.” उन्होंने डराने वाला रवैया अख्तियार कर लिया.
हमने बताया कि हम लोग बाहर से आए हैं और स्थानीय नियम नहीं जानते हैं. उन्होंने अपना गुस्सा स्थानीय अछूत लोगों पर निकालना शुरू कर दिया जो उस वक्त तक फाटक पर आ गए थे.
“तुम लोगों ने इन लोगों को क्यों नहीं बताया कि ये टैंक अछूत इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं."
ये सवाल वो लोग उनसे लगातार पूछने लगे. बेचारे लोग! ये तो जब हम टैंक के पास थे, तब तो वहाँ थे ही नहीं. यह पूरी तरह से हमारी गलती थी क्योंकि हमने किसी से पूछा भी नहीं था . स्थानीय अछूत लोगों ने विरोध जताया कि उन्हें नहीं पता था.
लेकिन मुसलमान लोग हमारी बात सुनने को तैयार नहीं थे. वे हमें और उनको गाली देते जा रहे थे. वो इतनी खराब गालियाँ दे रहे थे कि हम भी बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे. वहाँ दंगे जैसे हालात बन गए थे और हत्या भी हो सकती थी. लेकिन हमें किसी भी तरह खुद पर नियंत्रण रखना था. हम ऐसा कोई आपराधिक मामला नहीं बनाना चाहते थे, जो हमारी यात्रा को अजीब तरीके से खत्म कर दे.
भीड़ में से एक मुसलमान नौजवान लगातार बोले जा रहा था कि सबको अपना धर्म बताना है. इसका मतलब कि जो अछूत है वो टैंक से पानी नहीं ले सकता. मेरा धैर्य खत्म हो गया. मैंने थोड़े गुस्से में पूछा, “क्या तुमको तुम्हारा धर्म यही सिखाता है. क्या तुम किसी अछूत को पानी लेने से रोक दोगे अगर वह मुसलमान बन जाए. "
इन सीधे सवालों से मुसलमानों पर कुछ असर होता हुआ दिखा. उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया और चुपचाप खड़े रहे.
सुरक्षा सैनिक की ओर मुड़ते हुए मैंने फिर से गुस्से में कहा, “क्या हम इस किले में जा सकते हैं या नहीं. हमें बताओ और अगर हम नहीं जा सकते तो हम यहाँ रुकना नहीं चाहते.”
सुरक्षा सैनिक ने मेरा नाम पूछा. मैंने एक कागज पर अपना नाम लिखकर दिया. वह उसे सुपरिटेंडेंट के पास भीतर ले गया और फिर बाहर आया. हमें बताया गया कि हम किले में जा सकते हैं लेकिन कहीं भी किले के भीतर पानी नहीं छू सकते हैं. और साथ में एक हथियार से लैस सैनिक भी भेजा गया ताकि वो देख सके कि हम उस आदेश का उल्लंघन तो नहीं कर रहे हैं.
पहले मैंने एक उदाहरण दिया था कि कैसे एक अछूत हिंदू पारसी के लिए भी अछूत होता है. जबकि यह उदाहरण दिखाता है कि कैसे एक अछूत हिंदू मुसलमान के लिए भी अछूत होता है.
(बीआर आंबेडकर का यह संस्मरण उनकी पुस्तक ‘वेटिंग फॉर वीजा’ से. अनुवाद- सविता पाठक.)
Edited by Manisha Pandey