अमर्त्य सेन जन्मदिवस: वह शख्सियत जिन्होंने दी थी आर्थिक असमानता को मिटाने की सबसे अलग थ्योरी
वर्ष 1943 में जब द्वितीय विश्वयुद्ध अपने चरम पर था, तब बंगाल में भारी अकाल (1943 Bengal famine) पड़ा था. बंगाल (मौजूदा बांग्लादेश, भारत का पश्चिम बंगाल, बिहार और उड़ीसा) ने अकाल का वो भयानक दौर देखा था जिसमें, ब्रिटिश इतिहासकारों के अनुमानों के अनुसार 15 लाख लोग मारे गए थे जबकि भारतीय इतिहासकार यह संख्या 60 लाख तक बताते हैं.
माना जाता है कि उस वक्त अकाल की वजह अनाज के उत्पादन का घटना था, जबकि बंगाल से लगातार अनाज का निर्यात हो रहा था. कुछ लोग बर्मा (मौजूदा म्यांमार) पर जापान के आक्रमण को भी इसकी वजह मानते हैं. कहा जाता है कि जापान के हमले के चलते बर्मा से भारत में चावल की सप्लाई अंग्रेजों ने रोक लगा दी थी.
आज़ादी के 4 साल पहले बंगाल में अनाज की पैदावार बहुत अच्छी हुई थी, लेकिन अंग्रेजों ने मुनाफे के लिए भारी मात्रा में अनाज ब्रिटेन भेजना शुरू कर दिया और इसी के चलते बंगाल में अनाज की कमी हुई. इसके लिए ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ज़िम्मेदार थे.
इस भयावह अकाल के दौरान ढाका में एक-एक दाने के लिए गिड़गिड़ाते, भूख से दम तोड़ते लोगों को देखा था 11 साल के अमर्त्य सेन (Amartya Sen) ने. 1943 के बंगाल की सड़कों पर भूख से हड्डी हड्डी हुए लोग सड़कों पर दम तोड़ रहे थे. इस घटना ने उनके मन पर गहरी छाप छोडी थी.
अमर्त्य सेन ने विश्व के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों से पढ़ाई की और वहां पढ़ाया भी. यह कोई संयोग नहीं है अमर्त्य सेन की रुचि कल्याणपरक अर्थशास्त्र (Welfare Economics) विषय में थी.
उनका मानना था :
"अर्थशास्त्र का सीधा संबंध समाज के निर्धन और उपेक्षित लोगों के सुधार से है."
सेन एक विश्वप्रसिद्ध अर्थशास्त्री बने. निर्धनता को ख़त्म करने में राज्य की भूमिका, सामाजिक चयन थियरी, आर्थिक और सामाजिक न्याय, अकाल के आर्थिक थियरी और विकासशील देशों के लोग के कल्याण के नापजोख के इंडेक्स के क्षेत्र में काम किया. अर्थशास्त्र में इनके योगदान के लिए साल 1998 में अमर्त्य सेन को नोबल पुरस्कार (Nobel Prize in economics) से सम्मानित किया गया. ये प्रतिष्ठित पुरस्कार जीतने वाले पहले एशियाई नागरिक बने थे. इसके अगले साल 1999 में उनको भारत रत्न (Bharat Ratna) से सम्मनित किया गया. सेन को वर्ष 2011 के लिए यूएस नेशनल ह्यूमेनिटिज मैडल (US National Humanities Medal) के लिए चुना गया.
'इक्वलिटी ऑफ़ व्हाट'?
'डेवलपमेंट इकोनॉमिक्स' (Development Economics) के क्षेत्र में अमर्त्य सेन के कार्यों ने 'संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम' (United Nations Development Program) के 'मानव विकास रिपोर्ट' के प्रतिपादन में विशेष प्रभाव डाला. 'संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम' की 'मानव विकास रिपोर्ट' एक वार्षिक रिपोर्ट है. जो विभिन प्रकार के सामाजिक और आर्थिक सूचकों के आधार पर विश्व के देशों को रैंक प्रदान करती है. डेवलपमेंट इकोनॉमिक्स और सामाजिक सूचकों में अमर्त्य सेन का सबसे महत्वपूर्ण और क्रन्तिकारी योगदान है. 'कैपबिलिटी' (Capability Approach) का सिद्धांत, जो उन्होंने अपने लेख 'इक्वलिटी ऑफ़ व्हाट' ('Equality of What') में प्रतिपादित किया. अमर्त्य सेन ने अपने लेखों और शोध के माध्यम से गरीबी मापने के ऐसे तरीके विकसित किये जिससे गरीबों की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए उपयोगी जानकारी उत्पन्न किये गए. सेन के अनुसार शिक्षा और जन चिकित्सा सुविधाओं में सुधार के बिना आर्थिक विकास संभव नहीं है. 2009 में अमर्त्य सेन ने 'द आईडिया ऑफ़ जस्टिस' (The Idea of Justice) नामक पुस्तक प्रकाशित की जिसके द्वारा उन्होंने अपना 'न्याय का सिद्धांत' प्रतिपादित किया.
गरीबी और भूख जैसे विषयों पर महारत हासिल रखने वाले सेन ने 1943 के बंगाल के अकाल पर कहा था कि 1943 में अनाज के उत्पादन में कोई खास कमी नहीं आई थी, बल्कि 1941 की तुलना में उत्पादन पहले से ज्यादा था.
सेन का अकादमिक सफ़र बहुत ही वृहत और समृद्ध रहा है.
अमर्त्य सेन ने अपना शैक्षणिक जीवन जादवपुर विश्वविद्यालय में एक शिक्षक और शोध छात्र के तौर पर प्रारम्भ किया 1960-61 के दौरान वे अमेरिका के मेसाचुसेट्स इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी' में विजिटिंग प्रोफेसर रहे.
यू-सी बर्कले और कॉर्नेल में भी वे विजिटिंग प्रोफेसर रहे.
1963 और 1971 के मध्य उन्होंने 'डेल्ही स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स' में अध्यापन कार्य किया. इस दौरान वे जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय, भारतीय सांख्यिकी संस्थान सेण्टर फॉर डेवलपमेंट स्टडीज, गोखले इंस्टिट्यूट ऑफ़ पॉलिटिक्स एंड इकोनॉमिक्स और सेण्टर फॉर स्टडीज इन सोशल साइंसेज जैसे प्रतिष्ठित भारतीय शैक्षणिक संस्थानों से भी जुड़े रहे.
1972 में वे 'लन्दन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स' चले गए और 1977 तक वहां रहे. 1977-86 के मध्य उन्होंने ऑक्सफ़ोर्ड विश्व्विद्यालय में पढाया. 1987 में वे हार्वर्ड गए.
वे नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति भी रह चुके हैं.
उन्होंने निम्नलिखीत किताबें भी लिखी हैं:
'पावर्टी एंड फेमाइंस' (1981) 'ऑन एथिक्स एंड इकोनोमिक्स' (1987) 'कोमोडिटीज़ एंड केपेबिलिटीज़' (1987) 'हंगर एंड पब्लिक एक्शन' (1989) 'इनइक्वालिटी रीएक्सामिंड' (1992) 'ऑन इकोनोमिक इनइक्वालिटी' (1997) 'डेवलपमेंट एज़ फ़्रीडम' (1999) 'इंडिया: डेवलपमेंट एंड पार्टीसीपेशन' (2002) 'द आर्गयुमेंटेंटिव इंडियन' (2005) 'आइडेंटिटी एंड वायलेन्स' (2006).