Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
Youtstory

Brands

Resources

Stories

General

In-Depth

Announcement

Reports

News

Funding

Startup Sectors

Women in tech

Sportstech

Agritech

E-Commerce

Education

Lifestyle

Entertainment

Art & Culture

Travel & Leisure

Curtain Raiser

Wine and Food

YSTV

ADVERTISEMENT
Advertise with us

'अप्रवासी दिवस': भारतीय मज़दूरों द्वारा मॉरीशस के 'निर्माण' की कहानी

'अप्रवासी दिवस': भारतीय मज़दूरों द्वारा मॉरीशस के 'निर्माण' की कहानी

Wednesday November 02, 2022 , 7 min Read

सन 1833 में ब्रिटेन ने ‘गुलामी’ प्रथा ख़त्म की. लेकिन अंग्रेजों का शोषण ख़त्म नहीं हुआ था. सन् 1834 से अंग्रेजों ने ‘गिरमिटिया’ प्रथा शुरू की. अपनी उपनिवेशवादी इरादों के साथ अंग्रेजों ने अफ्रीका, फिजी, मॉरीशस, सूरीनाम, त्रिनिडाड जैसे देशों में अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए अंग्रेजों ने अविभाजित भारत से मजदूरों को गुलाम बनाकर इन देशों में भेजना शुरू किया.

‘गुलाम’ और ‘गिरमिट’ में फ़र्क

ये गुलामी कुछ अलग थी. इसके तहत भारतीय मज़दूरों को उपनिवेश वाले तमाम देशों के शुगर प्लान्टेशन (गन्ना खेत) पर काम करने के लिए एक निर्धारित अवधि तक (प्राय: पाँच से दस साल) काम करने के लिए एक अनुबन्ध (agreement) कराया जाता था. इन लोगों को ‘एग्रीमेंट पर लाया गया मजदूर’ कहा गया. ‘एग्रीमेंट’ शब्द आगे चलकर ‘गिरमिट’ और फिर ‘गिरमिटिया’ शब्द में बदल गया. गिरमिटिया ‘एग्रीमेंट’ का अपभ्रंश है.


गुलाम पैसा चुकाने पर भी गुलामी से मुक्त नहीं हो सकता था, लेकिन गिरमिटियों की आज़ादी ऐसी थी कि वे पांच साल बाद छूट तो सकते थे, लेकिन उनके पास वापस भारत लौटने को पैसे नहीं होते थे. उनके पास वहां रूकने के अलावा और कोई चारा नहीं होता था. और अधिकाँश के साथ यही हुआ.

‘गिरमिटिया’ होने का अर्थ

‘गिरमिट’ शब्द एक दुःख भरा शब्द है. ‘गिरमिट’ मतलब हांड-तोड़ मेहनत, पर कम मजदूरी.


सूरीनाम के राजमोहन इस दुःख को शब्द देते हुए लिखते हैं:


"...है अल्बत मजूरी, बाकी खड़ा है धन कुछ दुरी

गांव अब का पठैये, कैसन मुंह देसवा दिखैये

खाली झोरी बांधे वापस, गांव अब कैसे जाइये

कैसे भला अब चली,

दुई मुट्ठी एक दिन के मजूरी

कैसे भला अब चली.”


आमतौर पर गिरमिटिया चाहे औरत हो या मर्द उसे विवाह करने की छूट नहीं होती थी. यदि कुछ गिरमिटिया विवाह करते भी थे तो भी उन पर गुलामी वाले नियम लागू होते थे. जैसे औरत किसी को बेची जा सकती थी और बच्चे किसी और को बेचे जा सकते थे. गिरमिटियों (पुरुषों) के साथ चालीस फीसदी औरतें जाती थीं, युवा औरतों को अंग्रेज मालिक रख लेते थे. आकर्षण खत्म होने पर यह औरतें मजदूरों को सौंप दी जाती थीं. गिरमिटियों की संतानें मालिकों की संपत्ति होती थीं. मालिक चाहे तो बच्चों से बड़ा होने पर अपने यहां काम कराएं या दूसरों को बेच दें. गिरमिटियों को केवल जीवित रहने लायक भोजन, वस्त्रादि दिये जाते थे. यह 12 से 18 घंटे तक प्रतिदिन कमरतोड़ मेहनत करते थे. अमानवीय परिस्थितियों में काम करते-करते सैकड़ों मज़दूर हर साल अकाल मौत मरते थे. इनके मालिकों के जुल्म की कहीं सुनवाई नहीं थी.


गिरमिटिया दस्तावेज कुछ और ही कहानी कहते हैं. एक ग़ुलाम देश के लोगों को अच्छी ज़िंदगी के सपने दिखा एक अनजान, अज्ञात देश में ले जाकर उनका शोषण करना गिरमिटिया प्रथा का सच है. सात समंदर पार अपनों से दूर, अपने वतन से दूर ये मज़दूर अपने साथ हो रहे सुलूक के खिलाफ कुछ भी करने में असमर्थ होते थे जिसका फायदा अंग्रेज़ उठाते थे. ये हर एक मजदूर की कहानी थी. रोते थे, बिलखते थे और फिर अपनी नियती मान स्थिर हो जाते थे. एग्रीमेंट की वजह से घर भी वापस नहीं आ पाते थे. अनपढ़, असंगठित और न्याय के विचार से शून्य ये कामगार मजदूर धनी अंग्रेज़ ठेकेदार के हाथ बंधुआ मज़दूरी करने को मजबूर थे.


ये सिलसिला कई सालों तक चलता रहा.


इन देशों को अपने खून-पसीने से बसाने वाले इन मजदूरों की पीढ़ी-दर-पीढ़ी वहां काम करने जाती रहीं. अपने दृढ़ संकल्प, कड़ी मेहनत और प्रतिबद्धता से बसाए गए ये देश इनकी मातृभूमि तो न थी, लेकिन इनकी कर्मभूमि ज़रूर रही. इसीलिये 'गिरमिट मुक्त' होने पर बहुतों ने उसी स्थान पर बस जाना पंसद किया. वे इन देशों में या तो स्वतंत्र मज़दूर बनकर या छोटे-मोटे व्यापारी बनकर जीविका कमाने लगे.


लेकिन इनका दुःख यहां ख़तम नहीं हुआ. ब्रिटिश उपनिवेश में प्रवासी भारतीयों की काफ़ी बड़ी संख्या हो गई. प्रवासी भारतीयों की संख्या जब बढ़ी और वे समृद्ध होने लगे तो उन उपनिवेशों में रहने वाले अंग्रेज़ उनसे ईर्ष्या करने लगे और उनके विरोधी बन गये.


अंग्रेजो मालिकों ने इस बात को भुला दिया कि प्रवासी भारतीयों के पुरखों को वे ही वहां लेकर आए थे और गिरमिटिया मज़दूरों की सेवाओं से भारी लाभ उठाया था. उन्होंने उन उपनिवेशों की समृद्धि में उतना ही योगदान दिया था, जितना वहां के गोरे निवासियों ने.

अब क्यूंकि वे अंग्रेज़ों की ग़ुलामी नहीं करना चाहते थे, तो उन्हें अवांछित व्यक्ति करार दिया गया. इस तरह गिरमिट प्रथा के कारण जातीय भेदभाव पर आधारित नयी समस्याएँ उठ खड़ी हुईं, जिनका अभी तक समाधान नहीं हो सका है.

गिरमिटिया प्रथा का अंत

बहरहाल, साल 1917 में इस प्रैक्टिस को निषिद्ध घोषित किया गया. इस क्रूर प्रथा के खिलाफ महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका से अभियान प्रारंभ किया. गोपाल कृष्ण गोखले ने इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल में मार्च 1912 में गिरमिटिया प्रथा समाप्त करने का प्रस्ताव रखा था. दिसंबर 1916 में कांग्रेस अधिवेशन में महात्मा गांधी ने भारत सुरक्षा और 'गिरमिट प्रथा अधिनियम' प्रस्ताव रखा. इसके बाद फरवरी 1917 में अहमदाबाद में गिरमिट प्रथा विरोधी एक विशाल सभा आयोजित की गयी, जिसमे सी.एफ. एंड्रयूज और हेनरी पोलाक ने इसके विरोध में भाषण दिया था. गिरमिट विरोधी अभियान जोर पकड़ता गया. मार्च 1917 में गिरमिट विरोधियों ने अंग्रेज सरकार को एक अल्टीमेटम दिया कि मई तक यह प्रथा समाप्त की जाए. लोगों के बढ़ते आक्रोश को देखते हुए 12 मार्च को ही सरकार ने अपने गजट में यह निषेधाज्ञा प्रकाशित कर दी कि भारत से बाहर के देशों को गिरमिट प्रथा के तहत मजदूर न भेजे जाएं.

मॉरीशस का 'निर्माण'

भारतीय मजदूर के साहस और परिश्रम को आज का मॉरीशस प्रमाणित करता है. मॉरीशस आज जो है, उसका बड़ा श्रेय वहां गए भारतीय मजदूरों को जाता है. उन्होंने अपनी मेहनत से इस देश के आर्थिक विकास में ऐतिहासिक योगदान दिया. आज मॉरीशस की आबादी में लगभग 60 फीसदी से अधीक भारतीय हैं. इनमें से आधे से ज्यादा करीब 52 फीसदी उत्तर भारत के लोग हैं, जिनके पूर्वज भोजपुरी बोलते थे. उत्तर भारतीय हिंदुओं की बड़ी आबादी के अलावा मॉरीशस में मुसलमान भी हैं. इनके अलावा थोड़े से लोग महाराष्ट्र, तमिलनाडु और आंध्रप्रदेश के भी हैं.


आज से करीब 188 साल पहले ‘एटलस’ नाम का जहाज 2 नवंबर 1834 को भारतीय मजदूरों को लेकर मॉरीशस पहुंचा था. एटलस से जो मजदूर मॉरीशस पहुंचे थे, उनमें 80 प्रतिशत तक बिहार से थे. मॉरीशस आने वाले गिरमिटिया अपने प्रशासनिक भू-भाग से ज्यादा भौगोलिक और सांस्कृतिक रूप से बिहार वासी के रूप में ही पहचाने जाते थे. गिरमिटिया मजदूर जब इस अज्ञात देश में आए तो अपने साथ अपनी भाषा, धर्म और संस्कृति को भी साथ ले गए और बड़े जतन से उसे सहेजकर पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाते गए जिसमें ‘बैठका’ की अहम भूमिका थी. ‘बैठका’ हर गांव में सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र था जो बाद में राजनीतिक गतिविधियों का भी केंद्र बना और मॉरीशस के स्वतंत्रता आंदोलन में उसकी अहम भूमिका रही.


1968 में जब मॉरीशस आज़ाद हुआ तो उसके प्रथम प्रधानमंत्री शिव सागर रामगुलाम महात्मा गांधी से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने मॉरीशस की आजादी की तारीख 12 मार्च 1968 चुनी. 12 मार्च वही तारीख थी जिस दिन गांधी ने दांडी यात्रा की शुरुआत की थी और इसी दिन मॉरीशस की स्वतंत्रता के साथ ही बिहारी जो मजदूर बनकर मॉरीशस गए थे, सत्ता के शिखर तक पहुंच गए. शिवसागर रामगुलाम को मॉरीशस में राष्ट्रपिता का दर्जा हासिल है.


2 नवम्बर 1835 को पहला जहाज ‘एटलस’ मॉरीशस के पोर्ट लुई पर रूका था. 2 नवंबर को आज भी वहां हर साल 'अप्रवासी दिवस' के रूप में मनाया जाता है और जिस स्थान पर भारतीय मजदूरों का पहला जत्था उतरा था, अप्रवासी घाट की वह सीढियां स्मृति स्थल के तौर पर आज भी मौजूद हैं. हिंद महासागर तट पर स्थित पोर्ट लुई का अप्रवासी घाट भारतीयों की अनकही पीड़ा और शोषण के उस उपनिवेशवाद के युग की याद दिलाता है जो हमारे पूर्वजों ने यहां भोगा.


विषम परिस्थतियों में लोग गिरमिटिया मज़दूर बने, लेकिन ये उन मजदूरों का जीवट था कि वे विपरीत परिस्थितियों में जिंदा रहे और काम करते रहे. गिरमिट प्रथा के अंतर्गत भारतीय मज़दूर हिन्द महासागर में स्थित मॉरीशस, प्रशांत महासागरों में स्थित फ़िजी, मलय प्रायद्वीप तथा द्वीपपुंज, श्रीलंका, केनिया, टांगानायका, उगांडा, दक्षिण अफ़्रीका, ट्रनिडाड, जमायका और ब्रिटिश गायना गये. आज इनमें से कई देशों के राष्ट्र प्रमुख तक भारतीय मूल के हैं.