भाव, भाषा और अभिव्यक्ति के अद्भुत चितेरे मुंशीप्रेमचंद
अधिकांश डाक्टर अपने मरीजों को अनावश्यक रूप से दवा खिला कर दवा कंपनियों को फायदा पहुंचाने का काम करते हैं। बड़े-बड़े नर्सिंग होम में मरीजों को अनावश्यक रूप से वेंटिलेटर पर रखा जाता है। जबकि वास्तविक रूप से मरीज मृतप्राय होता है। प्रेमचंद का लेखन उनके इस कथन के पूर्ण अनुकूल है कि 'साहित्यकार देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है।
प्रेमचंद को जैसे परकाया प्रवेश में महारत हासिल थी यही कारण है कि उनकी कहानियां दलितों और स्त्रियों के दु:खों को उजागर ही नहीं करतीं, बल्कि उसे मार्मिक भी बना देती हैं।
प्रेमचंद का कहानी संसार भारतीय समाज की विसंगतियों पर प्रहार करता है, उसकी जड़ता को तोड़ता है और नयी राह सुझाता है। आज भी हिन्दी कहानी प्रेमचंद का आधार लेती है। हिन्दी कथा जगत प्रेमचंद का हमेशा ऋणी रहेगा।
अद्भुत रचनाधर्मिता के स्वामी और भावों को बहुआयामी आवृतियों में अभिव्यक्ति करने का शिल्प धारण करने वाले, मानव मन के पारखी और उपन्यास सम्राट की पदवी से सम्मानित मुंशी प्रेमचंद ने उत्तर प्रदेश के लमही गांव में 31 जुलाई 1880 से अपनी जीवन यात्रा प्रारम्भ की। ज्ञात हो कि प्रेमचंद ऐसे कथाकार हैं जिनकी रचनाओं के स्पर्श से कोई भी अछूता नहीं है। नई पुरानी, वर्तमान सभी पीढिय़ों ने उनकी कहानियां पढ़ कर अपनी साहित्यिक समझ विकसित की है। उनकी कहानियों में आर्थिक असमानता मनुष्य के भीतर उपजते ईष्र्या-द्वेष, बेईमानी, झूठ-फरेब, मिथ्या अभियोग, झूठे आरोप, व्याभिचार, वेश्यावृत्ति जैसी कुरीतियों का सिर्फ चित्रण नहीं है बल्कि अधिकांश कहानियां एक गहरी सीख भी देती हैं।
प्रेमचंद भारतीय समाज में शोषण का दंश झेलते हर व्यक्ति की पीढ़ा को आत्मसात करके उसे अपनी कहानियों में ढालते हैं। इसलिए वे स्त्रियों व दलितों की पीड़ा को स्वर देते हैं। उनकी कहानियां मनुष्य के स्वभाव की एक-एक परत खोलती चलती है। प्रेमचंद ने लगभग 300 कहानियां लिखी हैं। उनकी कहानियां भारतीय समाज की विसंगतियों को उजागर करती हैं। प्रेमचंद के उपन्यासों का मूल कथ्य भारतीय ग्रामीण जीवन था। प्रेमचंद ने हिंदी उपन्यास को जो ऊंचाई प्रदान की, वह बाद के उपन्यासकारों के लिए एक चुनौती बनी रही। प्रेमचंद के उपन्यास भारत और दुनिया की कई भाषाओं में अनुदित हुए, खासकर उनका सर्वाधिक चर्चित उपन्यास गोदान।
आज भी हिंदी साहित्य के सबसे बड़े और पढ़े जाने वाले लेखक मुंशी प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं, खासकर कहानियों व उपन्यासों में भारत के वंचित, शोषित, दलित, पिछड़े और विशेष रूप से देश के गरीब किसानों के जीवन संघर्ष और त्रासदियों को सामने लाया है। उनका उपन्यास 'गोदान' देश के किसानी जीवन और उसके संघर्ष का सबसे मार्मिक और संवेदनशील महाआख्यान है। गोदान का हिंदी साहित्य ही नहीं, विश्व साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान है। इसमें प्रेमचंद की साहित्य संबंधी विचारधारा 'आदर्शोन्मुख यथार्थवाद' से 'आलोचनात्मक यथार्थवाद' तक की पूर्णता प्राप्त करती है। एक सामान्य किसान को पूरे उपन्यास का नायक बनाना भारतीय उपन्यास परंपरा की दिशा बदल देने जैसा था।
किसान जीवन पर अपने पिछले उपन्यासों 'प्रेमाश्रम' और 'कर्मभूमि' में प्रेमंचद यथार्थ की प्रस्तुति करते-करते उपन्यास के अंत तक आदर्श का दामन थाम लेते हैं। लेकिन गोदान का कारुणिक अंत इस बात का गवाह है कि तब तक प्रेमचंद का खोखले आदर्शवाद से मोहभंग हो चुका था। यह उनकी आखिरी दौर की कहानियों में भी देखा जा सकता है। यह विडंबना ही है कि आजादी के पहले से ही प्रेमचंद जहां, देश के किसानों की व्यथा कथा, उनके जीवन संघर्ष को अपनी रचनाओं में जगह दे रहे थे, वहीं आज किसानों के हालात में सुधार की स्थिति यह है कि वह आत्महत्या को मजबूर है। निश्चित ही आज प्रेमचंद होते तो किसानों की स्थिति देखकर बेहद दु:खी होते। उनका मानना था कि ये सारी बुराइयां महाजनी सभ्यता की देन हैं जहां धन का ऐसा असमान बंटवारा होगा वहां ये बुराइयां तो होंगी ही। महाजनी सभ्यता यह मानती है कि जो दलित हैं, शोषित हैं, जो सदियों से गुलाम रहे हैं वे उसी स्थिति में उसे अपनी नियति मानकर संतुष्ट रहे।
प्रेमचंद को जैसे परकाया प्रवेश में महारत हासिल थी यही कारण है कि उनकी कहानियां दलितों और स्त्रियों के दु:खों को उजागर ही नहीं करतीं, बल्कि उसे मार्मिक भी बना देती हैं। वह लिखते हैं कि 'जब पुरुष में नारी के गुण आ जाते हैं तो वो महात्मा बन जाता है और अगर नारी में पुरुष के गुण आ जाये तो वो कुलटा बन जाती है।' गोदान में उद्धृत ये पंक्तियां प्रेमचंद का नारी को देखने का संपूर्ण नजरिया प्रस्तुत करती हैं। आज हिन्दुस्तान नारी को सशक्त बनाने के लिये जिस क्रांतिकारी दौर से गुजर रहा है उस नारी को प्रेमचंद बहुत पहले ही सशक्त साबित कर चुके हैं। प्रेमचंद के साहित्य की स्त्री 'कर्मभूमि' में उतरकर पुरुष के कांधे से कांधा मिलाकर देश की आजादी के लिये संघर्ष करती है, उसे 'गबन' कर लाये पैसों से अपने पति की भेंट में मिला चंद्रहार स्वीकृत नहीं है, वो एक गरीब किसान के दुख-दर्द की सहभागी बन अपना पतिव्रता धर्म भी निभाती है, वो 'बड़े घर की बेटी' भी है और उस सारे पुरुष वर्चस्व वाले परिवार में मानो अकेली मानवीय गुणों से संयुक्त है, वो मजबूरियों में पड़े अपने परिवार के लिये समाज के सामंत वर्ग से बिना डरे 'ठाकुर के कुएं' पे जाकर तत्कालिक व्यवस्था को चुनौती देती है और कभी एक मां बनकर अपने बच्चे के लिये खुद की जान भी लुटा देती है।
नारी के मातृत्व को प्रेमचंद ने जिस तरह से प्रस्तुत किया है वो कहीं ओर विरले ही देखने को मिलता है। मातृत्व के वर्णन में कई बार उनकी अति भावुकता की झलक हम देख सकते हैं उसकी वजह शायद ये हो सकती है कि प्रेमचंद ने बचपन में ही अपनी मां को खो दिया था और मां के प्यार की कसक ताउम्र उन्हें सालती रही
स्त्री के सतीत्व को प्रेमचंद ने भरपूर सम्मान दिया है और उसकी पवित्रता पे प्रश्नचिन्ह उठाने वालों के लिये वो अपने उपन्यास 'प्रतिज्ञा' में लिखते हैं 'स्त्री हारे दर्जे ही दुराचारिणी होती है, अपने सतीत्व से ज्यादा उसे संसार की किसी वस्तु पर गर्व नहीं होता और न ही वो किसी चीज को इतना मूल्यवान समझती है।' ये पंक्तियां आज के उन तमाम बौद्धिक व्यायाम करने वाले तथाकथित आधुनिक लोगों पर तमाचा है जो स्त्री की वासनात्मकता को अनायास ही स्वर देकर उसकी भोग-इच्छा को साबित करना चाहते हैं और उसे सही ठहराकर नारी को सशक्त साबित करने का बेहूदा कृत्य करते हैं। एक अन्य जगह प्रेमचंद लिखते हैं 'नारी स्नेह चाहती है, अधिकार और परीक्षा नहीं।' उसकी स्नेह की चाहत को कतई अन्यथा नहीं लेना चाहिये। 'गोदान' में वो लिखते हैं- 'नारी मात्र माता है और इसके उपरान्त वो जो कुछ है वह सब मातृत्व का उपक्रम मात्र। मातृत्व विश्व की सबसे बड़ी साधना, सबसे बड़ी तपस्या, सबसे बड़ा त्याग और सबसे महान् विजय है।' इस मातृत्व के नैसर्गिक गुणों के कारण ही प्रेमचंद नारी को दया, करुणा और सेवा की महान मूर्ति साबित करते हैं। सेवाभाव की महत्ता का वर्णन करते हुए वो लिखते हैं- 'सेवा ही वह सीमेंट है, जो दम्पत्ति को जीवन पर्यंत प्रेम और साहचर्य में जोड़े रख सकता है, जिस पर बड़े-बड़े आघातों का कोई असर नहीं होता और नारी ही सेवा का पर्याय है।' नारी की उत्कृष्टतम दया का वर्णन करते हुए वे अपनी कथा में लिखते हैं 'बड़े घर की बेटी,' आनन्दी, अपने देवर से अप्रसन्न हुई, क्योंकि वह गंवार उससे कर्कशता से बोलता है और उस पर खींचकर खड़ाऊं फेंकता है। जब उसे अनुभव होता है कि उनका परिवार टूट रहा है और उसका देवर परिताप से भरा है, तब वह उसे क्षमा कर देती है और अपने पति को शांत करती है।'
प्रेम और नारी छवि के महत्वपूर्ण प्रसंग पर भी प्रेमचंद की दृष्टि गौर करने लायक है। उन्होंने नारी में प्रेम से ज्यादा श्रद्धा को तवज्जो दी, श्रद्धा को ही महान् साबित किया और उनकी नजर में प्रेम, हमेशा दोयम दर्जे का ही रहा। वे लिखते हैं- 'प्रेम सीधी-सादी गऊ नहीं, खूंखार शेर है, जो अपने शिकार पर किसी की दृष्टि भी नहीं पडऩे देता। श्रद्धा तो अपने को मिटा डालती है और अपने मिट जाने को ही अपना भगवान बना लेती है, प्रेम अधिकार करना चाहता है।' आज के दौर में प्रचलित अय्याशियों का प्रतीक बना वेलेंटाइन डे नुमा प्रेम, प्रेमचंद की दृष्टि में कतई सम्मान का प्रतीक नहीं है। आज के भोगप्रधान विश्व में प्रेम अक्सर हिंसा का रूप अख्तियार कर लेता है। एक असफल प्रेम से पैदा हुई सनक का ही फल है कि लड़कियों को हत्या और तेजाब फेंकने जैसी दुर्दांत घटनाओं का शिकार होना पड़ता है। प्रेमचंद साहित्य में नारी की यौन-शुचिता एवं पवित्रता के अनेक प्रसंग मिलते हैं। यौन-शुचिता का यह प्रश्न नारी के सभी रूपों से जुड़ा है, चाहे वे कुमारी हों, प्रेमिका हों, पत्नी हों, विधवा हों, या कोई और रूप है। नारी जहां-जहां है, वहां-वहां जब नारी के शील-हरण का प्रसंग जन्म लेता है तो प्रतिक्रियाओं के कई रूप होते हैं।
प्रेमचंद ने जीवन और कालखंड की सच्चाई को पन्ने पर उतारा है। 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने कहा कि लेखक स्वभाव से प्रगतिशील होता है और जो ऐसा नहीं है वह लेखक नहीं है। प्रेमचंद हिन्दी साहित्य के युग प्रवर्तक हैं। उन्होंने हिन्दी कहानी में आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की एक नई परंपरा शुरू की।
प्रेमचंद की प्रासांगिकता सर्वकालिक कैसे है, यह यूं सिद्ध होता है कि उन्होंने 1919 में सवाल किया था, 'क्या यह शर्म की बात नहीं है कि जिस देश में नब्बे फीसद आबादी किसानों की हो उस देश में कोई किसान सभा, कोई किसानों की भलाई का आंदोलन, खेती का कोई विद्यालय, किसानों की भलाई का कोई व्यवस्थित प्रयत्न न हो। आपने सैकड़ों स्कूल और कॉलेज बनवाए, यूनिवर्सिटियां खोलीं और अनेक आंदोलन चलाए, मगर किसके लिए?' उनके इस सवाल में 'गरीब' किसान एक ठोस आकार ले लेता है। यह सवाल आज भी कायम है।
यही नहीं प्रेमचंद ने 1909 में पिछड़े इलाकों में अपने समय की आरंभिक शिक्षा का जो चित्र खींचा है, वह आज भी थोड़े फर्क से कई जगहों पर दिख सकता है, 'एक पेड़ के नीचे जिसके इधर-उधर कूड़ा-करकट पड़ा हुआ है और शायद वर्षों से झाड़ नहीं दी गई, एक फटे-पुराने टाट पर बीस-पच्चीस लड़के बैठे ऊंघ रहे हैं। सामने एक टूटी हुई कुर्सी और पुरानी मेज है। उस पर जनाब मास्टर साहब बैठे हुए हैं। लड़के झूम-झूम कर पहाड़े रटे जा रहे हैं। शायद किसी के बदन पर साबित कुर्ता न होगा।... हमारी आरंभिक शिक्षा के सुधार और उन्नति के लिए सबसे बड़ी जरूरत योग्य शिक्षकों की है।' आज शिक्षक की योग्यता महत्वपूर्ण नहीं है। वह और कुछ करे, पढ़ाता कम है। सिर्फ इतनी बात नहीं है। प्रेमचंद मध्यवर्ग की तरह-तरह से असलियत खोलते हैं, 'वह झूठे आडंबर और बनावट की जिंदगी का, इस व्यावसायिक और औद्योगिक प्रतियोगिता का इतना प्रेमी हो गया है कि उसकी बुद्धि में सरल जिंदगी का विचार आ ही नहीं सकता।...काश ये यूनीवर्सिटियां न खुली होतीं; काश आज उनकी ईंट से ईंट बज जाती, तो हमारे देश में द्रोहियों की इतनी संख्या न होती।... हमारा तजुर्बा तो यह है कि साक्षर होकर आदमी काइयां, बदनीयत, कानूनी और आलसी हो जाता है।' प्रेमचंद के कई पढ़े-लिखे कथा-चरित्र गरीब और वंचित लोगों के बीच सेवा के लिए सक्रिय होते हैं। वे खुदगर्ज नहीं, सामाजिक हैं। ये प्रेमचंद हैं, जो शिक्षा और चिकित्सा के अलावा सांस्कृतिक सुधार पर जोर देते हैं। वे मानसिकता बदलने के लिए कहते हैं। वे कट्टरवाद का विरोध करते हुए बड़े दुख से कहते हैं, 'अछूत, दलित, हिंदू, ईसाई, सिख, जमींदार, व्यापारी, किसान, स्त्री और न जाने कितने विशेषाधिकारों के लिए स्थान दिया जाएगा। राष्ट्र का अंत हो गया।... मुसलमान जिधर फायदा देखेंगे उधर जाएंगे। सभी दल अपनी-अपनी रक्षा करेंगे। राष्ट्र की रक्षा कौन करेगा?'
मुंशी प्रेमचंद की डाक्टरों की निष्ठुरता के सम्बन्ध में लिखी मन्त्र कहानी का कथानक आज भी प्रासांगिक है। वह निर्धन, वृद्ध पिता के मन के अहसास को शब्दाकार देते हुये कहते हैं कि 'सभ्य समाज इतना निर्मम, इतना कठोर होगा, इसकी अनुभूति उस पहले बार होती है।' वह बीज जो मन्त्र कहानी में था वह विशाल बरगद हो गया है। अधिकांश डाक्टर अपने मरीजों को अनावश्यक रूप से दवा खिला कर दवा कंपनियों को फायदा पहुंचाने का काम करते हैं। बड़े-बड़े नर्सिंग होम में मरीजों को अनावश्यक रूप से वेंटिलेटर पर रखा जाता है। जबकि वास्तविक रूप से मरीज मृतप्राय होता है।
प्रेमचंद का लेखन उनके इस कथन के पूर्ण अनुकूल है कि साहित्यकार देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है। प्रेमचंद का कहानी संसार भारतीय समाज की विसंगतियों पर प्रहार करता है, उसकी जड़ता को तोड़ता है और नई राह सुझाता है। आज भी हिन्दी कहानी प्रेमचंद का आधार लेती है। हिन्दी कथा जगत प्रेमचंद का हमेशा ऋणी रहेगा।