भाव ने भुला दिया संडे-मंडे-अंडे का जायका
जब ग्लोबल रेटिंग एजेंसी मूडीज ने 13 वर्ष बाद भारत की सार्वभौम रेटिंग सुधारकर बीएए-2 कर दी है मगर इधर बाजार का क्यों इतना हाल बेहाल हो रहा है। यह जमाखोरों की वजह से हो रहा है, या माजरा कुछ और है?
राग दरबारी सुनते-सुनते सबका मूड ऑफ होने लगा है। एक झटके में बाजार जेब निचोड़ ले रहा है और जानकारों की निगाहें कहीं और हैं, निशाना कहीं और, किसी भी कीमत पर खराब कीमत की सही वजह पर चुप्पी साधे रहना है।
देश की सब्जी मंडियों में 80 रुपये किलो टमाटर और प्याज 60 तक हो चुकी है। हर महीने कोई न कोई चीज महंगी होती जा रही है। जनता त्राहि-त्राहि कर रही है।
हाय-हाय रे, क्या संडे, क्या मंडे, यहां तो गूलर के फूल हुए जा रहे स्याह-सफेद अंडे। बात सिर्फ अंडे, आमिष-निरामिष की नहीं, बात कुछ और है, जो सूचना माध्यमों से निकलकर दूर तक खलबली मचाए हुए हैं, जायका ऐसा खराब हुआ पड़ा है कि संडे-मंडे-अंडे वाली तुकबंदी ही लोग भुला बैठे हैं। एक कविता की लाइन है- चिट्ठी में कुछ और था, दरअसल में कुछ और। मजाक वश नहीं, दिमाग तिलमिलाकर सोचने लगा है कि जब ग्लोबल रेटिंग एजेंसी मूडीज ने 13 वर्ष बाद भारत की सार्वभौम रेटिंग सुधारकर बीएए-2 कर दी है मगर इधर बाजार का क्यों इतना हाल बेहाल हो रहा है। यह जमाखोरों की वजह से हो रहा है, या माजरा कुछ और है!
सर्दियों में अंडे के दाम बढ़ते तो हैं, लेकिन इस जाड़े में अचानक एक दिन में भाव का आसमान छू जाना किसी बड़े खेल की ओर इशारा करता है, मीडिया हकीकत पर पर्दा डालने के लिए चाहे जितनी नौटंकी करे। अंडे के दाम चिकन के बराबर हो गए हैं। एक अंडा 7 रुपये में बिक रहा है। अंडा व्यापारियों का कहना है कि सर्दियों में जिंदा मुर्गियों की बिक्री कम हो जाती है। सवाल उठता है, सर्दी पहली बार आई है क्या और अचानक एक दिन में कौन सी बर्फबारी होने लगी है, गर्म-गर्म अंडे की तलब से दुनिया बेचैन हो उठी है। झूठ की भी एक हद होती है।
कीमतों की इस डकैती से हर खासोआम का दिमाग भन्ना उठा है। राग दरबारी सुनते-सुनते सबका मूड ऑफ होने लगा है। एक झटके में बाजार जेब निचोड़ ले रहा है और जानकारों की निगाहें कहीं और हैं, निशाना कहीं और, किसी भी कीमत पर खराब कीमत की सही वजह पर चुप्पी साधे रहना है। अब जरा उनकी सुनिए, नेशनल एग कॉओर्डिनेशन कमिटी (एनईसीसी) के मेंबर राजू भोसले ने दामों में भारी बढ़त का अहम कारण बताते हुए कहा है कि सब्जियों की कीमते भी काफी बढ़ी हुई है, इसलिए लोग इनके मुकाबले अंडे खाना ज्यादा पसंद करते हैं।
देश में अंडा जल्दी और भारी मात्रा में सप्लाई होता है। लोगों के पास आसानी से पहुंच जाने की वजह से भी ये लोगों की पहली पसंद बना हुआ है। तंदूरी मुर्गे के लिए लोगों को इंतजार करना पड़ता है, जबकि अंडे के साथ ऐसा कुछ नहीं है। तो जनाब उनसे पूछा जाना चाहिए कि ये सारे कर्मकांड एक साथ अचानक क्यों हो रहे हैं। सीधे सीधे इसके पीछे जमाखोरी और बाजार के भ्रष्टाचार का मामला है, और कुछ नहीं। जमाखोर तब भी शासन और सरकारों से बेखौफ रहे हैं, आज भी हैं। जनता तब भी घिरी रही है, आज भी।
जहां तक रेटिंग की बात है, रेटिंग सुधारने से निवेश के मामले में भारत इटली, स्पेन, बुल्गारिया और फिलीपींस जैसे देशों की श्रेणी में आ गया है। रेटिंग मामले में अब ब्रिक्स अर्थव्यवस्थाओं में भारत केवल चीन से पीछे है। चीन एए3 रेटिंग में है। एक मीडिया सूचना के मुताबिक इस माह से आगे महंगाई और बढ़ने की संभावना है। सब्जियों और क्रूड ऑइल के दाम में तेजी के चलते नवंबर में महंगाई 4 प्रतिशत का आंकड़ा पार कर सकती है। आज सब्जियों के भाव इतने ज्यादा बढ़ चुके हैं कि आम लोगों की पहुंच में नहीं रहे।
देश की सब्जी मंडियों में 80 रुपये किलो टमाटर और प्याज 60 तक हो चुकी है। हर महीने कोई न कोई चीज महंगी होती जा रही है। जनता त्राहि-त्राहि कर रही है। सर्दियों में बथुआ का अलग मजा है। बथुआ एक खरपतवार (घास) ही है, लेकिन इसकी तासीर गर्म होती है, इसलिए सर्दियों में लोग परांठा, कचौड़ी, पूड़ी, साग आदि बनाकर खाते हैं। कभी गरीब इसका इस्तेमाल करते थे, जब से इसकी खूबियां लोगों ने जानी तो मांग बढ़ गई। आजकल यह साग वीआईपी श्रेणी में आ गया है। वह भी अस्सी रुपए किलो तक बिक रहा है। जब देश में घास-फूस का ये भाव होगा तो रोटी-कपड़ा मकान की बातें सपनों की बात।
इस बीच नोबेल पुरस्कार विजेता अमेरिकी अर्थशास्त्री और रिचर्ड थेलर का मानना है कि नोटबंदी का कॉन्सेप्ट अच्छा था लेकिन उसे लागू करने में बड़ी चूकें हुईं। 2000 रुपये का नोट लाना समझ से परे है। इससे काला धन खत्म करना और देश को लेस कैश इकॉनमी बनाने जैसे उद्देश्य भी मुश्किल हो गए। फिलहाल, सरकारों की ओर से चेतावनियां दी जा रही हैं कि कई वस्तुओं पर जी.एस.टी. की दरों में भारी कटौती के बावजूद अगर कंपनियां उनके अधिकतम विक्रय मूल्य (एम.आर.पी.) को घटाने में ज्यादा समय लेती हैं तो उनके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। दुकानदार या कंपनियां यह दावा नहीं कर सकतीं कि स्टॉक खत्म होने से ऊंची कीमतें बरकरार रहेंगी। कंपनियां कीमतों में अंतर के लिए सरकार से इनपुट टैक्स क्रेडिट का दावा कर सकती हैं। तो इस महंगाई के हाहाकार में एक फंडा जीएसटी का भी घुसा पड़ा है।
देखिए, आने वाले दिनों में क्या नौबत बनती है। बाजार में एक औघड़ चाल यह भी फंगस फंसाए हुए है कि ऑटो कंपनियों को जीएसटी रिफंड नहीं मिलने से दिक्कत हो रही है। ये कंपनियां जुलाई से अब तक अपना रिफंड दावा नहीं कर सकी हैं और इस मद में उनका बकाया 1,000 करोड़ रुपए से पार जा चुका है। उद्योग से जुड़े लोगों का कहना है कि जीएसटी की अग्रिम भुगतान और इनपुट टैक्स क्रेडिट रिफंड दावा करने की मौजूदा प्रणाली ठीक से काम नहीं कर रही है। कंपनियों के लिए कार्यशील पूंजी की जरुरत बढ़ गई है और जब तक इन मुद्दों का समाधान नहीं हो जाता, तब तक वह एक्सपोर्ट को लेकर दोबारा विचार किया जाना चाहिए।
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