शब्दों में भी 'खरे' कवि-आलोचक विष्णु खरे
शीर्ष कवि-लेखक-पत्रकार-आलोचक विष्णु खरे जितनी पत्रकारिता, उससे बहुत अधिक उनकी मुख्यतः उपस्थिति और शीर्ष पहचान एक साहित्यकार के रूप में बनी हुई है। वह उपनाम से ही नहीं, अपने अभिमत, अपने विचारों में भी सौ फीसद 'खरे' होते हैं। इस नाते वह कई बार बड़े-बड़ों के झुंडों के निशाने पर भी आते रहते हैं। साहित्य अकादमी के पुरस्कार लौटाने का वाकया तथा विभूति नारायण राय का 'छिनाल' प्रकरण, ऐसे ही अप्रिय मौके रहे हैं।
जिन दिनो देश भर के कई एक नामचीन कवि-साहित्यकार हिंदी साहित्य अकादमी के पुरस्कार लौटा रहे थे, विष्णु खरे की एक गंभीर टिप्पणी मीडिया के माध्यम से सार्वजनिक होते ही खलबली सी मच गई।
देश के ख्यात कवि, पत्रकार और आलोचक विष्णु खरे का आज (9 फरवरी) जन्मदिन है। छिंदवाड़ा (म.प्र.) में जनमे विष्णु खरे इन्दौर के क्रिश्चियन कॉलेज से अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर हैं। अपनी हिंदी पत्रकारिता के शुरुआती दौर में वह कुछ समय तक वहीं के 'दैनिक इन्दौर' में उप सम्पादक रहे। बाद में वह नवभारत टाइम्स दिल्ली, लखनऊ और जयपुर में सम्पादक होने के अलावा टाइम्स ऑफ इण्डिया में वरिष्ठ सहायक सम्पादक रहे। इसके बाद उन्होंने अध्यापन की राह चुनी। जितनी पत्रकारिता, उससे बहुत अधिक उनकी मुख्यतः उपस्थिति और शीर्ष पहचान एक साहित्यकार के रूप में बनी हुई है। वह साहित्य अकादमी में उपसचिव, जवाहरलाल नेहरू स्मारक संग्रहालय तथा पुस्तकालय में दो वर्ष वरिष्ठ अध्येता भी रहे। साथ-साथ लगातार उनका मीडिया में भी गंभीर हस्तक्षेप बना रहा।
एक साहित्यकार के रूप में उनकी पहली पुस्तक टीएस इलियट के अनुवाद के रूप में ‘मरु प्रदेश और अन्य कविताएं’ प्रकाश में आई। उनका पहला काव्य संकलन था - ‘एक गैर रूमानी समय में’, जिसकी ज्यादातर कविताएं ‘विष्णु खरे की कविताएं’ में भी छपीं। उनकी आलोचना की मुख्य पुस्तकें रही हैं - ‘खुद अपनी आंख से’, ‘सबकी आवाज़ के पर्दे में’, ‘आलोचना की पहली किताब’। ‘द पीपुल्स एण्ड द सेल्फ’ नाम से उन्होंने समसामयिक हिन्दी कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद किया है। उनके द्वारा अनूदित अन्य उल्लेखनीय पुस्तकें हैं - ‘डेअर ओक्सेन करेन’, ‘यह चाकू समय’, ‘हम सपने देखते हैं’, ‘कालेवाला’ के अलावा कालजयी कृति ‘फाउस्ट’ है। विष्णु खरे के रचना-संसार और व्यवहार जगत को समझने के लिए तीन उद्धरण पर्याप्त होंगे। पहला, उनसे जुड़ा कवि-लेखक विनोद भारद्वाज का संस्मरण, दूसरा, मैत्रेयी पुष्पा-विभूतिनारायण का वाकया और तीसरा, देश के साहित्यकारों की अकादमी पुरस्कार वापसी।
एक संस्मरण में विनोद भारद्वाज लिखते हैं - 'विष्णु खरे पर लिखना जितना मुश्किल है, उतना ही उन्हें समझना। उनकी गिद्ध दृष्टि कुख्यात भी है। उनसे मेरा परिचय 1974 में हुआ। वह प्राग में रहने के बाद दिल्ली आ गए थे और उनके पास पश्चिमी शास्त्रीय संगीत के कुछ अच्छे रिकॉर्ड थे। इस संगीत का मैं भी मुरीद था, इसलिए उनके घर आना जाना शुरू हो गया। 1976 में देवप्रिया से मेरे विवाह के बाद उनकी पत्नी कुमुद भी मेरी पत्नी की अच्छी दोस्त बन गईं। जब मैं अविवाहित था तो एक बार दोपहर को खरे के घर चला गया। उन्होंने मुझे प्यार से डांट लगाई कि मेरी अनुपस्थिति में तुम मेरे घर क्यों गए? अपनी सुन्दर पत्नी को ले कर वे बहुत पोज़ेसिव थे लेकिन योग्यता और मानवीयता को अगर आधार बनाया जाए तो मैंने उन जैसा कोई व्यक्ति नहीं देखा। उनके काम भी अनोखे होते थे।
नामवर सिंह से एक बार अनबन हो गई तो लम्बे समय के लिए वे गायब हो गए। नामवरजी को अपने दोस्त पुलिस अधिकारी मार्कण्डेय सिंह की मदद से उन्हें खोजना पड़ा। श्रीकांत वर्मा उनकी योग्यता के बहुत प्रशंसक थे पर अंतिम दिनों में उनकी खरे से बात नहीं होती थी लेकिन जब न्यूयॉर्क से उनका शव दिल्ली आया, तो वही अकेले लेखक थे जो शव दुर्गन्ध से भरे बॉक्स को खोलने में लगे हुए थे। किसी को दिखाने के लिए नहीं, एक मित्र अग्रज कवि के प्रति श्रद्धांजलि के लिए। खरे के जीवन से कई तथ्य निकाल कर उन्हें बदनाम किया जा सकता है, आखिर कौन है जो आदर्श पुरुष हो?इधर मुझे खुद उनकी गुस्से की उबलती उफनती भाषा से कभी कभी निराशा होती है पर अचानक उनका कोई अच्छा स्कॉलरली लेख पढ़ कर या अच्छी कविता पढ़ कर सब भूल जाता हूँ।
उदय प्रकाश के पुरस्कार लौटाने के विवाद में हम दोनों की राय बिलकुल अलग थी पर हमारा संवाद बराबर बना हुआ था। एक बार जब मैं लंदन से लौटा, तो मालूम पड़ा की जनसत्ता में मेरे नई दुनिया में छपे हुसेन के इंटरव्यू पर उन्होंने मेरी जम कर धुनाई की थी। मैंने उन्हें बताया कि आपका लेख मैंने पढ़ा ही नहीं। वे बोले, यही तो तुम्हारी स्नॉबरी है। इस समय हिंदी में उन जैसा आधुनिक विद्वान मुझे तो नहीं दीखता पर उनकी विवादास्पद काली ज़ुबान उन्हें अलोकप्रिय बनाये रखेगी लेकिन शहद वाली ज़ुबान से आज कुछ बदलेगा क्या? अशोक वाजपेयी अपनी किताब में अपने परिचय में खुद अपने को सर्वाधिक विवादास्पद संस्कृतिकर्मी कहते रहे हैं। विष्णु खरे कहे बिना ही सर्वाधिक विवादास्पद साहित्यकर्मी हैं। उन्होंने 75 की उम्र के प्रस्तावित शानदार जलसों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। अपने कस्बे छिंदवाड़ा में पड़े अपना काम करते रहे। वह पंख फ़ैलाने वाले बूढ़े गिद्ध नहीं हैं।'
जिन दिनो देश भर के कई एक नामचीन कवि-साहित्यकार हिंदी साहित्य अकादमी के पुरस्कार लौटा रहे थे, विष्णु खरे की एक गंभीर टिप्पणी मीडिया के माध्यम से सार्वजनिक होते ही खलबली सी मच गई। उन्होंने लिखा कि 'अकादमी सच्चे साहित्य के विरुद्ध एक काफ़्काई, षड्यंत्रकारी, नौकरशाही दफ़्तर है। उसके चुनावों में भयानक साज़िशें होती हैं और पिछले तीस वर्षों में वह खुली आँखों से अपनों-अपनों को रेवड़ी बाँटनेवाली, स्व-पुनर्निर्वाचक, प्रगति-विरोधी संस्था बना दी गई है। स्वयं को स्वायत्त घोषित करने वाली अकादमी, जिसके देश भर से बीसियों अलग-अलग क़ाबिलियत और विचारधाराओं के सदस्य हैं, जिनमें से कुछ केंद्रीय मंत्रालयों द्वारा नामज़द वरिष्ठ आईएएस स्तर के सरकारी अफ़सर भी होते हैं, जिसका एक-एक पैसा संस्कृति मंत्रालय से आता और नियंत्रित होता है, अब भी साहित्य को एक जीवंत, संघर्षमय रणक्षेत्र और लेखकों को प्रतिबद्ध, जुझारू, आपदाग्रस्त मानव मानने से इनकार करती है।
आज जिस पतित अवस्था में वह है उसके लिए स्वयं लेखक ज़िम्मेदार हैं जो अकादमी पुरस्कार और अन्य फ़ायदों के लिए कभी चुप्पी, कभी मिलीभगत की रणनीति अख़्तियार किए रहते हैं। नाम लेने से कोई लाभ नहीं, लेकिन आज जो लोग दाभोलकर, पानसरे और कलबुर्गी की हत्याओं के विरोध में पुरस्कार और विभिन्न सदस्यताएँ लौटा रहे हैं, उनमें से एक वर्षों से साहित्य अकादमी पुरस्कार को 'कुत्ते की हड्डी' कहते थे। वे इसी हड्डी के लिए ललचा भी रहे थे और जिसे पाने के लिए उन्होंने क्या नहीं किया। उन्होंने अकादमी की कई योजनाओं से पर्याप्त पैसे कमाए सो अलग, लेकिन अपने वापसी-पत्र में लिखते हैं कि वह वर्षों से लेखकों को लेकर पीड़ित, दुखी और भयभीत रहे हैं। एक पुरस्कृत सज्जन संस्कृति मंत्रालय में अकादमी के ही प्रभारी रहे।
दूसरे कई वर्षों तक अकादमी के कारकुन रहे और उसके सर्वोच्च प्रशासकीय पद से रिटायर होने के बाद भी एक्सटेंशन चाहते रहे।.... अचानक इनका मौक़ापरस्त ज़मीर जाग उठा है। यह सारे लोग अकादमी के पतन के न सिर्फ़ गवाह हैं, बल्कि उसमें सक्रिय रूप से शामिल रहे हैं। ऐसा नहीं है कि प्रतिबद्ध लेखक संघों और छिटपुट प्रगतिकामी लेखकों ने अकादमी की गिरावट की भर्त्सना या मुख़ालफ़त न की हो, लेकिन मीडिया के लिए एक पुरस्कार को लौटाया जाना ज़्यादा सनसनीख़ेज़ और प्रचार्य-प्रसार्य है, वह भी चंद दिनों के वास्ते। विडंबना यह है कि शायद कुछ हज़ार भारतीयों को छोड़कर न कोई अकादमी को जानता है, न उसके पुरस्कृत लेखकों को। वह इस विवाद को समझेगा ही नहीं।
जब हमारा समाज जागरूक होना ही नहीं चाहता, जब बुद्धिजीवियों ने ख़ुद से और उससे विश्वासघात किया है तो कुछ लौटाए गए इनाम और ओहदे क्या भाड़ फोड़ लेंगे? .....ऐसे सार्वजनिक इस्तीफ़ों, पुरस्कार-त्यागों से कुछ को थोड़ा सच्चा-झूठा कीर्ति-लाभ हो जाएगा, बायो-डेटा में एक सही-ग़लत लाइन जुड़ जाएगी, अकादमियाँ और सरकारें मगरमच्छी अश्रु-पूरित नेत्रों से अपने बेपरवाह रोज़मर्रा को लौट जाएँगी। अन्याय फिर भी चुगता रहे(गा) मेरे देश की देह।'
बेलाग-लपेट बोलने, लिखने वाले कवि विष्णु खरे का विस्तृत अभिमत तीसरी बार उस वक्त गर्मागर्म चर्चाओं में आया, जब प्रसिद्ध महिला कथाकार मैत्रेयी पुष्पा को लक्ष्य कर वर्धा विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति विभूति नारायण राय ने एक अत्यंत अशोभन टिप्पणी कर साहित्य जगत को गुस्से से भर दिया। विष्णु खरे ने उस प्रकरण के बहाने लिखा कि '.... ‘छिनाल’-ख्याति के विभूति नारायण राय ने मेरे जानते मेरा कभी कुछ बिगाड़ा नहीं है। उलटे एक बार जब वे किसी वामपंथी सम्मेलन में जा रहे थे, जिसमें मैं भी आमंत्रित था पर अपनी जेब से यात्रा-व्यय नहीं देना चाहता था, तो आयोजक ने मुझसे कहा था कि राय प्रथम श्रेणी में आ रहे हैं और मुझे अपने साथ निष्कंटक मुफ्त में ला सकते हैं।
फिर जब वे महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति हुए तो वर्धा के एक विराट लेखक-सम्मेलन में उन्होंने मुझे निमंत्रणीय समझा। अपने पूर्वग्रहों के कारण दोनों बार मैं उनके सान्निध्य से बचा। उन्हें मैं कतई उल्लेखनीय लेखक नहीं मानता था और जब उनकी एक प्रेत-प्रेम कथा में यह पढ़ा कि अर्नेस्ट हेमिंग्वे के उपन्यास 1909 में आना शुरू हो चुके थे तो मेरी यह बदगुमानी पुख्ता हो गयी कि वे मात्र अपाठ्य नहीं, अपढ़ भी हैं।
उनके आजीवन संस्थापन-संपादन में निकल रही एक पत्रिका उनके मामूली औसत मंझोलेपन का उन्नतोदर आईना है और उनके (तत्कालीन) संरक्षण में उनके विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित की जा रही तीनों पत्रिकाएं अधिकांशत: नामाकूल संपादकों के जरिये हिंदी पर नाजिल रही हैं, हालांकि उनमें से एक में मेरी कुछ शंकास्पद कविताओं के अन्यत्र प्रकाशित शोचनीय अंग्रेजी अनुवाद दोबारा छपे हैं। यह सोचना भ्रामक और गलत होगा कि जो ख्याति विभूति नारायण ने ‘छिनाल’ के इस्तेमाल से हासिल की है, वह नयी है। उनके वर्धा कुलपतित्व (‘पतित’ के साथ अगर श्लेष लगे तो वह अनभिप्रेत समझा जाए) के पहले भी उन्हें लेकर अनेक अनर्गल किंवदंतियां थीं जिनका संकेत भी देना भारतीय दंड संहिता की मानहानि-संबंधित धाराओं को आकृष्ट कर लेगा।
'गनीमत यह है कि हिंदी लेखिकाओं के लिए उन्होंने ‘छिनाल’ शब्द कहा ही नहीं है, उसे छपवाया भी है, उस पर बावेला मचने पर लोकभाषाओं और असहाय प्रेमचंद के हवालों से उसके इस्तेमाल का बचाव किया है यानी उसे कबूल किया है और अंत में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के राष्ट्रीय स्तर पर एक खेले-खाये नौकरशाह की तरह सरकारी यदिवादी मुआफी भी मांग ली है। अपने कायर मगर चालाक त्वचारक्षण में कपिल सिब्बल और विभूति नारायण की मिलीभगत कामयाब रही। लाठी भी नहीं टूटी और शास्त्री भवन की इमारत खतरनाक, कुपित सर्पिणियों से खाली करवा ली गयी। इस मामले को ‘विभूति नारायण बनाम हिंदी लेखिकाएं’ मानना सिर्फ आंशिक रूप से सही होगा।
यह सही है कि विभूति नारायण ने अपना अधिकांश कार्यकाल एक ऐसे महकमे में काटा है जिसमें अश्लीलतम गालियां देना और सुनना पेशे का अनिवार्य और स्पृहणीय अंग है लेकिन अगर एक ओर आपको यह भ्रम हो कि आप एक वाम समर्थक-समर्थित लेखक हैं। देखिए कि जन संस्कृति मंच ने उन्हें लेकर कैसे दो परस्पर-विरोधी जैसे बयान जारी किये हैं, जिनमें से एक को जाली बताया गया था और दूसरी ओर गांधीजी (जिनके दुर्भाग्य का पारावार नजर नहीं आता) के नाम पर खोले गये हिंदी भाषा और साहित्य के अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति, तो आपको हिंदी को लेकर ‘बा मुहम्मद होशियार’ जैसा लौह-नियम जागते-सोते याद रखना चाहिए।
हम यह न भूलें कि ऐसे लोगों ने वे भी पाल रखे हैं, जिन्हें लीलाधर जगूड़ी के एक पुराने मुहावरे में ‘पुरुष-वेश्या’ ही कहा जा सकता है। अनेक हिंदी विभाग दरअसल ऐसी ही ‘अक्षतयोना’ पुरुष-वेश्याओं के उत्पादक चकले बन गये हैं, जहां कायदे से ‘कामायनी’ न पढ़ा कर ‘कुट्टनीमतं काव्यं’ पढ़ाया जाना चाहिए। ........विभूति नारायण का छिनाल-प्रकरण अकादमिक-लेखकीय-संपादकीय मिलीभगत (‘नैक्सस’) के बिना संभव न होता। ‘नया ज्ञानोदय’ के संपादक (स्वर्गीय) रवींद्र कालिया विभूति नारायण.... दोनों मिल कर एक अनैतिक साहित्यिक-सत्ता का प्रदर्शन करना चाहते थे। ‘ज्ञानोदय’ दरअसल कितना छपता है इसका कुछ अंदाज हमें है; लेकिन बेशक कालिया ने उसमें और ज्ञानपीठ प्रकाशन में अपनी ‘वल्गर’ प्रतिभा से कुछ अस्थायी प्राण जरूर फूंके। ...साहित्यिक पत्रकारिता में बाजारवाद ‘धर्मयुग-सारिका’ से शुरू हुआ था जो अब अन्य पत्रिकाओं के अलावा ‘ज्ञानोदय-ज्ञानपीठ’ में पूर्ण-कुसुमित महारोग का विकराल रूप ले चुका है। अपनी सत्ता और सफलता से राय-कालिया गठबंधन इतना प्रमादग्रस्त हो गया था कि उसने सोचा कि वह हिंदी समाज में ‘छिनाल’ को भी निगलवा लेगा, पर वह उसके गले की हड्डी बन गया।' विष्णु खरे ने कभी टर्की के पास डूबे सीरियाई बच्चे ‘आलैन’ के लिए एक कविता लिखी, जो हमे स्मृतियों, विचारों की अतल गहराइयों तक ले जाती है -
हमने कितने प्यार से नहलाया था तुझे
कितने अच्छे साफ़ कपड़े पहनाए थे
तेरे घने काले बाल सँवारे थे
तेरे नन्हें पैरों को चूमने के बाद
जूतों के तस्मे मैंने ही कसे थे
गालिब ने सताने के लिए तेरे गालों पर गीला प्यार किया था
जिसे तूने हमेशा की तरह पोंछ दिया था
और अब तू यहाँ आकर इस गीली रेत पर सो गया
दूसरे किनारे की तरफ़ देखते हुए तेरी आँख लग गई होगी
जो बहुत दूर नहीं था
जहाँ कहा गया था तेरे बहुत सारे नए दोस्त तेरा इन्तिज़ार कर रहे हैं
उनका तसव्वुर करते हुए ही तुझे नींद आ गई होगी
क़िश्ती में कितने खुश थे तू और गालिब
अपने बाबा को उसे चलाते देख कर
और अम्मी के डर पर तुम तीनों हँसते थे
तुम जानते थे नाव और दरिया से मुझे कितनी दहशत थी
तू हाथ नीचे डालकर लहरों को थपकी दे रहा था
और अब तू यहाँ आकर इस गीली रेत पर सो गया
तुझे देख कर कोई भी तरद्दुद में पड़ जाएगा कि इतना ख़ूबरू बच्चा
ज़मीं पर पेशानी टिकाए हुए यह कौन से सिजदे में है
अपने लिए हौले-हौले लोरी गाती और तुझे थपकियाँ देती
उन्हीं लहरों को देखते हुए तेरी आँखें मुँदी होंगी
तू अभी-भी मुस्कराता-सा दीखता है
हम दोनों तुझे खोजते हुए लौट आए हैं
एक टुक सिरहाने बैठेंगे तेरे
नींद में तू कितना प्यारा लग रहा है
तुझे जगाने का दिल नहीं करता
तू ख्वाब देखता होगा कई दूसरे साहिलों के
तेरे नए-नए दोस्तों के
तेरी फ़ूफ़ी तीमा के
लेकिन तू है कि लौट कर इस गीली रेत पर सो गया
तुझे क्या इतनी याद आई यहाँ की
कि तेरे लिए हमें भी आना पड़ा
चल अब उठ छोड़ इस रेत की ठंढक को
छोड़ इन लहरों की लोरियों और थपकियों को
नहीं तो शाम को वह तुझे अपनी आग़ोश में ले जाएँगी
मिलें तो मिलने दे फ़ूफ़ी और बाबा को रोते हुए कहीं बहुत दूर
अपन तीनों तो यहीं साथ हैं न
छोड़ दे ख्वाब नए अजनबी दोस्तों और नामालूम किनारों के
देख गालिब मेरा दायाँ हाथ थामे हुए है तू यह दूसरा थाम
उठ हमें उनींदी हैरत और ख़ुशी से पहचान
हम दोनों को लगाने दे गले से तुझे
आ तेरे जूतों से रेत निकाल दूँ
चाहे तो देख ले एक बार पलट कर इस साहिल उस दूर जाते उफ़क को
जहाँ हम फ़िर नहीं लौटेंगे
चल हमारा इन्तिज़ार कर रहा है अब इसी ख़ाक का दामन.
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