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बच्चों की राह में बाल स्वरूप राही

बच्चों की राह में बाल स्वरूप राही

Saturday November 18, 2017 , 5 min Read

बालस्वरूप राही हमारे वक्त शीर्ष बाल-साहित्यकारों में एक हैं। दिल्ली में रहते हैं। पत्रकारिता से भी उनका लंबा नाता रहा है। हिन्दी कविता में उनका नाम अपनी भाषायी सादगी और संवेदना के लिए अलग से पहचाना जाता है। 

साभार: ट्विटर

साभार: ट्विटर


कवि दिनकर, बच्चन, नेपाली, रंग की पीढ़ी के बाद के उल्लेखनीय हस्ताक्षर बालस्वरूप राही आधुनिक गीत के भी एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। साहित्यिक पत्रकारिता और संपादन के क्षेत्र में अपनी ख़ास पहचान बनाते हुए उन्होंने कविता को जनोन्मुख बनाया। 

बाल स्वरूप राही की प्रमुख कृतियां हैं- मेरा रूप तुम्हारा दर्पण, जो नितांत मेरी है (तीनों गीत-संग्रह) । राग-विराग (’चित्रलेखा’ के आधार पर ऑपेरा)। दादी अम्माँ मुझे बताओ, जब हम होंगे बड़े, बंद कटोरी मीठा जल, हम सबसे आगे निकलेंगे, गाल बने गुब्बारे, सूरज का रथ (बाल-गीत-संग्रह)। राही को समझाए कौन (ग़ज़लें)। 

बालस्वरूप राही हमारे वक्त शीर्ष बाल-साहित्यकारों में एक हैं। दिल्ली में रहते हैं। पत्रकारिता से भी उनका लंबा नाता रहा है। हिन्दी कविता में उनका नाम अपनी भाषायी सादगी और संवेदना के लिए अलग से पहचाना जाता है। कवि दिनकर, बच्चन, नेपाली, रंग की पीढ़ी के बाद के उल्लेखनीय हस्ताक्षर बालस्वरूप राही आधुनिक गीत के भी एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। साहित्यिक पत्रकारिता और संपादन के क्षेत्र में अपनी ख़ास पहचान बनाते हुए उन्होंने कविता को जनोन्मुख बनाया। बाल स्वरूप राही की प्रमुख कृतियां हैं- मेरा रूप तुम्हारा दर्पण, जो नितांत मेरी है (तीनों गीत-संग्रह) । राग-विराग (’चित्रलेखा’ के आधार पर ऑपेरा)। दादी अम्माँ मुझे बताओ, जब हम होंगे बड़े, बंद कटोरी मीठा जल, हम सबसे आगे निकलेंगे, गाल बने गुब्बारे, सूरज का रथ (बाल-गीत-संग्रह)। राही को समझाए कौन (ग़ज़लें)। राही की कविताओं में बच्चों के मन को सहज-सहज सहेज लेने की जादूगरी है, जैसे कि ये 'गाँधीजी के बन्दर तीन' कविता-

गाँधीजी के बन्दर तीन,

सीख हमें देते अनमोल ।

बुरा दिखे तो दो मत ध्यान,

बुरी बात पर दो मत कान,

कभी न बोलो कड़वे बोल ।

याद रखोगे यदि यह बात ,

कभी नहीं खाओगे मात,

कभी न होगे डाँवाडोल ।

गाँधीजी के बन्दर तीन,

सीख हमें देते अनमोल ।

वरिष्ठ कवि दिविक रमेश लिखते हैं- आजादी के बाद जिन साहित्यकारों ने अत्यंत लोकप्रिय बाल-कविताओं का सृजन किया, उनमें बालस्वरूप राही का नाम ऊपर की पंक्ति में आता है। सूर्यभानु गुप्त, शेरजंग गर्ग, दामोदर अग्रवाल, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, योगेन्द्र कुमार लल्ला, श्रीप्रसाद आदि भी हिन्दी की बाल-कविता को नई बुलंदियाँ दे चुके हैं, लेकिन राही जी की बाल-कविताएं अपनी बुनावट में पुरानेपन का बड़ी सहजता से अतिक्रमण करती हैं।

हिंदी के शीर्ष कवि बालस्वरूप राही से पहले भी ‘चंदामामा’ पर बहुत अच्छी-अच्छी बाल-कविताएं लिखी गई हैं लेकिन उनकी ‘चंदा मामा’ कविता पहले की रचनाओं के पुरानेपन का विश्वसनीय ढंग से अतिक्रमण करती है। इसीलिए उनकी वह बाल-कविता आज तक लोकप्रिय भी है -

चंदा मामा, कहो तुम्हारी शान पुरानी कहाँ गई,

कात रही थी बैठी चरखा, बुढ़िया नानी कहाँ गई?

सूरज से रोशनी चुराकर चाहे जितनी भी लाओ,

हमें तुम्हारी चाल पता है, अब मत हमको बहकाओ।

है उधार की चमक-दमक, यह नकली शान निराली है,

समझ गए हम चंदा मामा, रूप तुम्हारा जाली है।

दिविक रमेश उनके साथ के दिनो की मीठी स्मृतियां व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि बालस्वरूप राही के यहाँ बाल-कविता अनुभव के और सुदृढ़तम शैली के धरातल पर भी विविधता से सम्पन्न है। और इसका कारण उनकी सहजता और बेबाकी है। उन्होंने शिशु गीत भी लिखे हैं और ऐसी कविताएँ भी, जिन्हें किशोर अपनी कह सकते हैं। पूरी मस्ती के लेखक हैं बालस्वरूप राही। किस्सा याद आता है। किसी समय में मैंने अपनी एक कविता बाँची थी - ‘गुलाम देश का मजदूर गीत’। उस समय वहां बालस्वरूप राही उपस्थित थे। कविता उन्हें बहुत पसंद आई। कहा- 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' में छपने के लिए दे दो। कविता दे दी। कुछ दिनों बाद उनसे मिलना हुआ तो उन्होंने बताया कि सम्पादक यानी स्व. मनोहर श्याम जोशी को कविता पसन्द तो है पर .......। वे मुझे सम्पादक के कमरे में ले गए। जोशी जी ने कहा कि इस कविता का शीर्षक बदल दीजिए, तभी साप्ताहिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित हो सकती है। मैं सहमत नहीं हुआ। हम खड़े-खड़े ही बाहर निकल आए। मेरे निर्णय का राही जी ने स्वागत किया। बाद में वह कविता ज्ञानरंजन ने ‘पहल’ में प्रकाशित की।

दिविक रमेश के शब्दों में - राही के यहाँ परी, पेड़, चिड़िया, जानवर, कीट, चाँद, सूरज, बादल, आकाश, गंगा आदि भी हैं तो बच्चों की शरारतें, उनका नटखटपन और उनकी हरकतें भी हैं। उनके यहाँ नानी, माँ, पिता आदि संबंधों की खुशबू भी है तो इंडिया गेट, कुतुबमीनार आदि इमारतों एवं लाल बहादुर शास्त्री, न्यूटन आदि महापुरुषों की भव्यता भी। उनके यहाँ होली-दिवाली भी है, तो गुब्बारे और जोकर भी। उनके यहाँ जिज्ञासा और प्रश्नाकुलता है, तो जानकारी भी। उनके यहाँ रचनात्मकता भी है तो संवाद शैली भी। कहीं कहीं तो उनकी शब्द-सजगता चौंकाने की हद तक आनन्द देती है, तो कहीं ध्वन्यात्मक प्रयोगों की रूनझुन महसूस करते ही बनती है। उनकी बाल-कविताओं पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है। उनकी एक कविता है ‘कार’ इसमें कोरी तुलना नहीं बल्कि बड़ी ही सूझ के साथ प्रदूषण और अनुशासन की समझ भी पिरो दी गई है -

पापा जी की कार बड़ी है

नन्हीं-मुन्नी मेरी कार।

टाँय टाँय फिस उनकी गाड़ी,

मेरी कार धमाकेदार।

उनकी कार धुआँ फैलाती

एक रोज़ होगा चालान,

मेरी कार साफ-सुथरी है

सब करते इसका गुणगान।

यहीं यह भी पता चलता है कि आज का बालक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी चाहता है। चाहता तो हर समय का बच्चा होगा लेकिन आज आज़ाद बच्चों को उसे व्यक्त करने में सक्षम भी किया जा रहा है। इस सत्य का अनुभव राही जी की एक कविता मेंहदी में बखूबी मिलता है --

सादिक जी पहुँचे भोपाल

लाए मेंहदी किया कमाल।

पापा ने रंग डाले बाल,

मेंहदी निकली बेहद लाल

बुरा हुआ पापा का हाल,

महंगा पड़ा मुफ्त का माल।

अगर जरा बैठे हों दूर

पापा लगते हैं लंगूर।

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