उमराव जान के संगीत को अमर कर देने वाले खय्याम की कहानी जिन्होंने दान कर दी अपनी सारी संपत्ति
एक संगीतकार की सफलता क्या होती है, यही न कि जब आवाम उनकी धुन सुने तो अपने रश्क, गम, विषाद सब भूल जाए और उस अलौकिक संगीत में डूब जाए। खय्याम के संगीत को अगर एक शब्द में समेटना हो तो वह होगा 'सुकून'... ये उनके संगीत में छिपा सुकून ही है, कि आप उनका कोई भी गाना सुन रहे हों या गुनगुना रहे हों, अपने आप ही आंखें बंद कर लेने का मन होता है! खय्याम की रचनाओं के बारे में कहा जाता है, कि वे गायक और श्रोता, दोनों को ही एक अलग स्तर पर ले जाती हैं...!!
मोहम्मद जहूर खय्याम ने अपने शानदार संगीत की बदौलत चार दशक के करियर में पद्मभूषण समेत कई अवार्ड जीते। बंटवारे से पहले पंजाब में सआदत हुसैन के बतौर जन्मे खय्याम को बचपन से ही फिल्मों और संगीत से लगाव था।
खय्याम का पूरा नाम है मोहम्मद जहूर खय्याम हाशमी। 18 फरवरी 1927 को इनका जन्म पंजाब के जालंधर जिले के नवाब शहर में हुआ था। पूरा परिवार शिक्षित-दीक्षित था। चार भाई और एक बहन। घर में कविता और संगीत का माहौल था जिस कारण किसी ने भी उनके संगीत सीखने पर एतराज नहीं किया। संगीत की शुरुआती तालीम खय्याम ने उस दौर के मशहूर संगीतकार पंडित हुस्नलाल भगतराम और पंडित अमरनाथ से हासिल की। खय्याम ने अपने शानदार संगीत की बदौलत चार दशक के करियर में पद्मभूषण समेत कई अवार्ड जीते। बंटवारे से पहले पंजाब में सआदत हुसैन के बतौर जन्मे खय्याम को बचपन से ही फिल्मों और संगीत से लगाव था।
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खय्याम ने अपना सपना पूरा करने के लिए 18 साल की उम्र में मशहूर पाकिस्तानी म्यूजिक डायरेक्टर बाबा चिश्ती के साथ लाहौर में काम शुरू किया। लेकिन घरवालों के दबाव के चलते उन्हें दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान आर्मी ज्वाइन करनी पड़ी। हालांकि तीन साल बाद खय्याम ने आर्मी की नौकरी छोड़ दी और फिल्म संगीत में करियर शुरू करने के लिए बॉम्बे का रुख किया।
खय्याम ने 1947 से काम शुरू किया, पर तब पांच साल तक वो खय्याम नहीं, बल्कि शर्माजी के नाम से काम करते थे। तभी उन्हें पंजाब फिल्म प्रोडक्शन की ‘हीर रांझा’ में काम करने का मौका मिला। 1958 में रिलीज हुई फिल्म ‘फिर सुबह होगी’ से ख्य्याम को पहचान मिली, जिसका श्रेय उन्होंने गीतकार साहिर लुधियानवी को दिया। साहिर ने ही फिल्म के संगीत के लिए राज कपूर को ख्य्याम का नाम सुझाया था। खय्याम उस दौर को याद करते हुए बताते हैं,'मैंने इसलिए हां की, क्योंकि मुझे मालूम था कि राज कपूर साहब को संगीत का भी काफी इल्म है और वो शायरी भी समझते हैं।' उन्होंने पांच धुनें बनाईं, हर एंगल से। इतना राज कपूर साहब को खुश करने के लिए काफी था।
संगीत में अपने योगदान के लिए खय्याम को 2010 में लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड से नवाजा गया। 2011 में उन्हें पद्मभूषण पुरस्कार मिला। खय्याम, जिन्होंने हिंदी सिनेमा को कुछ जबरदस्त रोमांटिक गाने दिए, वो अपनी कामयाबी और हुनरमंदी का श्रेय अपनी पत्नी जगजीत कौर को देते हैं। खय्याम की पत्नी जगजीत कौर भी अच्छी गायिका हैं। उन्होंने ख़य्याम के साथ कुछ फिल्मों जैसे 'बाज़ार', 'शगुन' और 'उमराव जान' में काम भी किया है।
60 के दशक में ख्य्याम ने कई फिल्मों में हिट म्यूजिक दिया, जिनमें ‘शोला और शबनम‘, ‘फुटपाथ’ और ‘आखिरी खत’ शामिल थीं। 70 के दशक में खय्याम की सबसे यादगार कंपोजिशन आई यश चोपड़ा के साथ, जिनकी शुरुआत हुई 1976 में ‘कभी-कभी’ से। इस फिल्म में खय्याम ने अपनी काबीलियत साबित कर दी। 80 के दशक में खय्याम ने कुछ सबसे यादगार कंपोज़िशंस तैयार किए।1980 में आई फिल्म ‘थोड़ी सी बेवफाई’ इसका एक अच्छा उदाहरण है। लेकिन खय्याम का सबसे मशहूर संगीत सामने आया मुजफ्फर अली की फिल्म ‘उमराव जान’ में। इस साउंडट्रैक के लिए उन्हें 1981 में नेशनल अवार्ड भी मिला। उमराव जान के लिए ख्य्याम को 1982 में उनका दूसरा फिल्मफेयर अवार्ड मिला और ये सिलसिला फिल्म ‘बाजार’ के यादगार गानों के साथ आगे बढ़ गया। फिल्मों के अलावा खय्याम ने मीना कुमारी की उर्दू शायरी 'आई राइट-आई रिसाइट' के लिए भी संगीत दिया। 80 के दशक में डिस्को और सिंथेसाइजरों के आने के साथ संगीत को लेकर खय्याम की क्लासिकल समझ के चाहने वालों की फेहरिस्त छोटी पड़ती गई।
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उमराव जान के अमर संगीत के पीछे का डर
खय्याम ने बताया कि पाकीजा की जबरदस्त कामयाबी के बाद उमराव जान का संगीत बनाते समय, उन्हें बहुत डर लग रहा था। उन्होंने कहा कि "पाकीजा और उमराव जान की पृष्भूमि एक जैसी थी। उमराव जान और पाकीजा का विषय लगभग एक ही था, 'पाकीजा' कमाल अमरोही साहब ने बनाई थी, जिसमें मीना कुमारी, अशोक कुमार, राज कुमार थे। इसका संगीत गुलाम मोहम्मद ने दिया था और यह जबरदस्त हिट फिल्म थी। ऐसे में उमराव जान का संगीत बनाते समय मैं बहुत डरा हुआ था। लोग पाकीजा में सब कुछ देख सुन चुके थे। ऐसे में उमराव जान के संगीत को खास बनाने के लिए मैंने इतिहास पढ़ना शुरू किया।" आखिरकार खय्याम की मेहनत रंग लाई 1982 में रिलीज हुई मुजफ्फर अली की 'उमराव जान' ने कामयाबी के झंडे गाड़ दिए। फिल्म के गाने 'इन आंखो की मस्ती' में और 'दिल चीज क्या है‘ आज भी लोग नहीं भूल पाए हैं।
हीरो बनने आए थे मुंबई और बन कुछ और गये
खय्याम ने बीबीसी से बातचीत में बताया, कि वो कैसे बचपन में छिप–छिपाकर फ़िल्में देखा करते थे जिसकी वजह से उनके परिवार वालों ने उन्हें घर से निकाल दिया था। खय्याम अपने करियर की शुरुआत अभिनेता के तौर पर करना चाहते थे पर धीरे-धीरे उनकी दिलचस्पी फ़िल्मी संगीत में बढ़ती गई और वह संगीत के मुरीद हो गए।
जरूरतमंदों के लिए दान कर दी अपनी सारी संपत्ति
बीते साल अपने जन्मदिन पर खय्याम ने अपनी सारी संपत्ति दान करने की घोषणा की थी। करीब 12 करोड़ की इस संपत्ति से वे और उनकी गायिका पत्नी जगजीत कौर फिल्म जगत के जरूरतमंद और उभरते संगीतकारों के लिए एक ट्रस्ट बना रहे हैं। इस ट्रस्ट का नाम ‘खय्याम प्रदीप जगजीत चैरिटेबल ट्रस्ट’ होगा। इसके मुख्य ट्रस्टी गजल गायक तलत अजीज और उनकी पत्नी बीना होंगे। खय्याम का कहना है कि देश ने उन्हें बहुत कुछ दिया है और अब वे देश को कुछ लौटाना चाहते हैं।
-प्रज्ञा श्रीवास्तव