लड़कों को लड़कियों की तरह नचाने को भगवान की आराधना मानते हैं बसंत गुरु
उड़ीसा की प्राचीन नृत्य-कला ‘गोटीपुअ’ को जिंदा रखने के लिए किये जा रहे यज्ञ में खुद को तपा रहे कलाकार का नाम है बसंत कुमार महारणा
‘गोटीपुअ’ ओड़िशा राज्य की एक पारंपरिक नृत्य-कला है। ‘गोटीपुअ’ ओड़िआ भाषा के दो शब्दों – गोटी और पुअ - को मिलाकर बनाया गया एक शब्द है। ओड़िआ भाषा में 'गोटी' का मतलब है एकल यानी अकेला और 'पुअ' का मतलब है लड़का, यानी ‘गोटीपुअ’ का मतलब हुआ एक लड़का या अकेला लड़का। जैसा कि नाम से ही ज्ञात होता है ये नृत्य लड़के करते हैं, लेकिन नाम से भिन्न ये नृत्य एकल नृत्य नहीं है बल्कि लड़कों का सामूहिक नृत्य है। इस नृत्य में लड़के लड़कियों की वेशभूषा में नृत्य करते हैं और यही इसकी सबसे बड़ी विशेषता है।
‘गोटीपुअ’ नृत्य के इतिहास को लेकर अलग-अलग इतिहासकारों के अलग-अलग मत हैं। कुछ लोगों के मुताबिक,‘गोटीपुअ’ उतना ही पुराना है जितना कि विश्वप्रसिद्ध ओड़िसी शास्त्रीय नृत्य। कुछ लोगों की राय में ओड़िसी नृत्य से ही प्रेरित होकर कुछ कलाकारों ने‘गोटीपुअ’ को जन्म दिया। जानकार बताते हैं कि ‘गोटीपुअ’ नृत्य भगवान जगन्नाथ को प्रसन्न करने के मकसद से किया जाता है। भगवान जगन्नाथ और तीर्थ-स्थल पुरी से जुड़े सभी त्योहारों, पर्वों और उत्सवों के दौरान ‘गोटीपुअ’ नृत्य करने की परंपरा सालों से रही है। कुछ लोगों के मुताबिक, श्री चैतन्य महाप्रभु के कहने पर लड़कों ने लड़कियों की वेशभूषा में मंदिरों में ‘गोटीपुअ’ नृत्य करना शुरू किया था। कई लोग ऐसे भी हैं जो ये कहते हैं कि पहले देवदासियां मंदिरों में उत्सवों के दौरान नृत्य किया करती थीं, लेकिन जैसे-जैसे देवदासी-प्रथा ख़त्म होने लगी लड़कों ने लड़कियों की वेशभूषा में नृत्य करना शुरू किया यानी मंदिरों में देवदासियों की जगह ‘गोटीपुअ’ के कलाकारों ने ले ली। लेकिन, इस बात में दो राय नहीं है कि ये नृत्य भगवान जगन्नाथ और श्री कृष्ण को प्रसन्न करने के उद्देश्य से किया जाता है। इस नृत्य के ज़रिये भगवान जगन्नाथ और श्री कृष्ण की आराधना भी की जाती है। भक्ति-आन्दोलन में भी ‘गोटीपुअ’ की काफी महत्वपूर्व भूमिका रही है।
बड़ी बात ये भी है कि ‘गोटीपुअ’ नृत्य सीखना आसान नहीं है और इसे सीखने में काफी वक्त लगता है। ‘गोटीपुअ’ का कलाकार बनने के लिए सिर्फ नृत्य सीखना ही नहीं बल्कि गायन सीखना भी ज़रूरी है। नृत्य और गायन-कला के साथ-साथ कलाकार को वाद्य-यंत्र बजाना भी सीखना पड़ता है। जब एक कलाकार नाचना, गाना, बजाना सीख भी लेता है तब भी वह उस समय तक पूर्ण ‘गोटीपुअ’ कलाकार नहीं बन जाता जब तक वह नृत्य का संचालन करना नहीं सीख लेता। ‘गोटीपुअ’ कलाकार बनने के लिए छोटी-उम्र से ही खुद को इस कला के प्रति समर्पित करना होता है। सबसे पहले गुरु अपने शिष्य के बदन को तराशता और और फिर उसे नृत्य करने लायक लचीला बनता है। इस प्रक्रिया के दौरान प्रशिक्षु को कई सारी योग मुद्राएं सिखाई जाती है। कलाकार बनने की प्रक्रिया काफी मुश्किल होती है और इसके लिए मज़बूत दिलोदिमाग की ज़रुरत पड़ती है। अभ्यास भी काफी कठोर और नियमित होता है। इसी वजह से ‘गोटीपुअ’ अपने आप में एक शास्त्रीय नृत्य है और इसके अपने नियम-कायदे हैं। इस नृत्य के दौरान कई तरह की योग मुद्राएं और भाव-भंगिमाएं भी देखने को मिलती हैं। जिस तरह से ओड़िसी, कथक, भरतनाट्यम, कूचिपुड़ी, मोहिनीअट्टम जैसे पारंपरिक और शाश्त्रीय नृत्यों के अपने अलग-अलग चरण/अंग हैं वैसी ही ‘गोटीपुअ’के भी अपने चरण हैं जिसमें वंदना, पल्लवी/ स रे ग म , अभिनय और बंध नृत्य शामिल हैं।
भारतीय कलाओं में ‘गोटीपुअ’ का अपना विशेष महत्त्व है और गौरवशाली इतिहास भी। ये नृत्य सालों से ओड़िशा की कला-संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है। लेकिन, कई कारणों से अब इस प्राचीन नृत्य-कला के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है। आधुनिकता, व्यवसायीकरण के मौजूदा दौर में ‘गोटीपुअ’ का प्रचार-प्रसार थम-सा गया है। पाश्चात्य कला-संस्कृति, फ़िल्मी चकाचौंध, टीवी की चमकधमक के प्रभाव में लोग ‘गोटीपुअ’ जैसे कई पारंपरिक नृत्यों को भूलने लगे हैं। और भी ऐसे ही कई कारण हैं जिनकी वजह से ‘गोटीपुअ’ नृत्य सीखने वाले कलाकारों की संख्या लगातार घटती जा रही है। लेकिन, एक कलाकार हैं जिन्होंने अपना जीवन ‘गोटीपुअ’ को जिंदा रखने के लिए समर्पित कर दिया है। ‘गोटीपुअ’ की गौरवशाली परंपरा को आगे बढ़ाने और उसे हमेशा के लिए जीवित रखने के लिए संघर्षरत इस कलाकार का नाम है बसंत कुमार महारणा।
बसंत ‘गोटीपुअ’ में महारत रखने वाले एक बड़े उम्दा कलाकार हैं। लेकिन उनकी पहचान केवल एक कलाकार के रूप में नहीं है। वे एक ‘गुरु’ भी हैं जो नयी पीढ़ी को ‘गोटीपुअ’ सिखा रहे हैं, साथ-साथ उसे जिंदा रखने के लिए लोगों को प्रेरित और प्रोत्साहित ही भी कर रहे हैं। इस प्राचीन नृत्य-कला को जीवित रखने के लिये बसंत ओड़िशा के ‘हेरिटेज विलेज’ के नाम से मशहूर रघुराजपुर में ‘अभिन्न सुन्दर गोटीपुअ नृत्य परिषद’ के अधीन एक गुरूकुल चला रहे हैं। बसंत के लिए संचार-क्रांति और इंटरनेट के इस युग में बरसों पुरानी इस नृत्य-कला को बचाये रखना और नयी पीढ़ी को इस प्राचीन नृत्य से जोड़ना आसान नहीं है लेकिन वे पिछले काफी समय से तन-मन-धन लगाकर इसके लिये गंभीर प्रयास कर रहे हैं। तमाम आर्थिक परेशानियों से जूझते हुए भी बसंत का गुरुकुल ‘गोटीपुअ’ नृत्य के प्रचार, प्रसार और प्रशिक्षण के लिये अपनी पहचान बना चुका है। कला-जगत में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त बसंत इन दिनों बस इसी ख्याल में डूबे रहते हैं कि किस तरह से इस अद्भुत और प्राचीन नृत्य की कला को मजबूत और लोकप्रिय बनाया जाये ताकि समय की धारा में ‘गोटीपुअ’ इतिहास न बन जाये।
बसंत की कहानी संघर्ष की कहानी है, लेकिन उनका ये संघर्ष अपने लिए नहीं है बल्कि उनका ये संघर्ष है अपने राज्य और देश की एक गौरवशाली परंपरा और कला को जीवित रखने के लिए। आज भी वे अपने एक छोटे से गुरुकुल के माध्यम से ‘गोटीपुअ’ को जीवित रखने की लड़ाई लड़ रहे हैं। कला के प्रति अटूट श्रद्धा ही उन्हें इस संघर्ष के लिये ताकत दे रही है।
संघर्ष की इस अद्भुभुत कहानी के नायक बसंत का जन्म ओड़िसा राज्य के रघुराजपुर गाँव में हुआ। पिता लक्ष्मण महारणा भी कलाकार ही थे। माँ सरस्वती गृहिणी थीं लेकिन उन्हें भी नृत्य-संगीत का ज्ञान था। लक्ष्मण और सरस्वती को कुल छह संतानें हुईं जिनमें बसंत सबसे बड़े हैं। बसंत को ‘गोटीपुअ’ नृत्य-कला विरासत में मिली। बसंत के दादाजी ‘गोटीपुअ’ के बेहद उम्दा कलाकार थे। उन्होंने नृत्य की शिक्षा अपने ज़माने के मशहूर कलाकारों बलभद्रदास और मोहन महारणा के सानिध्य में रहकर ली थी। नृत्य-कला में महारत हासिल करने के बाद बसंत के दादा ने मागुनीदास के साथ मिलकर एक सांस्कृतिक संस्था की भी शुरुआत की। मागुनिदास पखावज बजाने के लिए बहुत मशहूर थे, वे अच्छे गायक भी थे और ‘गोटीपुअ’ के विद्वान भी। लेकिन, बसंत के बचपन में ही उनके दादा का निधन हो गया। बसंत के पिता गुरू लक्ष्मण महारणा भी एक अच्छे कलाकार थे, लेकिन उनके ऊपर परिवार के भरण-पोषण की जिम्मेदारी हावी रही। लेकिन, वे जगतगुरु ठाकुर अभिराम परमहंस देव से प्रभावित होकर उनके आश्रम चले गए और आश्रम में 14 साल तक एक सन्यासी की तरह जीवन बिताया। इन 14 सालों के दौरान बसंत ने अपनी माँ के साथ मिलकर घर-परिवार की ज़िम्मेदारी संभाली।
बसंत के पूरे परिवार पर माँ सरस्वती का आशीर्वाद था। बसंत के माता-पिता और सभी भा-बहन नृत्य के अलावा एक बेहतरीन चित्रकार भी हैं। बसंत के पिता आजीविका के रूप में लकड़ी को तराशकर भगवान जगन्नाथ के मंदिर बनाकर उनपर बेहतरीन रंगों से चित्रकारी किया करते थे। बसंत की माँ और परिवार के दूसरे सदस्य भी इस काम में हाथ बंटाने लगे। हाथ से बने ये मंदिर बेहद खूबसूरत और आकर्षक लगते थे। बाजार में इनकी मांग थी और इन्हीं मंदिरों को बाजार में बेचकर परिवार का गुज़ारा हो जाता था। इस प्रकार से बसंत भी चित्राकारी विद्या में निपुण हो गये। उन दिनों ओड़िसा में ‘जात्रिपटि’ का काम भी काफी चलन में था। कपड़े पर इमली के बीजों और चॉक की मदद से की जाने वाली इस कलाकारी में भी बसंत और उनका परिवार महारत रखता था। बसंत को मिलाकर उसके परिवार में 3 भाई और 3 बहनें हैं और वैसे तो पूरा परिवार नृत्य, संगीत, चित्रकला जैसी विधाओं में निपुण है, लेकिन ‘गोटीपुअ’ नृत्य तो मानों बसंत के खून में ही रचा बसा था।
आलम ये था कि बचपन में संगीत सुनते ही बसंत के पाँव थिरकने लगते। वे उछलते, कूदते, झूमते और मस्ती में नाचने लग जाते थे। किसी ने उन्हें नृत्य-संगीत की शिक्षा नहीं दी थी, लेकिन सहज ही उन्हें नाचने और गाने के प्रति आकर्षण आ गया। बचपन में ही जब बसंत किसी को ‘गोटीपुअ’ नृत्य करते देख लेते थे, तो घर आकर घंटों तक स्वयं को नृत्य में डुबोए रखते थे। ‘गोटीपुअ’ के प्रति बसंत के इस लगाव को देखकर पिता ने अंदाजा लगा लिया था कि ‘गोटीपुअ’ नृत्य की ये दीवानगी उन्हें उनके दिवंगत दादा से मिली है। लोग कहने लगे थे कि दादा की आत्मा बसंत में समा गयी है। इसके बाद बसंत के पिता ने भी उनके अंदर बैठे नर्तक को तराशने के लिये हर संभव प्रयास किया। जल्द ही बसंत नृत्य, संगीत, गायन और चित्रकारी में पारंगत हो गये। ‘गोटीपुअ’ नृत्य के लिये उनका लगाव सबसे अधिक था। उस काल में स्टेज शो का चलन काफी कम था। ऐसे में बसंत के लिये अपनी कला के प्रदर्शन का सबसे अच्छा मौका होता था लगातार होने वाले धार्मिक आयोजन। उड़ीसा में ‘गोटीपुअ’ नृत्य को केवल एक मनोरंजक नृत्य के रूप में नहीं देखा जाता बल्कि ये भगवान जगन्नाथ की आराधना का एक माध्मय भी है। ऐसे सभी धार्मिक आयोजनों में बसंत को अपनी नृत्य-कला दिखाने का मौका मिलता था और उनकी असाधारण प्रतिभा तो देखकर लोग दातों तले उंगली दबा लेते थे। बसंत ने अपने पिता लक्ष्मण महारणा के साथ-साथ पद्मविभूषण गुरु केलुचरण महापात्र, पद्मश्री गुरु मागुनी दास, गुरु मागुनी जेना, गुरु बनमाली महारणा और गुरु चंद्रमणि लेंका से भी नृत्य और संगीत कलाओं की बारीकियों को सीखा और समझा।
मेहनत, लगन, नियमित अभ्यास और विरासत में मिली प्रतिभा की वजह से बहुत ही कम समय में बसंत पूरे ओड़िसा राज्य में ‘गोटीपुअ’ के एक बेहतरीन कलाकार के रूप में स्थापित हो गए। लेकिन बसंत से 'गुरू बसंत' बनने की यात्रा अभी बाकी थी। वैसे तो बसंत के दादा भी बच्चों को ‘गोटीपुअ’ व दूसरी कलाओं को सिखाने का काम किया करते थे लेकिन बसंत ने इस कला को बचाये रखने के लिये कोई ठोस प्रयास करने की मन ही मन ठान ली थी। पिता लक्ष्मण महाराणा का भी इसमें पूरा सहयोग मिला। या यूँ कहें कि पिता की भी हार्दिक इच्छा थी कि इस कला को बचाने के लिये उनका लड़का कुछ बेहतर करे। इसी इच्छाशक्ति के चलते पहले अनौपचारिक ढंग से चलने वाले गुरुकुल का बसंत ने बकायदा पंजीकरण करवाया और उसे व्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया। हालाँकि इस गुरुकुल को चलाना कोई आसना काम नहीं था। बदलते दौर में युवा और बच्चे भारतीय कलाओं से दूर होते जा रहे हैं। कई लोगों को लगता है कि पारंपरिक नृत्य और कलाओं से सीखने से रोजी-रोटी नहीं मिलती। कलाकारों को जीवन की मूलभूत ज़रूरतों – रोटी, कपड़ा और मकान जुटाने के लिए जीवन-भर संघर्ष करते रहना पड़ता है। इस तरह की धारणा और मानसिकता के साथ जी रहे लोगों को पारंपरिक नृत्य व कला सीखने के लिये आकर्षित करना बसंत के सामने सबसे बड़ी चुनौती बन गयी। बसंत सही मायने में ‘गुरुकुल’ चलाना चाहते थे। गुरुकुल से उनका मतलब था - बच्चों को एक ही जगह पर रखकर उन्हें नृत्य-कला के साथ-साथ औपचारिक शिक्षा यानी किताबी/स्कूली शिक्षा भी दी जाये। बच्चों के लिये गुरुकुल में ही रहने, खाने का प्रबंध कर उन्हें नृत्य व औपचारिक शिक्षा देना भी कई चुनौतियों से भरा काम था। इसके लिये बसंत को आर्थिक सुदृढ़ता और फंड की आवश्यकता थी। फंड जुटाने के लिये बसंत नृत्य के कार्यक्रमों/ नाट्य-उत्सवों में शिरकत करते गए। स्टेज शोज़ करने के एवज में बसंत की संस्था को जो राशि मिलती है उसी का इस्तेमाल वे गुरूकुल के नियमित खर्चे चलाने के लिये करते रहे। हालाँकि इसके बाद भी गुरुकुल के क्रियाकलापों के लिये आर्थिक तंगी बनी हमेशा बनी रही। इस परेशानी से निपटने के लिये बसंत हर स्तर पर प्रयास करते हैं। अपने प्रयास में वे काफी हद तक कामयाब भी रहे। बच्चों को ‘गोटीपुअ’ नृत्य-कला सिखाने के लिए अपना भी बहुत कुछ त्याग किया। कई बार तो अपने घर-परिवार का सामान अपने विद्यार्थियों को दे दिया। दूसरे परिवार के बच्चों को ‘गोटीपुअ’ सिखाने के साथ-साथ बसंत ने ये भी सुनिश्चित किया कि उनके परिवार से सभी बच्चे भी ये नृत्य-कला सीखें। बसंत की पहल का ही नतीजा था कि परिवार के हर सदस्य को ‘गोटीपुअ’ की जानकारी है।
महत्वपूर्ण बात ये भी है कि अगर बसंत चाहते तो वे देश और दुनिया भर में अपने कुछ साथी कलाकारों के साथ ‘गोटीपुअ’ नृत्य करते हुए खूब धन-दौलत और शोहरत कमा सकते थे। लेकिन, उन्होंने अपना जीवन इस ‘पवित्र’ कला को जिंदा रखने में समर्पित कर दिया। बड़ी बात ये भी है कि अगर बसंत चाहते तो वे शहरों में बच्चों को मॉडर्न डांस सिखाते हुए मालामाल हो सकते थे। वे बच्चों को टीवी के लिए होने वाले डांस कम्पटीशन के लिए तैयार करते हुए भी अपने घर की तिजोरी भर सकते थे, लेकिन उन्होंने कला-साधना की, कला-तपस्या की। बसंत गोटिपुआ नृत्य के प्रशिक्षण को पैसा कमाने से कतई नहीं जोड़ते। उनका कहना है कि पैसा तो कई प्रकार से कमाया जा सकता है। लेकिन गोटिपुआ नृत्य करना एक आध्यात्मिक अनुभव है, जिसे पैसे से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। ये अपने आप में एक ऐसी विधा है जिसमें नाचने के साथ नचाने, बजाने, गाने की कला भी शामिल है।
तमाम विपरीत परिस्थियों और समस्याओं को बाद भी गुरुकुल को सफलतापूर्वक चलाते हुए ‘गोटीपुअ’ नृत्य के नये कलाकारों को तैयार कर पाने को बसंत अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानते हैं। बसंत जानते हैं कि जिस काम का बीड़ा उन्होंने उठाया है वह मुश्किल है। बसंत का पूरा परिवार उनके साथ ये काम करने में लगा हुआ है। बसंत भले ही आज दर्जनों बच्चों को ‘गोटीपुअ’ का प्रशिक्षण दे रहे हों, लेकिन वे स्वयं को सही मायनों में गुरु अभी भी नहीं मानते। बसंत का कहना है कि गुरू का अर्थ उस व्यक्ति से होता है जो किसी के जीवन से अंधकार को हटाकर आलोक भर दे। वे कहते हैं कि अभी तक उन्होंने किसी के जीवन में इतनी अहम् भूमिका नहीं निभाई है, लिहाज़ा बच्चे भले ही उन्हें गुरू कहकर पुकारें वे स्वयं का गुरू नहीं मानते।
बसंत कहते हैं कि आज के इस दौर में ‘गोटीपुअ’ जैसी कला के लिये अच्छे शिष्य मिलना भी बेहद मुश्किल है। नृत्य को साधना मानकर, सतत साधना में जुटे रहना हर किसी के बस की बात नहीं है। कई बार वे देखते हैं कि बच्चे थोड़े से नृत्य प्रशिक्षण के बाद ही अपनी शिक्षा को पूर्ण मान लेते हैं। कई तो स्वयं प्रशिक्षण संस्थान भी खोल लेते हैं। कई लोग ‘गोटीपुअ’ सीखने के बाद फिल्मों या फिर टीवी की दुनिया में चले जाते हैं। गुरु बसंत के मुताबिक, “ ‘गोटीपुअ’ नृत्य-कला सीखना किसी तपस्या से कम नहीं है। ये सिर्फ एक नृत्य नहीं है, ये भगवान की आराधना है। ये एक ऐसी कला है जिसकी शिक्षा कभी पूरी नहीं होती। ये सतत किया जाने वाला एक अभ्यास है और निरंतर चलते रहने वाली एक साधना।”
‘गोटीपुअ’ को बचाना और बढ़ाना बसंत के लिये एक अनुष्ठान की तरह है। उनका कहना है कि उनका जन्म ही नृत्य के लिये हुआ है और वे ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि जीवन पर्यन्त वे नृत्य की साधना करते रहें। वे कहते हैं, “मेरा जन्म संगीत और नृत्य के बीच में हुआ और मैं चाहता हूँ कि मेरी मृत्यु भी संगीत और नृत्य के बीच ही हो। मैंने हमेशा भगवान जगन्नाथ की सेवा की है और मैं अपनी आखिरी सांस तक कला के ज़रिये भगवान जगन्नाथ की सेवा करता रहूँगा।” दिलचस्प बात ये भी है कि एक समय ऐसा भी था जब उड़ीसा के कई सारे लोग अपने बच्चों को स्वतः ही ‘गोटीपुअ’ सीखने के लिए गुरुकुल भेजते थे। कई बार तो ऐसा होता था कि विद्यार्थियों/प्रशिक्षुओं की संख्या ज्यादा हो जाने के वजह से गुरु कई बच्चों को गुरुकुल में में लेने से मना कर देते थे। गुरुकुल में प्रवेश मिल जाने में घर-परिवार में खुशियाँ मनाई जाती थीं और ऐसा माना जाता था कि उनके बच्चे को स्वयं भगवान ने अपनी सेवा में लगाया है। इस समय ‘गोटीपुअ’ को धार्मिक कार्यों और पूजा-पाठ, आराधना-उत्सव से जोड़कर देखा जाता था। ‘गोटीपुअ’ गुरु-शिष्य परंपरा के ज़रिये ही बढ़ती आयी है। बदलते समय को ध्यान में बसंत का इन दिनों प्रयास है कि उनके गुरूकुल में विद्यार्थी न केवल ‘गोटीपुअ’ नृत्य व औपचारिक शिक्षा प्राप्त कर सकें, बल्कि उन्हें जीवन जीने की कला भी सिखाई जाए।
बसंत गुरु अपने शिष्यों और साथी कलाकारों के साथ इटली, स्पेन, जर्मनी, फ्रांस, स्विट्ज़रलैंड, इंग्लैंड, बेल्जियम, पुर्तगाल, मोरक्को, स्लोवाकिया, भूटान, बांग्लादेश जैसे देशों में ‘गोटीपुअ' नृत्य-कला का प्रदर्शन कर कईयों को अपना दीवाना बना चुके हैं। भारत में भी वे सभी नृत्य-समारोहों/उत्सवों में अपनी कला का प्रदर्शन कर खूब वाहवाही लूट चुके हैं। गुरु बसंत की कला-साधना, कला-सेवा अनवरत जारी भी है।