इलेआना चितारीस्ती यानी शरीर इतालवी और आत्मा भारतीय ... ओड़िसी शास्त्रीय नृत्य और आदिवासी नृत्य छऊ को समर्पित एक जीवन
भारत के भुवनेश्वर शहर से इटली के बेर्गमो शहर की दूरी करीब साड़े सात हज़ार किलोमीटर की है। दूरी सिर्फ फासले की ही नहीं बल्कि कई और तरह की भी है।भारत और इटली की कला-संस्कृति, इन दोनों देशों के लोगों का रहन-सहन, खान-पान, आध्यात्म-दर्शन अलग-अलग हैं। दोनों देशों की अपनी अलग-अलग विशेषताएं हैं। दोनों का अपना-अपना गौरवशाली इतिहास है और अपनी-अपनी विशिष्ट धरोहरें। यही वजह भी है कि दोनों देशों की दूरी और असमानता फासले से भी आगे निकल जाती हैं। लेकिन, एक महिला ने इस दूरी को इस तरह मिटाया कि उसकी कहानी अनोखी और अमिट हो गयी। बेर्गमो शहर में जन्मी एक युवती सत्तर के दशक में मुंबई आयी थी। वो पूरब के दर्शन-शास्त्र को पढ़-समझ रही थी। वो शोधार्थी थीं और उसके शोध का विषय दर्शन-शास्त्र था। रंगमंच से भी उसे बेहद प्यार हो गया था। पूरब के दर्शन-शास्त्र और यहाँ की कला-संस्कृति का अध्यनन करने के मकसद से वो युवती भारत आयी थी। जब वो युवती मुंबई के चर्चगेट पर उतरी थी तब उसे इस बात का ज़रा भी अनुमान नहीं था कि वे भारतीय कला-संस्कृति में कुछ इस तरह से रम-रमा जाएगी कि वो भारत में ही हमेशा के लिए बस जाएगी। ‘जीवन का लक्ष्य और मन की शांति’ की खोज में अपने देश इटली से भारत आयी वो युवती भारतीय संस्कृति और कलाओं से इतना प्रभावित हुई कि अपने मूल को भूल कर वो भारतीय हो गयी। उसने भारतीय कला को कुछ इस तरह से आत्मसात किया कि वो अब भारत के सबसे लोकप्रिय और सम्मानित कलाकारों में एक है। जिस कलाकार की हम यहाँ बात कर रहे हैं उनका नाम इलेआना चितारीस्ती है। इलेआना चितारीस्ती अब किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। भारतीय नृत्य-कला की दुनिया में वे लब्ध-प्रतिष्ठ व्यक्तित्व हैं। वे एक ऐसी शख्सियत हैं जिनका जन्म भारत में नहीं हुआ और जिनका दूर-दूर से भारत से कोई रिश्ता-नाता नहीं था, लेकिन उन्होंने भारतीय संस्कृति और कला को कुछ इस तरह से अपना बनाया कि वे आज दुनिया-भर में भारत की शान के रूप में जानी जाती हैं। इलेआना कला की दुनिया में बेहद मशहूर और आदर से लिया जाने वाला नाम है। इलेआना चितारीस्ती भारत के प्राचीन ओड़िसी शास्त्रीय नृत्य और आदिवासी नृत्य छऊ की बड़ी जानकार और गुरु हैं। ओड़िसी नृत्य-कला और छऊ की नृत्यांगना के तौर पर कला-जगत में अपनी विशिष्ट पहचान बना चुकी इलेआना चितारीस्ती ने खुद को अब इन दोनों नृत्य-कला के प्रचार-प्रसार में समर्पित कर दिया है। अपने जीवन को भारतीय कला और संस्कृति को समर्पित कर चुकीं इतालवी मूल की इलेआना चितारीस्ती की कहानी भी बेहद रोचक और रोमांचक है। इटली की रहने वाले इलेआना कैसे भारत पहुँची और कैसे भारतीय नृत्यकला उनके रोम-रोम में समा गई, इसके पीछे एक दिलचस्प कहानी है।और तो और, इलेआना की कहानी में भी कामयाबी के मंत्र है। इस कहानी में रूढ़िवादी ताकतों और दकियानूसी ख्यालों के खिलाफ विद्रोह है, जीवन में सुख और शान्ति पाने के लिए लम्बी खोज-यात्रा है, पसंदीदा विषय में पारंगत और विद्वत्ता हासिल करने के लिए की गयी तपस्या है, दूसरों की कला-संस्कृति को अपना बनाने का विलक्षण गुण भी है।
कामयाबी की एक अप्रतिम कहानी की नायिका इलेआना चितारीस्ती का जन्म इटली के बेर्गमो शहर में हुआ। उनके पिता सेर्विनो चितारीस्ती अपने ज़माने के मशहूर राजनेता थे। वे ‘डेमोक्रेजिया क्रिस्टियाना’ यानी क्रिस्चियन डेमोक्रेसी पार्टी से सांसद भी थे। समाज में उनका काफी रुतबा था। इलेआना का परिवार रूढ़िवादी था और उनके सभी परिजनों की ईसाई धर्म में अटूट आस्था थी। उनके करीबी रिश्तेदार पादरी भी थे। चर्च जाना और घर पर नियमित रूप से ईश्वर की प्रार्थना करना दिन-चर्या का हिस्सा था। राजनीति में सक्रीय परिवार में जन्मीं इलेआना शुरू से ही अलग सोच और मिजाज़ वाली शख्स रहीं।
इलेआना का जब जन्म हुआ था तब इटली में बदलाव का दौर शुरू हो चुका था। युवाओं में एक नया जोश था। नयी पीढ़ी रूढ़िवादी परंपराओं, रीतिरिवाजों और दकियानूसी खयालों से समाज को मुक्ति दिलाना चाहती थी। रूस में आयी क्रांति का भी गहरा असर इटली के युवाओं के मन मस्तिष्क पर पड़ा था। इटली जैसे धार्मिक प्रवित्ति वाले देश में भी वामपंथ की बयार बहने लगी थी। समाजवाद का नारा बुलंद होता जा रहा था। आर्थिक और सामाजिक सत्ता में सभी वर्गों की समान भागीदारी की मांग जोर पकड़ने लगी थी। बदलाव के लिए इटली में जो जन-आंदोलन शुरू हुआ था उसमें सबसे सक्रीय भूमिका विद्यार्थियों की थी। स्त्रीवादी आंदोलन ने भी गति पकड़ ली थी। विद्यार्थी-जीवन में इलेआना ‘बदलाव’ के लिए विद्यार्थियों और महिलाओं द्वारा किये जा रहे आंदोलन से जुड़ गयीं। जन-आंदोलन का जादू इलेआना पर कुछ इस तरह से चढ़ा कि उन्होंने भी विद्रोही तेवर अपना लिए और ‘बागी’ बन गयीं। सबसे पहले इलेआना ने चर्च जाने की परंपरा को तोड़ा। माता-पिता की जिद, जोर-ज़बरदस्ती का विरोध करते हुए इलेआना ने चर्च जाना बंद कर दिया। इलेआना ने एक बेहद ख़ास मुलाक़ात में बताया, “मैं खुद को आज़ाद नहीं महसूस कर रही थी। एक प्रकार का अनुचित बंधन था। मुझे पुराने रीतिरिवाजों से सुख और शान्ति नहीं मिल रही थी। मैं अपने अंदाज़ से जीना चाहती थी, अपने शर्तों पर जीने की आज़ादी चाहती थी। पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगने लगा था कि मैं कोई गुनाह कर रही हूँ, मैंने फैसला कर लिया कि मैं वही करूंगी जो मुझे अच्छा लगेगा। मैंने अपने परिवार के खिलाफ ही विद्रोह कर दिया था।”
बचपन की एक घटना ने इलेआना को परिवार के खिलाफ बगावत करने को प्रेरित किया था। इलेआना को बचपन से की नृत्य का शौक था। वे खुलकर नाचना चाहती थीं। संगीत पर जमकर थिरकना चाहती थीं। वे ‘बैले’ समूह (नाट्य-मंडल) का हिस्सा बनना चाहती थीं। लेकिन, परिवार ने उन्हें ‘बैले’ में शिरकत करने से मना कर दिया। फिर क्या था, इलेआना ने बागी तेवर अपना लिया और वही करना शुरू किया जो उन्हें अच्छा लगने लगा। परंपरावादी परिवार होने की वजह से इलेआना पर भी कई तरह की पाबंदियाँ थीं। कई बातें न चाहते हुए भी करने का चलन था। लेकिन, समय के साथ शिक्षित और युवा होती इलेआना विद्रोही स्वभाव की हो गयीं। इलेआना बताती हैं कि उस वक्त का पूरा माहौल ही कुछ ऐसा था कि युवाओं में जागरुकता और विद्रोही तेवर काफ़ी तल्ख हो चले थे। इलेआना भी अपने पैरों पर खड़े होकर एक आज़ाद जिंदगी जीना चाहती थीं। इलेआना ने पहले चर्च जाना बंद किया, धीरे-धीरे नियमित प्रार्थना पर विराम लगा दिया। आगे चलकर इलेआना ने नाट्य-कला को अपना लिया और एक थिएटर-ग्रुप से जुड़ गयीं। इलेआना बेर्गमो शहर से ‘थियेटरो तेस्केबिले’ नाम के एक थिएटर ग्रुप से जुड़ गयीं, जोकि उन दिनों टीटीबी के नाम से काफी मशहूर था। टीटीबी का मतलब था ... थियेटरो तेस्केबिले बेर्गमो। उन दिनों इस नाट्य-मंडली में महिला कलाकारों की कमी थी और इसी वजह से इलेआना को आसानी से ग्रुप में जगह मिल गयी। इतना ही नहीं महिला कलाकारों की कमी की वजह से इलेआना को पर्दे के पीछे अभिनय-कला का अभ्यास करने के लिए ज्यादा समय नहीं मिला और वे सीधे मंच पर आ गयीं। पर्दे के पीछे रहकर पहले प्रशिक्षण फिर दूसरे कलाकारों के अभिनय का अवलोकन कर सीखने के बजाय इलेआना ने सीधे स्टेज पर अभिनय करते हुए अपनी कला को निखारा और संवारा।
अपने पहले थिएटर परफॉर्मेंस को याद करते हुए इलेआना बताती हैं कि वो प्रथम विश्वयुद्ध पर आधारित एक नाटक था। इस नाटक की कहानी इतिहास की किसी किताब पर आधारित नहीं थी। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान युद्ध में भाग लेने वाले सैनिक अपने परिजनों को ख़त लिखा करते थे। इन्हीं खतों का मजमून ही इस नाटक का आधार था। इस नाटक को इटली में काफी सराहा गया। कई मायनों में ये नाटक प्रयोगात्मक था। ये पारम्परिक नाटक नहीं था, और इसका मकसद भी सिर्फ लोगों का मनोरंजन नहीं था। अपने परिजनों को लिखी चिट्टियों में जो पीड़ा थी, जो दर्द था, उसे उजागर करते हुए इस नाटक ने लोगों को सैनिकों की मनोदशा, सत्तासीनों द्वारा उनके साथ किया जा रहे अन्याय, युद्ध की भीषण परिस्थितियों से अवगत कराया था। इस नाटक के प्रभाव और इसकी लोकप्रिय की वजह से कुछ ही समय में इलेआना रंगमंच के रंग में पूरी तरह से रंग गयीं। इसी दौरान इलेआना ने वेनिस विश्वविद्यालय से दर्शन-शास्त्र में अपनी पढ़ाई, और अपना अध्यनन भी शुरू किया। आगे चलकर इलेआना ने दर्शन-शास्त्र में डाक्टरेट की उपाधि भी हासिल की। उनके शोध और अनुसंधान का विषय था – साइको-एनालिसिस एंड ईस्टर्न माइथोलॉजी। यानी, इलेआना ने पूरब के दर्शन-शास्त्र और यहाँ की पौराणिक गाथाओं/कथाओं पर शोध किया। कई वर्षों तक यूरोप के पारंपरिक और प्रयोगात्मक रंगमंच से जुड़े रहने और पूरब के दर्शन-शास्त्र का अध्ययन करने के बाद इलेआना ने पूरब की ओर जाना और वहां के लोगों से मिलने, उनकी जीवन-शैली, दर्शन को समझने का फैसला लिया।
इलेआना पहली बार भारत साल 1974 में भारत आयी थीं। वे कहती हैं, “भारत आने के कई सारे मकसद थे। लेकिन, सबसे बड़ा मकसद था भारत को देखना और समझना।” नयी-नयी जगह जाने, नए-नए लोगों से मिलने, ज़िंदगी में हर दिन कुछ न कुछ रोमांचक करने की इच्छा भी इलेआना को भारत खींच लाई थी। कोई तय कार्यक्रम बनाकर इलेआना भारत नहीं आयी थीं, बस ऐसे ही घूमने वे अपने देश इटली से पूरब की ओर निकल पड़ी थीं। वे विदेश में पर्यटन के समय पेश आने वाली चुनौतियों का सामने करने को भी तैयार थीं। इलेआना ने ये भी बताया कि 70 और 80 के दशक में इटली के कई सारे कवियों और लेखकों ने लोगों को दर्शन और आध्यात्म के लिए पूरब की ओर रुख करने को प्रेरित किया था। इलेआना भी उन्हीं लोगों में से एक थीं जिन्होंने भारतीय अध्यात्म और दर्शन को समझने के लिए पूरब की ओर रुख किया था। अपनी पहली भारत-यात्रा के दौरान इलेआना ने खजुराहो, बनारस जैसे धार्मिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और ऐतिहासिक शहरों की यात्रा की। इलेआना ने अपना काफी समय नेपाल में भी बिताया। अपनी पहली यात्रा में इलेआना भारत की कला-संस्कृति और लोगों से बहुत प्रभावित हुई थीं। भारत से लौटते वक्त ही उन्होंने फैसला कर लिया था वे दुबारा भारत वापस आयेंगी। लेकिन, उन्हें भारत वापस आने में तीन साल से ज्यादा का समय लग गया। इलेआना साल 1978 में दूसरी बार भारत आयीं। उन दिनों इलेआना रंग-मंच के रंग में रंगी हुईं थीं। बतौर रंगमंच कलाकार उन्होंने कई सारे प्रयोग भी करने शुरू कर दिए थे। एक मायने में रंगमंच ही इलेआना की ज़िंदगी बन गया था। इलेआना रंगमंच और अभिनय की दुनिया में भाव-भंगिमाओं और हाव-भाव की भाषा के बारे में अध्ययन करने में मशगूल हो चुकी थीं। वे कहती हैं, “जब मैं दूसरी बार भारत आयी थी तब मैं अपने शरीर के साथ प्रयोग कर रही थी। भाव-भंगिमाएं समझने की कोशिश में थी।” इटली में इलेआना ने एक बार केरल का शास्त्रीय नृत्य कथकली देखा था। कथकली नृत्य देखने के बाद इलेआना को अहसास हुआ था कि भारत की ये प्राचीन नाट्य-कला अपने आप में परिपूर्ण है और इसमें तीन कलाओं – संगीत, नृत्य और अभिनय का अद्भुत मिश्रण है। उन्होंने यह महसूस किया कि भारतीय नृत्य-कला में पूरी कहानी कहने की क्षमता है। इतना ही नहीं कथकली नृत्य में पूरे शरीर की भाव-भंगिमाओं का एक व्यवस्थित व्याकरण भी है। इलेआना भाव-भंगिमाओं का यही व्याकरण समझना और सीखना चाहती थीं। कथकली कलाकारों की भाव-भंगिमाओं से भी इलेआना बहुत प्रभावित हुई थीं। जब वे दूसरी बार भारत आयीं तब उनका मकसद था कथकली नृत्य-कला से कुछ मूवमेंट्स/स्टेप्स सीखना, ताकि वे इनका प्रयोग इटली में अपने रंगमंच जीवन में कर सकें। ये वो समय भी था जब इलेआना दर्शन-शास्त्र की पढ़ाई कर रही थीं और उनकी दिलचस्पी पूरब के दर्शन-शास्त्र में भी लगातार बढ़ती जा रही थी। भारतीय दर्शन को बेहतर ढंग से समझने और कथकली से अपने रंगमंच के लिए कुछ नया सीखने के इरादे के साथ इलेआना दूसरी बार भारत आयीं। कथकली से बेहद प्रभावित इलेआना का विचार था कि इस नृत्य की भाव भंगिमाओं का इस्तेमाल वे थिएटर कला में प्रभावी ढंग से कर सकेंगी. लेकिन भारतीय नृत्य के प्रति ये आकर्षण उन्हें नृत्य की दुनिया में इतनी गहराई तक ले जायेगा कि फिर वो इससे बाहर नहीं निकल पाएंगी, ये शायद उन्होंने सोचा भी नहीं था।
भारत की इसी यात्रा के दौरान इलेआना ने केरल में कथकली नृत्य सीखना शुरू किया। भारतीय नृत्य के इस अनोखे स्वरूप को देखकर इलेआना भाव-विभोर हो गईं। केरल में रहकर कथकली सीखने का उनका अनुभव बेहद रोमांचकारी रहा। इलेआना को अब भी अच्छे से याद हैं साल 1978 के वे दिन जब उन्होंने केरल में कथकली नृत्य सीखा था। इलेआना ने अपने कुछ साथियों के साथ केरल में तीन महीने तक कथकली नृत्य सीखने के लिये एक वर्कशॉप अटेंड किया था। अप्रैल, मई और जून के ये तीन महीने बेहद उमस और गर्मी वाले थे और पसीने में तरबतर होकर कथकली सीखना उन्हें आज भी याद है। शुरू में तो कई साथियों ने इलेआना के साथ कथकली सीखना शुरू किया था, लेकिन कई साथी वर्कशॉप को बीच में ही छोड़कर चले गए। इलेआना उन साथियों की चुटकी लेते हुए कहती हैं, “शायद उन्हें केरल का प्राकृतिक सौंदर्य इतना अच्छा लगा वे नृत्य सीखना छोड़कर प्रकृति का मज़ा लेने चले गए थे।” इलेआना और उनके दो साथी ही वर्कशॉप के ख़त्म होने तक वहीं पर रुके रहे। बड़ी बात तो या है कि कथकली सीखने के लिए इलेआना को तड़के उठना पड़ता और देर रात तक अभ्यास में लगे रहना पड़ता। इलेआना कहती हैं, “शुरू से ही मेरी एक आदत रही है। मैं जो कोई काम अपने हाथ में लेती हूँ, उसे पूरा मन लगाकर करती हूँ। बेमन से मैं कोई काम नहीं करती। मैंने कथकली भी ऐसे ही सीखी। मैंने खुद को कथकली के लिए समर्पित कर दिया था। मेरा सारा ध्यान सिर्फ कला पर था। यही वहज थी कि मेरा ध्यान नहीं भटका और मैं तीन महीने में ही कथकली सीख गयी।”
गौरतलब है कि कृष्णन नंबूदरी इटली गए हुए थे और उन्होंने वहां अपने साथी कलाकारों के साथ कथकली नृत्य पेश किया था। इलेआना को अपने देश में कथकली देखने का मौका मिला था और वे इस शास्त्रीय नृत्य-कला से इतना प्रभावित हुईं थी कि उन्होंने भारत जाकर इसके सीखने का मन बना लिया था। कृष्णन नंबूदरी ने साल 1978 में जब केरल में अपने मकान में एक वर्कशॉप का आयोजन किया तब इलेआना इटली के अपने साथियों के साथ कथकली सीखने कृष्णन नंबूदरी के यहाँ आ गयीं। कृष्णन नंबूदरी के मकान पर तीन महीने तक चले इस वर्कशॉप में इलेआना के मुख्य गुरु थे नारायण नरिपेट्टी। कथकली नृत्य के लिये किया जाने वाला भारी-भरकम और रंग-बिरंगा मेकअप, वजनदार और रंगीले वस्त्र, सिर पर मुकुट धारण करना ... ये सभी बातें इलियानी के लिये बेहद अनोखी थीं। ये नया और अनोखा अनुभव उनके लिये बेहद रोमांचकारी रहा। इलेआना को इस बात का भी अहसास हुआ कि भारत के इस प्राचीन और शास्त्रीय नृत्य में बैले, ओपेरा, मास्क और मूकाभिनय की मिश्रित छटा भी देखने को मिलती है। अपने नाम के मुताबिक कथकली वाकई वो नृत्य है जिसके ज़रिये एक पूरी कथा लोगों के सम्मुख बड़े ही मनोरम ढ़ंग से पेश की जा सकती है।
भारतीय नृत्य-कला की बारीकियों और भारत के दर्शन-शास्त्र को समझने में इलेआना को कृष्णन नंबूदरी से काफ़ी सहयोग प्राप्त हुआ। जैसे-जैसे इलेआना भारतीय नृत्य-कलाओं और दर्शन के बारे में सीखती-समझती गयीं वैसे-वैसे भारत के प्रति उनका प्रेम, सम्मान और आकर्षण लगातार बढ़ता चला गया। इलेआना ने फैसला कर लिया कि वे जितना मुमकिन हुआ उतना भारतीय कलाओं और संस्कृति के बारे में सीखेंगे। इलेआना भारतीय नृत्यकला के बारे में और भी जानना चाहती थीं, कृष्णन ने उन्हें ओड़िसी नृत्य और संयुक्ता पाणिग्रही के बारे में बताया। संयुक्ता पाणिग्रही अपने ज़माने की बहुत की लोकप्रिय कलाकार थीं। संयुक्ता ओड़िसी नृत्य के क्षेत्र में आने वाली पहली ओड़िया महिला थीं। ओड़िसी नृत्य की लोकप्रियता और प्रसिद्धि को बढ़ाने में संयुक्ता का बहुत बड़ा योगदान रहा है। कृष्णन नंबूदरी के कहने पर इलेआना संयुक्ता पाणिग्रही से मिलीं। संयुक्ता पाणिग्रही ने इलेआना को गुरु केलुचरण महापात्र के बारे में बताया। गुरु केलुचरण महापात्र उन दिनों दुनिया-भर में मशहूर थे और उन्हें उड़ीसी नृत्य का सबसे बड़ा जानकार, कलाकार और गुरु माना जाता था। इलेआना को बाद में इस बात का पता चला कि कथकली के विद्वान और गुरु कृष्णन नंबूदरी को भी ओड़िसी नृत्य से बहुत लगाव था और इसी वजह से जब इलेआना ने उनसे और भी नृत्य सिखाने की गुज़ारिश की थी तब उन्होंने ओड़िसी नृत्य सीखने को कहा था। कृष्णन नमूदरी ओड़िसी नृत्यांगना संयुक्ता पाणिग्रही से मिल चुके थे और उनकी प्रतिभा से बेहद प्रभावित थे, इसी वजह से उन्होंने इलेआना को उनका नाम सुझाया था। संयुक्ता पाणिग्रही ने कागज़ के एक टुकड़े पर गुरु केलुचरण महापात्र का नाम लिखकर उनसे मिलने और उनके सानिध्य में ओड़िसी नृत्य सीखने की सलाह दी थी।
उड़ीसा राज्य को अपनाने से पहले इलेआना के मन पर केरल का राज था। वे केरल के लोगों, वहां की संस्कृति और कलाओं से प्यार करने लगी थीं। कथकली नृत्य-कला ने उन्हें अपने वश में कर लिया था। इलेआना कहती हैं, “केरल ने मेरी ज़िंदगी बदल दी थी। केरल ने मुझे एक ऐसी दुनिया से परिचय कराया था कि जिसके लिए मैं भटक रही थी, एक ऐसी दुनिया जिसकी तलाश मुझे कई सालों से थी। कथकली सीखने का अनुभव बहुत ही शानदार था।” रोचक बात ये भी है कि कथकली सीखने के दौरान इलेआना ने महिला होने के बावजूद पुरुष पात्रों का अभिनय और नृत्य किया। इसकी एक ख़ास वजह थी – इलेआना को मुकुट पहना बहुत पसंद था और मुकुट पुरुष पात्र ही पहनते थे। इलेआना को वो घटना भी याद है जब एक दिन कथकली नृत्य पेश करने के बाद उन्होंने सिर से मुकुट उतरा था तो उनके सामने कृष्णन नंबूदरी खड़े थे। अपने नृत्य-प्रदर्शन से इलेआना इतना खुश थीं कि उन्होंने कृष्णन नंबूदरी से कहा था – मैं और भी बहुत कुछ सीखना चाहती हूँ। इस पर कृष्णन नंबूदरी ने ओड़िसी नृत्य सीखने और इसके लिए संयुक्ता पाणिग्रही से मिलने की सलाह दी थी।
केरल की कई सारी यादें अब भी इलेआना के मन में ताज़ा हैं। लेकिन, उन्हें इस बात का मलाल और दुःख है कि अपने केरल प्रवास के दौरान उन्होंने अपनी एक भी फोटो नहीं खिचवाई और न ही किसी ने उनकी कोई फोटो खींची। इलेआना बताती हैं, “मैं एक हिप्पी की तरह केरल गयी थी। मेरे साथियों में से भी किसी ने फोटो कैमरा नहीं लिया था। हम जब कथकली की वर्कशॉप में थे तब भी किसी ने मेरी फोटो नहीं ली। मैंने जब उस भारी-भरकम वेशभूषा और रंग बिरंगी साजसज्जा में कथकली की थी उसकी एक भी तस्वीर मेरे पास नहीं है, इस बात का मुझे बहुत दुःख और अफ़सोस है।” इलेआना ने जब अपनी आत्मकथा लिख रही थीं तब उन्हें इस बात का अहसास हुआ था कि जीवन के सबसे यादगार दिनों में से एक – यानी अपने केरल प्रवास – की एक भी तस्वीर उनके पास नहीं है। उन्होंने कृष्णन नंबूदरी की पत्नी से भी संपर्क किया था और उन्हें ये जानकर आश्चर्य और दुःख हुआ था कि केरल में भी किसी के पास कथकली वेशभूषा में उनकी कोई तस्वीर नहीं है। इलेआना को ये जानकर भी बहुत आश्चर्य हुआ था कि जिस वर्कशॉप में उन्होंने हिस्सा लिया था वो विदेशियों के लिए अपने किस्म की पहली वर्कशॉप थी। इलेआना ने अपने साथियों से भी पूछताछ की लेकिन निराशा ही उनके हाथ लगी क्योंकि किसी ने भी केरल में उनकी फोटो नहीं ली थी।
बहरहाल, ओड़िसी नृत्य और गुरु केलुचरण महापात्र के बारे में जानकारी हासिल करने के बाद इलेआना अपने देश इटली लौट गयीं । साल 1979 में इलेआना फिर से, यानी तीसरी बार भारत आईं। ओड़िसी नृत्य सीखने की प्रबल इच्छा इस बार उन्हें भारत खींच लाई थी। भारत आते ही इलेआना सीधे उड़ीसा में गुरु केलुचरण महापात्र के यहाँ गयीं। इलेआना का मानना है कि उनकी किस्मत अच्छी थी कि उन्हें केलुचरण महापात्र जैसे योग्य गुरु के मार्गदर्शन में ओड़िसी नृत्य सीखने का अवसर मिला। इलेआना वो दिन कभी नहीं भूल सकती जब पहली बार वे गुरु केलुचरण महापात्र से मिली थीं। उन्हें याद है कि पहली बार जब वे गुरुजी के घर उनसे नृत्य सीखने की इच्छा लेकर पहुँची तब वे पश्चिमी परिधान में थीं। उस दिन इलेआना ने स्लीवलेस बनियन और स्कर्ट पहनी हुई थी और उनके बाल बिखरे हुए थे। इलेआना की वेशभूषा, भाषा और उनके हावभाव देखकर गुरु के यहाँ मौजूद सभी लोगों को बहुत ताज्जुब हुआ था। इलेआना बताती हैं, “सबसे ज्यादा हैरान गुरु की पत्नी हुई थीं, वे मुझे गुरूजी की शिष्य-मंडली में शामिल करने की इछुच्क भी नहीं दिखाई दे रही थीं। लेकिन मेरी खुशनसीबी थी कि मुझे गुरु केलुचरण महापात्र जैसे महान व्यक्ति ने अपना शिष्य बना लिया।” इलेआना के मुताबिक, गुरु केलुचरण महापात्र बहुत विद्वान थे। उन्हें नृत्य-संगीत का ज्ञान तो था ही वे लोगों को भी अच्छी तरह से पहचान लेते थे। चहरा देखकर ही गुरूजी ये जान लेते थे कि इंसान की फितरत कैसी है और वो किस तरह का इंसान है। उन्हें लोगों को समझने में ज्यादा समय नहीं लगता था। इलेआना मानती हैं कि गुरु केलुचरण ये जान गए थे कि ओड़िसी नृत्य सीखने के लिए वे समर्पित भाव से उनके पास आयी थीं। इतना ही नहीं ओड़िसी नृत्य-कला सीखने के लिए वे कठोर तपस्या और त्याग करने को भी तैयार थीं।
इलेआना ने जब गुरु केलुचरण महापात्र से ओड़िसी नृत्य सीखना शुरु किया तो उनका विचार था कि 6 माह में वे इस नृत्य का ज्ञान लेकर इटली लौट जायेंगी। लेकिन इलेआना नृत्य में इतना तल्लीन हो गयीं कि ये 6 माह 6 साल में बदल गये। पूरे 6 साल तक इलेआना भारत में ही रहीं और भारतीय शास्त्रीय नृत्य को आत्मसात करने में ही अपना सारा समय बिताया। इलेआना में नृत्य के लिए आवश्यक प्रतिभा होने के साथ-साथ मेहनत करने का ज़बरदस्त माद्दा था। गुरु केलुचरण महापात्र भी विदेशी शिष्या की मेहनत, लगन और ईमानदारी देखकर काफी प्रभावित हुए थे, हालाँकि नृत्य सीखने और सिखाने का ये सिलसिला आसान नहीं था। अपनी मेहनत, लगन और तपस्या से इलेआना कुछ ही महीनों में गुरु केलुचरण महापात्र की प्रिय शिष्यों में एक बन गयीं। गुरु के मार्ग-दर्शन और आशीर्वाद से इलेआना ने मंच पर भी अपनी नृत्य-कला का प्रदर्शन करना शुरू कर दिया। अपने दोषरहित और मनमोहक नृत्य-प्रदर्शन ने इलेआना ने सभी का दिल दर्शकों का दिल जीता। इलेआना के नृत्य का सौंदर्य लोगों के सिर चढ़कर बोलने लगा। आगे चलकर इलेआना ने भारत के सभी छोटे-बड़े शहरों में अपने नृत्य का प्रदर्शन किया।
उड़ीसा में अपने प्रवास के दौरान इलेआना मयूरभंजी छऊ के प्रति भी आकर्षित हुईं। छऊ भारत का एक आदिवासी नृत्य है जो पश्चिम बंगाल, ओड़ीसा और झारखंड राज्यों मे काफी लोकप्रिय है। इस आदिवासी नृत्य-कला के मुख्य रूप से तीन प्रकार हैं – सेरैकेल्लै(झारखंडी) छऊ, मयूरभंजी(उड़ीसी) छऊ और पुरुलिया(बंगाली) छऊ। ओड़िसी शास्त्रीय नृत्य में पारंगत होने के बाद इलेआना ने मयूरभंजी छऊ में दक्षता हासिल करने की कोशिश शुरू की। इलेआना ने गुरु हरि नायक से मयूरभंजी छऊ नृत्य सीखा और भुवेनश्वर के संगीत महाविद्यालय से आचार्य की उपाधि भी हासिल की। बड़ी बात ये भी है कि इलेआना ने न सिर्फ ओड़िसी शास्त्रीय नृत्य और छऊ नृत्य सीखा बल्कि ओड़िसी रहन-सहन, संस्कृति और भाषा को भी अपना बना लिया। उड़ीसा में नृत्य-कलाएं सीखते हुए ही इलेआना ने ओड़िया भाषा भी सीख ली। इलेआना कहती हैं, “मेरे लिए ओड़िया भाषा सीखना बहुत ज़रूरी हो गया था। गुरु केलुचरण महापात्र से नृत्य सीखने के दौरान मैं कटक में जिस परिवार के यहाँ गेस्ट बनकर ठहरी थी उनके यहाँ एक के सिवाय किसी को भी अंग्रेजी नहीं आती थी। जिस लड़के को अंग्रेजी आती थी वो भी किसी तरह से मैनेज करता। चूंकि घर के सभी लोग ओड़िया ही जानते थे मुझे भी भाषा सीखनी पड़ी।” इलेआना ने बताया कि उनके छऊ गुरु हरि नायक को अंग्रेजी बिलकुल नहीं आती थी।लेकिन, उन्होंने इलेआना को ओड़िया भाषा सिखाना शुरू किया। गुरु हरि नायक हर दिन एक नया ओड़िया शब्द इलेआना को सिखाते थे और अगले दिन इस शब्द से जुड़ा दूसरा शब्द उन्हें बताते थे। इस तरह से गुरु हरि नायक ने भी इलेआना को ओड़िया भाषा सिखाने में मदद की। गुरु केलुचरण महापात्र अंग्रेजी जानते थे और वे इलेआना से अंग्रेजी में बात करना चाहते थे, लेकिन इलेआना ओड़िया सीखने की जल्दी में थीं और वे केलुचरणजी से ओड़िया भाषा में ही बात करने की कोशिश करती थीं। उड़ीसा में, दुकानदार, सब्जीवाले जैसे लोग, सभी सिर्फ ओड़िया ही जानते थे, इन सभी लोगों से बातचीत करना भी मजबूरी थी, ऐसे में इलेआना ने खूब मेहनत कर ओड़िया सीख ली। इसे इलेआना की गज़ब की इच्छाशक्ति ही कहेंगे कि इटली से आई ये महिला जल्द ओड़िया भाषा में भी पारंगत हो गई। इलेआना ने न सिर्फ ओड़िया भाषा पर अपनी पकड़ मजबूत बनाई बल्कि उन्होंने उड़ीसा राज्य की संस्कृति को ही अपना लिया। उनका पहनावा पूरी तरह से भारतीय ख़ास तौर पर ओड़िसी हो गया। बदन पर साड़ी और माथे पर बिंदिया हमेशा रहने लगी।
इलेआना पूरी तरह से भारत ने रंग में रंग गयी। खान-पान, रहन-सहन, आचार-व्यवहार, जीवन-शैली सब कुछ उनका भारतीय हो गया। आज इलेआना ओड़िसी और छऊ नृत्य के एक सशक्त हस्ताक्षर के रूप में अपनी पहचान रखती है। दुनिया-भर में उनकी पहचान ओड़िसी और छऊ नृत्य की एक बड़ी कलाकार, विद्वान और गुरु के रूप में है। दुनिया के कई हिस्सों/देशों/शहरों में वे ओड़िसी और छऊ नृत्य-कला का प्रदर्शन कर लाखों/करोड़ों लोगों को अपना प्रशंशक/दीवाना बना चुकी हैं। इलेआना ने देश और दुनिया के कई सारे सांस्कृतिक और कला उत्सवों/समारोहों में हिस्सा लेकर उनकी शोभा बढ़ाई है। इलेआना ने उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर को अपना स्थाई निवास बना लिया है। भुवनेश्वर में वे लोगों को ओड़िसी और छऊ नृत्य-कला भी सीखा रही हैं। इलेआना के शिष्यों की फौज में कलाकारों की संख्या भी लगातार बढ़ती चली जा रही है।
इलेआना ने नृत्य और संगीत के ज़रिये पूरब और पश्चिम को जोड़ने की भी सफल कोशिश की हैं। उन्होंने ओड़िसी और छऊ नृत्यों में पश्चिमी नृत्य-कलाओं के कुछ महत्वपूर्ण अंगों को जोड़कर उसे अंतर्राष्ट्रीय मंच पर स्थापित किया। मयूरभंजी छऊ नृत्य-शैली में ग्रीक माइथोलॉजी यानी यूनानी पौराणिक कथाओं को ‘इको नद नारसिसिस’ नामक नृत्य-नाटिका में पेश करने के लिए इलेआना को 1985 में मुंबई के ईस्ट वेस्ट डांस एनकाउंटर में बहुत सराहा गया। ऐसे प्रयोग उन्होंने कई सारे किया हैं। इलेआना ने नृत्य-संगीत-रंगमंच-चित्रकला जैसी कलाओं से जुड़े विचारों के आदान-प्रदान के लिए 1996 में आर्ट विज़न अकादमी नाम से एक संस्था की भी शुरुआत की। इसी संस्था के जरिया इलेआना लोगों को ओडिशी और छाऊ नृत्य-कला का शिक्षण और प्रशिक्षण भी दे रही हैं।
इलेआना बहुआयामी व्यक्तित्व हैं। एक उम्दा कलाकार होने के साथ-साथ वे एक सक्रीय और बढ़िया लेखिका भी हैं। उन्होंने कला-संस्कृति, दर्शन जैसे विषयों पर कई सारे लेख लिखे हैं, उन्होंने कई किताबें भी लिखी हैं। वे अपनी आत्म-कथा भी लिख चुकी हैं। उके लेख भारत और विदेशों की कई सारी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। कला-संस्कृति-दर्शन के क्षेत्रों में उनके अमूल्य योगदान के लिए कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों और अवार्डों से सम्मानित किया जा चुका है। भारत सरकार उन्हें ‘पद्मश्री’ सम्मान से भी नवाज़ चुकी है।अपने शानदार और गौरवशाली कलाकार-जीवन के दौरान इलेआना ने फिल्मों के लिए भी नृत्य-निर्देशन किया है। अपर्णा सेन द्वारा निर्देशित फिल्म ‘युगांतर’ में उनके शानदार नृत्य-निर्देशन के लिए उन्हें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी मिल चुका है। वे एम. एफ. हुसैन की बहुचर्चित फिल्म ‘मिनाक्षी : ए टेल ऑफ़ थ्री सिटीज’ और गौतम घोष की ‘अबार अरण्ये’ जैसी फिल्मों के लिए शानदार नृत्य देकर फ़िल्मी दुनिया में भी खूब शोहरत कमा चुकी हैं।
एक सवाल के जवाब में इलेआना ने कहा, “मुझे उस समय सबसे ज्यादा खुशी मिली थी जब पहली बार मेरे निर्देशन में एक नृत्य-नाटिका का मंचन हुआ था। वो दिन मैं कभी नहीं भूल सकती। उस दिन मुझे अहसास हुआ था कि हाँ मैं भी कुछ सीख चुकी हूँ और मैं भी अच्छा काम कर सकती हूँ।” वे कहती हैं, “एक कलाकार के रूप में मेरी हर तरफ तारीफ़ हुई है। तारीफ़ सुनकर मुझे बहुत खुशी होती है। शुरू के दिनों में मैं जब नाचती थी तब लोग आकर मुझसे एक ही बात कहते थे – आप जन नाचती हैं तो ऐसा नहीं लगता कि आप विदेशी हैं। मुझे ये बात सुनकर बहुत खुशी होती थी। इन दिनों लोग मेरे विदेशी होने की बात नहीं करते, क्योंकि मैंने खुद को ओड़िसी संस्कृति में पूरी तरह से तल्लीन कर दिया है।” भारत में उनके शुरुआती दौर में जब पत्र-पत्रिकाओं में उनके डांस रिव्यू लिखे जाते थे उसमें सबसे प्रमुख बात ये होती थी कि पूरे शो के दौरान एक बार भी ये नहीं लगता था कि इलेआना भारतीय कलाकार नहीं हैं। सभी कहते थे कि मंच पर जाने के बाद वे इतालवी नहीं रहतीं। स्टेज पर वे केवल और केवल एक कलाकार होती हैं। वैसे तो ओड़िसी और छऊ नृत्य-कला को आत्मसात करने वाले कई सारे कलाकार हैं लेकिन इन सभी कलाकारों में इलेआना की अपनी बेहद अलग पहचान है।
अपने जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि के बारे में पूछे जाने पर वे कहती हैं कि सबसे बड़ी उपलब्धि अभी प्राप्त करना शेष है, लेकिन ‘पद्मश्री’ जैसा प्रतिष्ठित पुरस्कार पाना निश्चित रूप से एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। इलेआना ने कहा कि भारत की बड़ी-बड़ी हस्तियों के साथ ‘पद्मश्री’ जैसा सम्मान लेना उनके लिए बड़े गर्व की बात थी। इन दिनों ‘गुरु’ की भूमिका में काफी व्यस्त इलेआना का ये भी मानना है कि सही मायनों में उन्हें सफलता तब मिलेगी जब उन्हें नृत्य के प्रति गहरा लगाव रखने वाले शिष्य मिलेंगे जो उनके काम और मकसद को और आगे ले जा सकेंगे। इलेआना ने ये कहने में कोई हिचक नहीं दिखाई कि उनके काम को आगे बढ़ाने वाला शिष्य उन्हें अभी तक नहीं मिला है और जब वे अपने इसी शिष्य की खोज को पूरा कर लेंगी वो ही उन्हें जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि होगी। भारत के बारे में बात करते हुए इलेआना बहुत ही भावुक हो जाती है। वे कहते हैं ‘भारत महान देश है। ये मेरा सौभाग्य है कि यहाँ के लोगों ने मुझे पूरी तरह से स्वीकार कर लिया है। मुझे भारत-भर में बहुत प्यार मिला। उड़ीसा के लोगों ने भी मुझे बहुत प्यार दिया। मैं तो भारत की संस्कृति में पूरी तरह से रम चुकी हूँ।”
वैसे तो भारतीय अध्यात्म और दर्शन से प्रभावित होने वाले विदेशियों की कमी नहीं है। दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से भारत आने वाले कई विदेशी सैलानी/ज्ञानी यहाँ की संस्कृति से प्रभावित होकर यहीं के रंग में रंग जाते हैं। लेकिन, जिस तरह से इलेआना ने खुद को भारतीय रंग में रंग है वैसी मिसालें बहुत ही कम देखने को मिलती हैं। और, जब कभी किसी विदेशी मूल की महिला के भारतीय बन जाने की बात आती है तो सबसे पहला नाम कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष का आता है। सोनिया गाँधी भी इलेआना की तरह की इटली से हैं, लेकिन भारत में दोनों ने अपने-अपने अलग कार्य-क्षेत्र चुने हैं, एक ने राजनीति में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है तो दूसरी ने अपने प्रतिभा से कला-जगत में विशेष जगह पायी है।