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जेटली का सबसे बड़ा सिरदर्द राजकोषीय घाटा

बजट 2018-19 पर विशेष रिपोर्ट...

जेटली का सबसे बड़ा सिरदर्द राजकोषीय घाटा

Thursday January 25, 2018 , 8 min Read

अगले माह पहली तारीख को आम बजट 2018-19 को जब केंद्रीय वित्तमंत्री संसद पटल पर रख रहे होंगे, देश के अर्थशास्त्रियों का ध्यान सबसे ज्यादा देश के राजकोषीय नफा-नुकसान पर होगा। सरकार राजकोषीय स्थिति की चुनौतियों और मुद्रास्फीति के दबाव को नजरअंदाज नहीं करती है, इसलिए ऐसे सुझाव सामने आ रहे हैं कि बजट में खर्चों और लोकलुभावन योजनाओं पर कड़े नियंत्रण की जरूरत है। बजट में भविष्य की स्थितियों को स्पष्ट होने की जरूरत है।

अरुण जेटली (फोटो साभार- मेरीन्यूज)

अरुण जेटली (फोटो साभार- मेरीन्यूज)


राजकोषीय घाटा किसी भी देश की आर्थिक स्थिति को समझने में एक महत्वपूर्ण बिंदु है। यदि किसी देश का राजकोषीय घाटा बहुत अधिक है तो इसका असर उसकी महँगाई दर पर पड़ता है। इसकी वजह से अंतरराष्ट्रीय मुद्रा बाज़ार में देश की मुद्रा के दाम घट सकते हैं। 

आम बजट 2018-19 पहली फरवरी को संसद पटल पर आने वाला है, ऐसे में जनता के सुख-दुख, सरोकारों की बात करने के साथ ही राष्ट्रीय आर्थिक संरक्षण का प्रश्न भी सामने आना स्वाभाविक है। राजकोषीय चिंताएं उन्हीं प्रश्नों से सरोकार रखती हैं। सरकार की कुल आय और व्यय में अंतर को राजकोषीय घाटा कहा जाता है। इससे पता चलता है कि सरकार को कामकाज चलाने के लिए कितनी उधारी की जरूरत होगी। कुल राजस्व का हिसाब-किताब लगाने में उधारी को शामिल नहीं किया जाता है। राजकोषीय घाटा आमतौर पर राजस्व में कमी या पूंजीगत व्यय में अत्यधिक वृद्धि के कारण होता है।

राजकोषीय घाटा किसी भी देश की आर्थिक स्थिति को समझने में एक महत्वपूर्ण बिंदु है। यदि किसी देश का राजकोषीय घाटा बहुत अधिक है तो इसका असर उसकी महँगाई दर पर पड़ता है। इसकी वजह से अंतरराष्ट्रीय मुद्रा बाज़ार में देश की मुद्रा के दाम घट सकते हैं। उदाहरण के लिए आपको एक अमेरिकी डॉलर के लिये कितने भारतीय रुपए देने होंगे, यह भी राजकोषीय घाटे से प्रभावित होता है। इसके कारण विदेशी निवेश भी प्रभावित होता है, जिसका सीधा असर नौकरियों पर पड़ता है। जब किसी सरकार का ख़र्च उसके आय से अधिक हो जाए तो आय और व्यय के अंतर को राजकोषीय घाटा कहा जाता है। अंग्रेज़ी में इसे फ़िस्कल डेफ़िसिट कहते हैं। आमतौर पर इसका आकलन हर वर्ष या हर वित्तीय वर्ष में किया जाता है।

राजकोषीय घाटे को इस तरह भी समझा जा सकता है। उदाहरण के लिए यदि वर्ष 2017 में भारत सरकार की कुल आय एक हजार करोड़ है (इसमें टैक्स, उत्पादन, कृषि और अन्य सेवाओं से की गयी आय शामिल है) परंतु इसी वर्ष भारत सरकार को 1200 करोड़ रुपए का ख़र्च करना पड़ा (उदाहरण के लिए तेल का आयात, रक्षा उपकरणों का आयात, पहले लिए गए ऋण, अन्य आंतरिक व्यय) तो कुल राजकोषीय घाटा होगा दो सौ करोड़। इस घाटे को पूरा करने के सरकार केंद्रीय बैंक (भारत में रिज़र्व बैंक) से ऋण लेती है या फिर निवेश बाज़ार में बॉंड ( निवेश पत्र) जारी करती है।

करीब तीन दशक पहले की बात करें तो देश में बहुत कम लोगों ने राजकोषीय घाटे का नाम सुना होगा। इस शब्द का आधिकारिक तौर पर प्रयोग पहली बार वर्ष 1989-90 की आर्थिक समीक्षा में किया गया था। वर्ष 1991 के आर्थिक संकट के बाद स्थिरीकरण की प्रक्रिया और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के कार्यक्रमों के बीच इसकी चर्चा और भी अधिक होने लगी। निश्चित तौर पर हमारी सरकार ने उस वक्त इसे गंभीरता से नहीं लिया था लेकिन आज वक्त बदला है और आज राजकोषीय घाटे में कमी लाना सरकार की पहली प्राथमिकता बन चुकी है। इन दिनों आम बजट 2018-19 की तैयारी में राजकोषीय घाटा साधने की कसरत भी जोर-शोर चल रही है। केंद्र सरकार की पूरी टीम इस कसरत में जुटी हुई है।

बैंकिंग सेक्टर के विशेषज्ञ कह रहे हैं कि सरकार राजकोषीय स्थिति की चुनौतियों और मुद्रास्फीति के दबाव को नजरअंदाज नहीं कर सकती। बजट में खर्चों और लोकलुभावन योजनाओं पर कड़े नियंत्रण की जरूरत है। बजट में भविष्य में कराधान की प्रकृति और नियमों व प्रक्रियाओं को स्पष्ट किए जाने की जरूरत है। इसके अलावा, अटकी पड़ी परियोजनाओं की मंजूरियों के लिए आवश्यक कदम उठाने की जरूरत है, जिससे निवेशकों का विश्वास बहाल हो।

इस बीच पता चला है कि देश का राजकोषीय घाटा 2018-19 में बढ़कर जीडीपी का 3.5 फीसदी हो जाने का अनुमान है, लेकिन इसका वृहत आर्थिक स्थिरता पर कोई खास असर नहीं होने की संभावना है। मोर्गन स्टेनले की एक रिपोर्ट के अनुसार राजकोषीय घाटा 2018-19 में 2017-18 के मुकाबले बढ़कर 3.5 फीसदी होने का अनुमान है। वर्ष 2017-18 में इसके 3.4 प्रतिशत रहने की संभावना है। रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि ग्रामीण तथा सामाजिक योजनाओं पर कुल व्यय जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) के प्रतिशत के रूप में स्थिर रहने की संभावना है।

वर्ष 2018 में होने वाले विधानसभा चुनावों तथा मई, 2019 में आम चुनाव तथा कमजोर निजी निवेश को देखते हुए सरकार की राजकोषीय स्थिति को लेकर चिंता बढ़ी है। भारतीय अर्थव्यवस्था के तेजी के रास्ते पर बढ़ने की उम्मीद है और 2018-19 में वृद्धि दर सुधरकर 7.5 फीसदी रहने की उम्मीद है। आने वाली तिमाहियों में अर्थव्यवस्था में और तेजी आ सकती है। इसका कारण खपत और निर्यात के अनुकूल रहने की उम्मीद है। हमारा 2018-19 में व्यय में वृद्धि तथा राजकोषीय घाटे में वृद्धि का अनुमान है, लेकिन इससे मुद्रास्फीति अप्रभावित रह सकती है।

वित्त मंत्रालय का कहना है कि चालू वित्त वर्ष में राजस्व वसूली कम रहने की आशंका के बावजूद वह राजकोषीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 4.6 प्रतिशत के दायरे में रखने का प्रयास करेगा। आर्थिक मामले विभाग में सचिव आर गोपालन ने कहा है वित्त मंत्री के लिये राजकोषीय घाटे को नियंत्रण में रखना काफी महत्वपूर्ण है। राजकोषीय घाटे को 4.6 प्रतिशत पर नियंत्रित रखना है। इसलिए हम सभी उसी दिशा में काम करेंगे। इस साल राजस्व वसूली की वृद्धि पिछले साल के मुकाबले कम रह सकती है। ऐसे में सरकार का प्रयास रहेगा कि खर्चे को बजट प्रावधान के दायरे में रखा जाये।

सरकार समाप्त वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 4.7 प्रतिशत पर रखने में सफल रही है। यह वर्ष के संशोधित अनुमान 5.1 प्रतिशत से भी काफी नीचे रहा है। चालू वित्त वर्ष के लिए बजट में घाटे को जीडीपी का 4.6 प्रतिशत पर लाने का लक्ष्य रखा गया है। पिछले वित्त वर्ष में सरकार की राजस्व वसूली उसके तय अनुमान से बेहतर रहने पर राजकोषीय घाटे में संशोधित अनुमान के भी उपर 32,000 करोड़ रुपये की कमी रही। इस दौरान सरकार का राजस्व घाटा भी 3.4 प्रतिशत के बजट अनुमान से कम होकर 3.11 प्रतिशत रह गया। यह 13वें वित्त आयोग द्वारा व्यक्त 3.2 प्रतिशत के अनुमान से भी कम रहा है। वर्ष 2011-12 के लिये सरकार को राजस्व घाटा तीन प्रतिशत तक नीचे आने की उम्मीद है।

उधर, बाजार की एक और तस्वीर सामने आई है। शेयर बाज़ार जनवरी माह में लिवाली के समर्थन के चलते वापस उसी स्तर पर आ गया है जिस स्तर पर वह नोटबंदी के पहले था। तेजी के पीछे एक बड़ी वजह यह रही है कि निवेशकों को उम्मीद है कि वित्त मंत्री अरुण जेटली बजट में व्यक्तिगत और कॉर्पोरेट स्तर पर छूट देंगे। बाजार को इस बात की भी उम्मीद है कि जेटली नोटबंदी के बुरी तरह तबाह हुए इंफ्रास्ट्रक्चर और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने के लिए कुछ बड़े कदम उठाएंगे।

विश्लेषकों ने चेतावनी दी है कि यदि बजट निराशाजनक रहा तो निफ्टी 8000 के स्तर पर आ सकता है या इससे भी नीचे जा सकता है। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि इस वर्ष का बजट पेश करना अरुण जेटली के लिए मुश्किल चुनौती होगी। अर्थशास्त्रियों को उम्मीद है कि जेटली राजकोषीय घाटे को वर्ष 2017-18 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 3.3-3.4 प्रतिशत पर लाने का प्रयास करेंगे जो कि 3 प्रतिशत से अधिक है लेकिन राहत की बात यह है कि यह 3.5 से कम है। इस बीच रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड एंड पुअर्स ने वित्त मंत्री अरुण जेटले से बजट 2017 में राजकोषीय सुदृढ़ीकरण के तय रास्ते पर डटे रहने की अपील की है। ऐसा नहीं होने पर रेटिंग और गिरने की आशंका बढ़ेगी।

गौरतलब है कि सरकार के कई प्रयासों के बावजूद एसएंडपी ने भारत की रेटिंग में कोई सुधार नहीं किया था। एजेंसी ने राजकोषीय स्थिति की कमजोरी का हवाला देते देश की साख के मौजूदा स्तर से उंचे स्तर पर पहुंचने की संभावना से इनकार किया था। एजेंसी ने देश की वित्तीय साख को ‘बीबीबी-ऋणात्मक’ के स्तर पर बरकरार रखा था। राजकोषीय अर्थव्यवस्था के जानकार कहते हैं कि नहीं लगता, कॉर्पोरेट जीएसटी के लिए पूरी तरह से तैयार है। विमुद्रीकरण और जीएसटी आय को प्रभावित कर सकते हैं। वैश्विक स्तर पर तेल की कम कीमतों के कारण सरकार को उत्पाद शुल्क से होने वाले राजस्व का संग्रह बजट लक्ष्य से आगे निकल सकता है।

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