ढाबों, होटलों में जूठे बर्तन मांजने वाला बन गया सीए!
कवि केदारनाथ अग्रवाल लिखते हैं- 'जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है, तूफ़ानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है, जिसने सोने को खोदा, लोहा मोड़ा है, जो रवि के रथ का घोड़ा है, वह जन मारे नहीं मरेगा, नहीं मरेगा।' यह एक ऐसे ही शख्स की दास्तान है। होटलों, ढाबों में जूठे बर्तन मांजकर, सब्जियां, पन्नियां और खाली बोतलें बीन-बेचकर जिंदगी बितानी पड़ी।.... और एक दिन वह चार्टर्ड अकाउंटेंट बन गया!
वैसी दुश्वारियां बर्दाश्त कर लेना हर किसी के वश का नहीं होता है। ऐसे वक्त में कुछ बनने की अटूट चाहत, अथक परिश्रम के बल पर ही अपने ऊंचे सपने साकार किए जा सकते हैं।
वे तो बड़ी-बड़ी बातें हैं कि अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन सड़क पर लगे लैम्पपोस्ट के नीचे पढ़ाई किया करते थे। भारत के प्रधानमंत्री रहे लालबहादुर शास्री को पढ़ने के लिए पीठ पर बस्ता लादकर तैरते हुए गृहनगर वाराणसी में गंगा के उस पार रामनगर जाना पड़ता था। ऐसे और भी कई एक नामवर, जो अपनी मुश्किलों से पार पाते हुए देश-दुनिया में मशहूर हुए लेकिन आज मीडिया प्रवाह में आए दिन ऐसे 'गुदरी के लाल' सुर्खियां बनने लगे हैं। ऐसा ही एक नाम है भोपाल (म.प्र.) के मुकेश राजपूत का, जिन्हे चार्टर्ड अकाउंटेंट बनने से पहले तरह-तरह के पापड़ बेलने पड़े। जिंदगी ने उनका खूब इम्तिहान लिया। कभी रेलवे स्टेशन पर पन्नियां और खाली बोतलें बीनकर बेचते रहे तो कभी मुंबई के होटलों में वर्षों जूठे बर्तन धोते रहे। चौकीदारी भी करनी पड़ी। तब कहीं दस साल की कड़ी मेहनत के बाद वह वर्ष 2010 में सीए बन पाए। इससे पहले का उनका पूरा सफ़र अत्यंत कठिनाइयों से भरा रहा। पांचवीं क्लास के बाद पढ़ाई छूट गई।
गुजर-बसर के लिए कभी होटल-रेस्टारेंट तो कभी ढाबों की यंत्रणादायी नौकरियां लेकिन उन्होंने कभी हिम्मत नहीं हारी। मन में कुछ बनने का जुनून था। पांचवीं के बाद छूटी पढ़ाई पूरी करने का अवसर नहीं मिला तो सीधे दसवीं क्लास का प्राइवेट फार्म भरा। उसमें भी उन्हें तीन बार लगातार असफलताएं मिली। चौथी बार में पास हुए। जिन दिनो वह सीए की पढ़ाई कर रहे थे, आईपीसीसी के फर्स्ट ग्रुप में लगातार छह बार असफल होते रहे। आखिरकार, चार्टर्ड एकाउंटेंट्स बन ही गए। आजकल वह में भोपाल में सीए की प्रैक्टिस कर रहे हैं।
मुकेश 'स्टार प्लस' के गेम शो 'सबसे स्मार्ट कौन?' में दो लाख रुपए का पुरस्कार भी जीत चुके हैं। इस शो के बारे में वह कहते हैं कि यह एकदम अलग हटकर है। उनको ऐसे मंच मिलने का इंतजार रहता है, जहां वह अपने सफर के बारे में लोगों से सीधे बात कर उनको प्रेरित कर सकें। कठिन संघर्षों का जीवन जी चुके मुकेश सीए की प्राइवेट प्रैक्टिस के अलावा स्कूल-कॉलेजों में युवाओं को अपने मोटिवेशनल लेक्चर से प्रोत्साहित भी करते रहते हैं। वह कहते हैं कि यदि अपनी मेमोरी को तेजी से बढ़ानी हो तो सबसे पहले स्वयं की तारीफ करनी चाहिए। कभी भी यह नहीं कहना, न सोचना चाहिए कि अपनी मेमोरी इन दिनों कम हो रही है या मुझे आजकल कुछ याद नहीं रहता। जब भी कोई पूछे कि कैसे हैं आप, तो कभी यह न कहें कि चल रही है, कट रही है, घिसट रही है, बस जी रहे हैं। सकारात्मक और खुश करने वाला जवाब दें। इससे स्वयं को भी बहुत खुशी महसूस होती है और सामने वाला भी प्रसन्न हो जाता है। दुःख और परेशानी सबके साथ होती है। इसे केवल माता-पिता या उनसे शेयर करना चाहिए, जिनसे मदद मिलती हो। हर किसी से अपना दुखड़ा रोने से स्वयं का नुकसान होता है, स्वयं की कुंठा और नाखुशी बड़ी घातक होती है, मस्तिष्क नकारात्म रिजल्ट देने लगता है।
यह भी उल्लेखनीय है कि बड़ा पाव बेचने से लेकर सीए बनने तक सीए मुकेश राजपूत अभाव के दिनो में पैसा कमाकर अपने परिवार की मदद के लिए भोपाल स्थित अपने घर से भाग गये थे। यद्यपि वह माता-पिता के झगड़ों से तंग आकर ही घर छोड़ गए थे। कभी उनको सब्जियां भी बेचनी पड़ीं, हार्डवेयर स्टोर में काम किया लेकिन उनके दोस्त हमेशा उन्हें पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते रहे। वह बताते हैं कि पैसा कमाने के लिए मुंबई गए तो वहां भी दोस्त मोटिवेट करने लगे। उनकी बातें सुनकर वह दोबारा भोपाल लौटे। फिर पढ़ाई में जुट गए। बाद में सीए की परीक्षा की तैयारियां करते रहे। वह डिग्री तो मिल गई, आज प्रैक्टिस भी कर रहे हैं लेकिन उतने से ही उनका जी नहीं माना।
यद्यपि मुकेश खुद को कोई पेशेवर लेखक नहीं मानते हैं, खुद के जीवन का फर्श से अर्श तक का कथानक बुनते हुए उन्होंने रोचक अंदाज में एक किताब लिखी - ‘सीए पास द रियल स्टोरी’ इस पुस्तक में वह बताते हैं कि घर से बाहर रहकर अनाथ जैसा बचपन बिताना कितना कठिन होता है। वैसी दुश्वारियां बर्दाश्त कर लेना हर किसी के वश का नहीं होता है। ऐसे वक्त में कुछ बनने की अटूट चाहत, अथक परिश्रम के बल पर ही अपने ऊंचे सपने साकार किए जा सकते हैं। ये पुस्तक बताती है कि असफलताएं वास्तव में गलतियों की मात्र एक पुनरावृत्ति होती हैं। उनसे हारकर बैठ जाने की बजाए उनसे निपटने का हुनर और कला अपने अंदर खुद विकसित करनी पड़ती है। यह पुस्तक लिखने के पीछे उनका एकमात्र मकसद युवाओं को संघर्ष करते हुए आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करना रहा है।
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