न विकास, न सवाल, केवल धर्म-जाति का बवाल
कर्नाटकट चुनाव...
कर्नाटक में मठ सिर्फ आध्यात्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों के केंद्र ही नहीं हैं बल्कि प्रदेश के सामाजिक जीवन पर भी इनका काफी प्रभाव माना जाता है। शिक्षा, स्वास्थ्य के क्षेत्र में नि:स्वार्थ सेवा के साथ कमजोर वर्ग के लोगों के सामाजिक एवं आर्थिक सशक्तिकरण में योगदान के कारण लोग इन मठों को श्रद्धा के भाव से देखते हैं।
मुख्यमंत्री सिद्धरमैया के वादे को भाजपा के हिंदुत्व एजेण्डे की काट के रूप में देखा जा रहा है। किंतु यदि भाजपा, मुख्यमंत्री सिद्धरमैया के इस दांव को हिंदुत्व विरोधी साबित कर पाने में सफल रही तो खासे लाभ में जा सकती है और यह दांव गेम चेंजर भी साबित हो सकता है।
जाति और धर्म की दहलीज पर सजदा करती हिंद की सियासत, अपना अंदाज बदलने का नाम नहीं ले रही है। हालात यह हैं कि गुजरात विधान सभा चुनावों की भांति कर्नाटक चुनाव भी जाति और धर्म की वेदी पर जनपक्षीय मुद्दों की बलि का गवाह बनता जा रहा है। कोई लिंगायत समुदाय को अलग धर्म की मान्यता प्रदान करने का वादा कर रहा है तो कोई वोक्कालिगा समुदाय का मुहाफिज होने का दावा। जो कल तक नास्तिक होने का दावा कर रहे थे वह आज अपने उदारवादी आध्यात्मिक हिंदू होने का ऐलान मंचों पर कर रहे हैं। मठों की परिक्रमा करती राष्ट्रीय सियासी जमातें भक्ति विभोर होकर कह रही हैं कि नो इफ, नो बट, ओनली मठ। चर्च और दरगाह पर भी सियासी श्रद्धालु सजदा करने बड़ी संख्या में पहुंच रहे हैं।
आलम यह है कि राजनीतिक दलों ने सांगठनिक फेरबदल में भी जाति को केंद्र में रख कर ही निर्णय लिये हैं। जैसे कांग्रेस ने पार्टी की प्रदेश इकाई में परिवर्तन किया तो कमान सौंपी दलित नेता जी.परमेश्वरा को । वहीं लिंगायत नेता एसआर पाटिल को उत्तर कर्नाटक का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया क्योंकि इस इलाके में लिंगायत समुदाय का असर है। इसी तरह वोक्कालिगा समुदाय के नेता डीके शिवकुमार को प्रचार अभियान समिति की कमान दी गई। दिनेश गुंडूराव (ब्राह्मण) को कांग्रेस ने दक्षिण कर्नाटक का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया। पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व करने के लिए मुख्यमंत्री सिद्धारमैया हैं ही। वे कुरुबा (पिछड़े) समुदाय से ताल्लुक रखते हैं।
वहीं दूसरी तरफ भाजपा भी जात-पात की जमावड़े में पीछे नहीं है। राज्य में लिंगायत समुदाय भाजपा का परंपरागत मतदाता माना जाता है इसलिए उसे अपने साथ बनाए रखने के लिए लिंगायत नेता और पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येद्दियुरप्पा को उसने काफी पहले ही अपना चेहरा घोषित कर दिया था। वहीं पिछड़ों और दलितों को साधने के लिए पूर्व उप मुख्यमंत्री केएस ईश्वरप्पा को लगाया गया है। अन्य दलों के दूसरे जातीय दिग्गजों को भी पार्टी में शामिल करने की कवायद जारी है। इनमें एक बड़ा नाम वोक्कालिगा समुदाय के नेता और राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री एसएम कृष्णा का है। हालांकि राज्यपाल और केंद्रीय मंत्री बनने के बाद उनकी स्थानीय राजनीति में असर कम हो गया है।
दरअसल गुजरात चुनावों में मंदिर-मंदिर कीर्तन करने वाले राहुल गांधी को देख चुके मतदाताओं की अपेक्षा अपने राज्य में, अपनी मान्यताओं के सम्मुख माथा टेकते देखने की है और राहुल भी कीर्तन करने का असर गुजरात चुनावों में देख चुके हैं। लिहाजा कर्नाटक में मठों की परिक्रमा में 'पहले हम' की प्रतियोगिता में दौड़ रहे राहुल को देख कर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की गति आश्चर्यजनक रूप से तेज हो गई है। दीगर है कि कर्नाटक में लिंगायत समुदाय से जुड़े करीब 4०० छोटे-बड़े मठ हैं जबकि वोकालिगा समुदाय से जुड़े करीब 15० मठ हैं। कुरबा समुदाय से 8० से अधिक मठ जुड़े हैं। इन समुदायों का कर्नाटक की राजनीति में खासा प्रभाव है, ऐसे में राजनीतिक दलों में इन मठों का आर्शीवाद प्राप्त करने की होड़ लगी रहती है।
दूसरा यह कि कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री सिद्धरमैया द्वारा लिंगायत समुदाय को अलग धर्म का दर्जा देने की पहल से उत्पन्न राजनीतिक स्थिति ने चुनाव को एकाएक धर्म केंद्रित कर दिया है। मुख्यमंत्री सिद्धरमैया के वादे को भाजपा के हिंदुत्व एजेण्डे की काट के रूप में देखा जा रहा है। किंतु यदि भाजपा, मुख्यमंत्री सिद्धरमैया के इस दांव को हिंदुत्व विरोधी साबित कर पाने में सफल रही तो खासे लाभ में जा सकती है और यह दांव गेम चेंजर भी साबित हो सकता है।
यहां यह जानना आवश्यक है कि कर्नाटक में मठ सिर्फ आध्यात्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों के केंद्र ही नहीं हैं बल्कि प्रदेश के सामाजिक जीवन पर भी इनका काफी प्रभाव माना जाता है। शिक्षा, स्वास्थ्य के क्षेत्र में नि:स्वार्थ सेवा के साथ कमजोर वर्ग के लोगों के सामाजिक एवं आर्थिक सशक्तिकरण में योगदान के कारण लोग इन मठों को श्रद्धा के भाव से देखते हैं। शायद इसीलिये अमित शाह और राहुल गांधी पराक्रमपूर्वक मठों की परिक्रमा कर रहे हैं। वहीं, राज्य में 'नाथ संप्रदाय' को साधने की कवायद के तहत भाजपा ने प्रचार के लिए योगी आदित्यनाथ को मैदान की कमान सौपी है।
ज्ञात हो कि धार्मिक ध्रुवीकरण के लिये तुष्टिकरण का दांव खेलते हुये सिद्धरमैया टीपू सुल्तान को एक हीरो के तौर पर पेश करते रहे हैं। कन्नड़ अस्मिता का पहले ही मुद्दा खड़ा कर चुके सिद्घारमैया की कोशिश मुकाबले को भाजपा बनाम कांग्रेस बनाने की है, जिससे जेडीएस के परंपरागत मतदाता माने जाने वाली वोक्कालिंगा बिरादरी में सेंध लगाई जा सके। कर्नाटक राज्य का जातीय अनुपात देखा जाये तो राज्य में दो जातियों का काफी दबदबा रहा है- लिंगायत और वोक्कालिगा। दोनों ही मजबूत कृषक समुदाय हैं।
जहां लिंगायत राज्य के उत्तरी इलाके में बड़ी संख्या में हैं, तो वहीं वोक्कालिगा पूर्व मैसूर राज्य वाले इलाके में बसे हुए हैं। यह अब दक्षिण कर्नाटक का हिस्सा है। आबादी के लिहाज से लिंगायत बड़ी जाति है, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह राज्य की कुल जनसंख्या का 17 प्रतिशत है, जबकि वोक्कालिगा 15 फीसदी है। कर्नाटक में दलित आबादी 23 प्रतिशत और मुसलमान 1० प्रतिशत हैं, बाकी छोटे धार्मिक समुदायों व उप-जातियों की आबादी है। मसलन, सिद्धरमैया कुरबा जाति के हैं, जो उत्तर भारत की अहीर जाति जैसी है। उनकी आबादी लगभग आठ प्रतिशत है।
कर्नाटक की छह करोड़ आबादी में दलितों की तादाद करीब 23 फीसदी है यानी यह समुदाय राज्य का एक बड़ा वोट बैंक है। राज्य की 224 विधानसभा सीटों में से 36 सीटें अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित हैं लेकिन ऐसा अनुमान है कि दलित समुदाय कर्नाटक की ६० विधानसभा सीटों के नतीजे निर्धारित कर सकता है। लिहाजा दलित समुदाय को अपने साथ जोड़ने के लिए बीजेपी पुरजोर कोशिश कर रही है। बीजेपी के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार बी.एस. येदियुरप्पा दलितों के घर उनके साथ खाना खाने जा रहे हैं, ताकि दूरियों को कम किया जा सके।
कर्नाटक में दलितों में मदीगा और चालावाडी प्रमुख उप जातियां हैं जो चुनावों को फैसलाकुन तरीके से प्रभावित करती हैं। विदित हो कि पारंपरिक रूप से चमड़े का काम करने वाली मदीगा जाति को अब भी अछूत माना जाता है। जबकि दलितों की ही उपजाति चालावाडी के लोगों से अछूत होने का ठप्पा हट चुका है। मदीगा जाति के लोगों की शिकायत है कि दलितों के लिए आवंटित बजट का एक बड़ा हिस्सा सिर्फ चालावाडी जाति के लोगों को दे दिया जाता है। मदीगा जाति के लोगों का कहना है कि उन्हें कायदे से 8 से १० फीसदी के बीच आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए, जबकि उनके हिस्से में आ बहुत ही कम रहा है।
बताया जा रहा है कि चित्रदुर्ग में दलित मठ के प्रमुख मधारा चेन्नैयाह के साथ अमित शाह 45 मिनट लंबी बैठक में दलित समुदाय के भीतर मदीगा जाति के लिए आंतरिक आरक्षण का वादा किया है। मध्य कर्नाटक के चार जिलों की 26 विधानसभा सीटों पर दलित मठ के प्रमुख का खासा प्रभाव है। ऐसे में बीजेपी को उम्मीद है कि वह दलित मठ के प्रमुख के आशीर्वाद से मदीगा जाति को साधने में कामयाब हो जाएगी। और इस रास्ते से बीजेपी, सिद्धारमैया के वोट बैंक कहे जाने वाले अहिंदा (पिछड़ा वर्ग, दलित समुदाय और अल्पसंख्यकों का कन्नड़ में शॉर्ट फॉर्म) को तोडऩे में भी सफल हो सकती है। वहीं दूसरी ओर कांग्रेस आलाकमान ने दलित मतों की ठेकेदारी परमेश्वर को ही सौपी है। कांग्रेस को उम्मीद है कि परमेश्वर से हुई किसी भी चूक की भरपाई पार्टी के वरिष्ठ दलित नेता मल्लिकार्जुन खडग़े कर लेंगे।
दलित वोट बैंक के लिए कांग्रेस और बीजेपी के बीच जारी सियासी जोर आजमाइश के बीच बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) भी कूद पड़ी है। बीएसपी ने कर्नाटक में जेडीएस के साथ गठबंधन किया है और वह २० सीटों पर चुनाव लड़ रही है। इनमें से 8 सुरक्षित सीटें हैं जबकि 12 सामान्य। अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्रों में उम्मीदवारों के चयन के आधार पर बीएसपी दो मुख्य पार्टियों यानी कांग्रेस और बीजेपी में से किसी एक के कुछ हजार वोट काट सकती है। कांटे की लड़ाई में कुछ हजार वोटों का नुकसान कांग्रेस और बीजेपी दोनों के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है। कर्नाटक चुनाव अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों का पूर्वाभ्यास सरीखे हैं। इसलिए दक्षिण में दलित मतों के जरिए पांव जमाने की मायावती की इच्छा को कांग्रेस हर कीमत पर अपने नए दलित चेहरे जिग्नेश मेवाणी के जरिए कुंद करने की कोशिश अवश्य करेगी।
खैर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि चुनावों में कभी-कभी जाति के आंकड़े और राजनीतिक दलों के लिये कुछ जातियों और धार्मिक समूहों की लुभावनी अपील के बावजूद, कृषि संकट, बेरोजगारी और अन्य सामाजिक-आर्थिक संकेतक, जाति से भी बड़ी प्रमुख भूमिका निभाते हैं। लेकिन गुजरात की भांति कर्नाटक में फिलहाल यह दिख रहा है कि जाति और मजहब के सापेक्ष जनपक्षधरता के सवाल धराशायी हो चुके हैं और जाति-धर्म की अंकगणतीय जुगलबंदी सत्ता के राजमार्ग पर कुलाचें भर रही है।
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