हिंदी कविता में सिंदूरी गीतों के बादशाह रामस्वरूप सिंदूर
हिंदी कविता के सशक्त हस्ताक्षर रामस्वरूप 'सिन्दूर' के जन्मदिन पर विशेष...
'मैं ऐसा दानी हूँ, जिस-पर देने को केवल परिचय है, मैं संयम के कारा-गृह से भागा हुआ एक बन्दी हूँ, और, दूसरी ओर काम का जाना-माना प्रतिद्वन्द्वी हूँ, मुझ को प्यार शरण दे बैठा, मन की जाने किस उलझन में, बीत रहे दिन रूपमहल के इस गुलशन में, उस गुलशन में, यह जग राजकुँवर कहता है, पर, जीवन उलटा बहता है, कठिन भूमिका मुझे मिली है, किन्तु सफल मेरा अभिनय है।' ये पंक्तियां है हिंदी कविता के सशक्त हस्ताक्षर रामस्वरूप 'सिन्दूर' के, जिनका आज 27 सितम्बर को जन्मदिन है।
उनका राजभवन से भी बड़ा करीब का रिश्ता रहा। वह तत्कालीन राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री के पास बराबर आते रहते थे। सिंदूर जैसे लोग अपनी कलम और भावनाओं से समाज को निरन्तर प्रेरित करते रहेंगे।
एक वक्त था, जब शीर्ष हिंदी कवि रामस्वरूप सिंदूर पूरे देश के काव्य-मंचों पर छाए रहते थे। जिन दिनो कानपुर उनका ठिकाना रहा, देश के तमाम शीर्ष कवियों की राह जैसे उसी उद्योग नगरी की ओर मुड़ चली थी। वह आजीवन रचना रत रहे, जब तक रहे, मात्र अध्यापन और लेखन ही उनकी जमा-पूंजी रहा। 27 सितंबर 1930 को कानपुर से सटे उत्तर प्रदेश के जिला जालौन के गांव दहगवाँ में उनका जन्म हुआ था। मुख्यतः कानपुर ही उनकी कर्मभूमि रहा। वहीं उन्होंने शिक्षा प्राप्त की, पत्रकारिता की और वहां के डीएवी कालेज में अध्यापन कार्य किया। वह 1998 में प्रोफेसर पद से सेवानिवृत्त होने के बाद अपने पुत्र के साथ रहने के लिए लखनऊ चले गये। वहाँ से उन्होंने एक पत्रिका 'गीतांतर' निकाली। उनके तीन काव्य संग्रह प्रकाशित हुए। वह कवि सम्मेलनों के लोकप्रिय कवि रहे थे। आज भी आकाशवाणी केंद्रों से उनके गीत प्रसारित होते रहते हैं -
जो असम्भव था, उसे सम्भव किया मैंने।
तब कहीं ‘सिन्दूर’ का जीवन जिया मैंने।
मैं प्रणय के आदि-क्षण से देह के बाहर रहा
मौन टूटा छन्द में, जो कुछ कहा गा-कर कहा
शब्द में, निःशब्द को भी गा दिया मैंने।
प्राण हिम-शीतल किया, रवि के प्रखर उत्ताप ने
काल के सीमान्त लाँघे, शून्य के आलाप ने
अमृत से दुर्लभ, अतल दृग-जल पिया मैंने।
मैं गिरा गिरि-श्रंग से, तो एक निर्झर हो गया
घाटियों में इस तरह उतरा, कि सागर हो गया
संक्रमण-सुख को सनातन कर लिया मैंने,
तब कहीं ‘सिन्दूर’ का जीवन जिया मैंने।
सिंदूर जी के पुत्र अनिल सिन्दूर बताते हैं कि मेरे पिता ने रचनाधर्मिता की धारा की गति बनाये रखने के लिए गीतान्तर पत्रिका का अनवरत प्रकाशन किया! उन्हीं की सोच को गति देने के लिए वह आज भी 'गीतान्तर' की यात्रा अपनी तरह से जारी रखे हुए हैं। उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं- 'हँसते लोचन रोते प्राण', 'आत्म रति तेरी लिए' एवं 'शब्द के संचरण' आदि। सिंदूर को उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के 'साहित्य भूषण सम्मान' से अलंकृत किया गया। 26 जनवरी 2013 को उनका निधन हो गया। उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाइक कहते हैं कि प्रो. रामस्वरूप ‘सिंदूर’ ने जो साहित्य की सेवा की है, वह अपने आप में बड़ी बात है। कवियों को सम्मान आसानी से नहीं मिलता, मगर सिंदूर जी की लोकप्रियता का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है।
उनका राजभवन से भी बड़ा करीब का रिश्ता रहा। वह तत्कालीन राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री के पास बराबर आते रहते थे। सिंदूर जैसे लोग अपनी कलम और भावनाओं से समाज को निरन्तर प्रेरित करते रहेंगे। एक भरापूरा परिवार धीरे-धीरे आँगन से विदा होता है और शून्य से आरम्भ की गयी गिनती पुनः शून्य तक आ जाती है। अभिभावक एवं घर के बुजुर्ग जिनके हाथ भावविभोर हो बच्चों के जल्दी से बड़े हो जाने की कामना करते हैं, घर में गूंजती अपनी ही आवाजों से अचानक ठिठक जाते हैं, साथ ही अधिकारों के कटते वृक्ष जीवन से शनैः शनैः हरियाली भी छीनते जाते हैं। ऐसे में आम आदमी क्या सोचता है, सब जानते हैं पर कवि सिंदूर मन की इस स्थिति को कुछ इस तरह गुनगुनाते हैं -
मैं जबरन सेवा निवृत्त अधिकार रह गया हूँ।
केवल एक व्यक्ति वाला संसार रह गया हूँ।
अपनों के अपने-अपने परिवार हो गए हैं
अपनी अपनी रुचियों के घर-द्वार हो गए हैं
मैं, जन-गण-प्रिय रहा, बंद अखबार रह गया हूँ।
कवि सिंदूर का हर गीत अपने आप में ख़ास होता है। गीत का सृजन एक यात्रा है, जो कभी धूप तो कभी छाँव कभी बादल तो कभी रिमझिम बारिश के अहसासों के बीच गिरते-उठते पूरी होती है। पहले कदम से लेकर लक्ष्य तक गीतकार लगातार गीत की उंगली थामे रहता है। हर पाठक उस गीत को अपने नज़रिए से देखता है। दृष्टिकोण अलग हो सकते हैं पर हर गीत ख़ास होता है, इसमें कोई दो राय नहीं। सिंदूर जी को दुनिया से गए वर्षों बीत गए लेकिन उनके शब्द आज भी ताज़े लगते हैं -
मैं अरुण अभियान के अन्तिम चरण में हूँ।
शब्द के कल्पान्त-व्यापी संचरण में हूँ।
सूर्य की शिखरान्त यात्रा पर चला हूँ मैं,
एक रक्षा-चक्र में नख-शिख ढला हूँ मैं,
मैं त्रिलोचन-स्वप्नवाही जागरण में हूँ।
गीत मेरे गूँजते-मिलते ध्रुवान्तों में,
मैं मुखर हूँ, ज्वालमण्डित समासान्तों में,
मैं समूची सृष्टि के रूपान्तरण में हूँ।
रामस्वरूप सिंदूर के लेखन में कुछ अलग सी जिजीविषा और जीवंतता है। साहित्य के क्षेत्र में उन्होंने जिस तरह संचार किया है, ऐसे व्यक्तित्व बिरले ही मिलते है। गहन चिंतन और संवेदना के साथ उन्होंने सुंदर काव्य दिए। उनके गीतों में आत्मविश्वास था। समाज में सद्गुणों से युक्त अलग स्थान ग्रहण करने वालों की याद समय के साथ कम होती जाती है मगर सिंदूर अपनी रचनाओं के माध्यम से आज भी जीवित हैं -
मैं अकथ्य को कहने का अभ्यास कर रहा हूँ।
नए कोर्स की कठिन परीक्षा पास कर रहा हूँ।
हूक उठे मन में तो उस पर काबू पा लेता,
यादें तंग करें तो आँखों को रिसने देता,
लोगों से मिलता हूँ मस्ती की मुद्राओं में
भीतर पूरा कवि हूँ, बाहर पूरा अभिनेता,
जल में हिम-सा बहने का अभ्यास कर रहा हूँ।
आँसू पी न सकूँ, निर्जल-उपवास कर रहा हूँ।
निपट अकेले रोने से जी हल्का होता है,
कोई नहीं पूछने-वाला तू क्यों रोता है,
ये, वे पल हैं, जो नितान्त मेरे-अपने पल हैं
यहाँ मौन ही अब मेरी कविता का श्रोता है,
घर से बाहर रहने का अभ्यास कर रहा हूँ।
ऐसा लगता है, जैसे कुछ खास कर रहा हूँ।
दीवारों में रहता हूँ, घर में वनचारी हूँ,
अब मैं सचमुच ऋषि कहलाने का अधिकारी हूँ,
मेरे सर-पर-का बोझा जो लूट ले गया है
मैं अपने अंतरतम से उसका आभारी हूँ,
दुख को, सुख से सहने का अभ्यास कर रहा हूँ।
सागर-डूबी धरती को आकाश कर रहा हूँ।
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