ट्रांसजेंडर स्टूडेंट्स को चाहिए अलग से टॉयलेट
फैसले चाहे जितने भी आ जायें, लेकिन परिसरों में आज भी टॉयलेट्स के लिए ट्रांसजेंडर छात्रों की मुश्किलें आसान क्यों नहीं हुई हैं?
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ट्रांसजेंडर के लिए भले ही केरला में विशेष व्यवस्थाएं लागू हो गई हों, देश में भले ही ट्रांसजेंडर्स के जज और प्रिंसिपल की चेयर तक पदारोहण हो चुके हैं, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, प.बंगाल सरकारें अथवा नोएडा का इंडियन स्कूल ऑफ डिवेलपमेंट प्रबंधन भले ही उनके हितों की वकालत करे, लेकिन परिसरों में टॉयलेट्स के लिए आज भी ट्रांसजेंडर छात्रों की मुश्किलें आसान नहीं हुई हैं।
गौरतलब है कि साल 2011 की जनगणना के मुताबिक हमारे देश में पांच लाख से अधिक ट्रांसजेंडर रहते हैं। सिर्फ शिक्षा ही नहीं, उनकी और भी कई गंभीर मुश्किलें हैं। वर्ष 2014 में भले ही भारत सरकार ने 'थर्ड जेंडर' की मान्यता दे दी थी लेकिन पहली बार 'राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण' बनाम केंद्र मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ों को मिलने वाले सभी अधिकार देने का फैसला सुनाया।
नोएडा (उ.प्र.) के इंडियन स्कूल ऑफ डिवेलपमेंट प्रबंधन ने दावा किया है कि उसने अपने शैक्षिक संस्थान के एकमात्र ट्रांसजेंडर छात्र पश्चिम बंगाल के कौशिक होरे के लिए जेंडर न्यूट्रल टॉइलट बनाया है। होरे ने प्रबंधन के समक्ष चार माह पूर्व यह व्यक्तिगत मसला उठाया था। होरे की समस्या देश के कोई पहले ट्रांसजेंडर छात्र की समस्या नहीं है, न ही पूरे ट्रांसजेंडर समुदाय की यह कोई एक मात्र समस्या है। जबकि, हमारे देश में इसी वर्ष पश्चिम बंगाल की ही रहने वाली जोइता मंडल देश की पहली ट्रांसजेंडर जज बन चुकी हैं। वह वृद्धाश्रम चलाने के साथ ही रेड लाइट एरिया के परिवारों की समाज सेवा करती रही हैं।
जोइता मंडल आम किन्नरों की तरह बच्चों के पैदा होने पर घर-घर जाकर तालियां बजाती रही हैं। जोइता कहती हैं कि एक वक्त में जब वह कॉलेज जाती थीं, उनका मजाक उड़ाया जाता था। दुखी होकर पहले उन्होंने स्कूल छोड़ा, फिर घर, बस अड्डे और रेलवे स्टेशन पर रातें गुजारीं, फिर किन्नरों के डेरे पर चली गईं। नाचने-गाने लगीं लेकिन पढ़ाई जारी रखी, किन्नरों के हक के लिए एक संस्था बनाई, बुजुर्गों के लिए वृद्धाश्रम स्थापित किया, रेड लाइट एरिया की महिलाओं, बच्चों के लिए राशन कार्ड, आधार कार्ड बनवाए। इसी तरह कृष्णानगर (पं.बंगाल) की ही मानबी बंदोपाध्याय कॉलेज सर्विस कमिशन के इंटरव्यू में देश की पहली ट्रांसजेंडर प्रिंसिपल सेलेक्ट हुईं लेकिन ज्वॉइनिंग के बाद उन्होंने अपने साथ भेदभाव का आरोप लगाते हुए पद से इस्तीफ़ा दे दिया।
दो साल पूर्व केरल के कोची शहर में तो ट्रांसजेंडर छात्रों के लिए देश का पहला बोर्डिंग स्कूल खुल चुका है। स्कूल की प्रमुख और ट्रांसजेंडर अधिकार कार्यकर्ता विजयराजा मल्लिका बताती हैं कि स्कूल के लिए जगह ढूंढ़ते समय सात सौ लोगों ने उन्हें जगह देने से इनकार कर दिया था। इस स्कूल के सभी छात्रों का पूरा ख़र्च संस्थान उठाता है। पिछले वर्ष जून में केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा (नीट) में आठ ट्रांसजेंडर्स ने हिस्सा लिया था, जिनमें से पांच को सफलता मिल गई। इससे पहले इस परीक्षा में नौ ट्रांसजेंडर्स ने हिस्सा लिया था, जिनमें से तीन को सफलता हासिल हुई थी।
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वाराणसी (उ.प्र.) में रामनगर, चौरहट निवासी किन्नर गुड़िया ने दो बेटियों को गोद लेकर उनकी पढ़ाई-लिखाई कराते हुए समाज के सामने एक नई नज़ीर पेश की है। इससे पहले गुजर-बसर के लिए उन्होंने ट्रेनों में भीख मांगकर दो पॉवरलूम लगाए। इसके बाद 'बेटी पढ़ाओ-बेटी बचाओ' अभियान में जुट गईं। वह कहती हैं कि 'मेरी बेटियां बेटों से कम नहीं। बड़ी बेटी विकलांग है। छोटी बेटी को डॉक्टर बनाना है।' बेटियों को वह पॉवरलूम भी सिखा रही हैं। गुजरात के राजपीपला सिंहासन के उत्तराधिकारी 'गे प्रिंस' मानवेंद्र सिंह गोहिल ने तो अपनी संस्था 'लक्ष्य फाउंडेशन' की ओर से इसी साल अपने शाही पैलेस को ट्रांसजेंडर कम्युनिटी के लिए देश का पहला रिसोर्स सेंटर घोषित कर दिया है। वह कहते हैं कि 'पाखंडी समाज में ट्रांसजेंडर होने पर उनको गर्व है।' गौरतलब है कि साल 2011 की जनगणना के मुताबिक हमारे देश में पांच लाख से अधिक ट्रांसजेंडर रहते हैं। सिर्फ शिक्षा ही नहीं, उनकी और भी कई गंभीर मुश्किलें हैं। वर्ष 2014 में भले ही भारत सरकार ने 'थर्ड जेंडर' की मान्यता दे दी थी लेकिन पहली बार 'राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण' बनाम केंद्र मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ों को मिलने वाले सभी अधिकार देने का फैसला सुनाया।
गे सेलिब्रिटी शेफ रितु डालमिया, होटल कारोबारी अमन नाथ और डांसर एनएस जौहर की याचिका पर जस्टिस केएस राधाकृष्णन और एके सिकरी की द्विसदस्यीय बेंच ने यह सुनवाई करते हुए केंद्र और राज्य सरकारों को निर्देश दिए कि ट्रांसजेंडर समुदाय को सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा माना जाए और शैक्षिक संस्थानों में उनके दाखिले के लिए आरक्षण की व्यवस्था की जाए। इस फैसले के बाद उनके मताधिकार, शिक्षा और संपत्ति के अधिकार, शादी के अधिकार की रक्षा के लिए सभी प्रकार के दस्तावेजों जन्म प्रमाणपत्र, पासपोर्ट, राशन कार्ड आदि में ट्रांसजेंडर्स को शामिल किया गया। उसी फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी व्यवस्था दी कि ट्रांसजेंडरों के लिए अलग से शौचालय बनवाए जाएं। उसी को ध्यान में रखते हुए फैसले के चार साल बाद अब पिछले महीने फरवरी 2018 में नागपुर ज़िला प्रशासन ने किन्नर समुदाय के लिए पचपाओली और सीताबुल्दी में अलग से टॉयलेट बनाने की घोषणा की है।
इससे पहले भोपाल (मध्यप्रदेश) में ट्रांसजेंडरों के लिए अलग से टॉयलेट बनाया जा चुका है। इसका उद्देश्य ट्रांसजेंडर्स समुदाय को मुख्य धारा में लाना है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को आधार बनाते हुए पहली बार तत्कालीन केरल सरकार ने 'ट्रांसजेंडर नीति' बनाई जिसमें 'थर्ड जेंडर' को 'ट्रांसजेंडर' सम्बोधन दिया गया। ट्रांसजेंडर बच्चों के अभिभावकों हर किसी को जागरूक करने का प्रावधान बनाया गया।
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भारतीय दंड संहिता की धारा 375 सिर्फ महिलाओं को ही यौन अपराधों का पीड़ित मानती है। इस धारा में संशोधन कर ट्रांसजेंडर्स को भी इसकी परिभाषा में शामिल करने का सुझाव दिया गया। साथ ही ट्रांसजेंडर लोगों के शादी करने और अभिभावक बनने जैसे अधिकार सुनिश्चित करने के लिए अलग कानून बनाने की बात भी इस नीति में की गई। ट्रांसजेंडर नीति के अनुसार राज्य ट्रांसजेंडर कल्याण बोर्ड के साथ ही हर जिले में भी ट्रांसजेंडर कल्याण बोर्ड स्थापित किए गए। राज्य के सभी शिक्षण संस्थानों और विश्वविद्यालयों में लैंगिक भेदभाव रोकने के लिए विशेष इकाइयां गठित की गईं। पूरे राज्य में ट्रांसजेंडर्स की मदद के लिए चौबीसों घंटे हेल्पलाइन का संचालन सुनिश्चित किया गया। इसी नीति में ट्रांसजेंडर्स के लिए 'इंदिरा आवास योजना' की सुविधा का प्रावधान किया गया। साथ ही उनको 'राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना' में शामिल कर लिया गया। पचपन वर्ष से अधिक उम्र के निराश्रित ट्रांसजेंडर्स के लिए हर महीने पेंशन का प्रावधान हुआ। देश का केरल ही ऐसा पहला राज्य है, जिसमें 'लैंगिक समानता' पर पहला अंतरराष्ट्रीय सम्मलेन हो चुका है।
टॉयलेट्स, ट्रांसजेंडर्स की एक गंभीर समस्या इसलिए भी है कि वह हमेशा असमंजस में पड़ जाते हैं, वह महिला टॉयलेट्स का इस्तेमाल करें या पुरुष टॉयलेट्स का? पुरुष शौचालय में उन्हें गलत निगाहों से देखा जाता है और महिला टॉयलेट्स में अपमानित होना पड़ता है। स्कूल, कॉलेज और शैक्षिक संस्थानों में उनके लिए अलग से टॉयलेट्स बहुत ज़रूरी हो गया है, क्योंकि किशोरावस्था में जो बच्चे ट्रांसजेंडर जैसे लगते हैं, उनका शोषण होने की ज़्यादा आशंका रहती है। यह भी गौरतलब है कि किन्नर समुदाय दुनियाभर में अपने अलग टॉयलेट के लिए आंदोलन कर रहा है। जब अमरीका में ओबामा सरकार ने आदेश जारी किया कि ट्रांसजेंडर्स सामान्य टॉयलेट्स का इस्तेमाल करें तो उसे कानूनी चुनौती दे दी गई।
ट्रांसजेंडर्स की मांग है कि ऐसे टॉयलेट स्थलों पर साफ शब्दों में लिखा रहे - 'तीसरी पंक्ति'। मुंबई में 'एकता हिंद सोसायटी' की ओर से ट्रांसजेंडर्स के लिए गोवंडी के शिवाजी नगर में अलग से टॉयलेट्स बनवाए गए हैं। यह कदम उस वक्त उठाया गया, जब इसी क्षेत्र का एक बच्चा बड़ा होकर ट्रांसजेंडर बन गया। भले ही ट्रांसजेंडर स्टूडेंट्स की संख्या स्कूल, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में बढ़ती जा रही है, अपने मानवाधिकारों के हनन से उनका आज भी घृणित सामना हो रहा है। ट्रांसजेंडर छात्रों का कहना है कि ज्ञान का परिसर होने के बावजूद उनको आम लोगों की तरह इज्जत की निगाह से नहीं देखा जाता है। अपना मजाक बनाने से पीड़ित होकर वह अक्सर क्लास में जाना बंद कर देते हैं।
भले ही सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने भी ट्रांसजेंडर को मान्यता दे दी हो, अथवा बंगलौर विश्वविद्यालय ने अपने एडमिशन फॉर्म में 'अदर' श्रेणी शामिल कर ली हो, परिसरों में आज भी उन्हें परेशान किया जाता है। नीचा दिखाने की कोशिशें की जाती हैं। 'छक्का' कह कर बुलाया जाता है। प्रताड़ित किया जाता है। परिक्षा के समय अधिकारियों को लिंग विवरण में 'अदर' की जानकारी न होने के कारण दिक्कतें उठानी पड़ती हैं। क्लास में सामान्य छात्रों ही नहीं, शिक्षकों से भी उपेक्षित होना पड़ता है। कभी क्लास में बैठने नहीं दिया जाता है तो कभी परीक्षा से पहले एक घंटा इंतजार कराया जाता है। इस मामले के विशेषज्ञों का भी मानना है कि विश्वविद्यालयों में ट्रांसजेंडर छात्रों के लिए सुविधाएं कम होने के कारण अपेक्षित एडमिशन नहीं हो पा रहे हैं।
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