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जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख: भवानी प्रसाद मिश्र

दूसरे सप्तक के प्रमुख कवि भवानी प्रसाद मिश्र... 

जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख: भवानी प्रसाद मिश्र

Tuesday February 20, 2018 , 11 min Read

दूसरे सप्तक के प्रमुख कवि भवानी प्रसाद मिश्र की आज (20 फ़रवरी) पुण्यतिथि है। भवानी दा उन गिने-चुने कवियों में रहे हैं, जिनकी रचनाएं आम आदमी की जुबान में खुल्लमखुल्ला संवाद करती हैं। वह कहते हैं - 'जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख, और इसके बाद भी हम से बड़ा तू दिख।'

भवानी प्रसाद मिश्र

भवानी प्रसाद मिश्र


उनकी कविताओं की “पहली प्रवृत्ति यथार्थवादी अहंवाद की है, जिसमें यथार्थ की स्वीकृति के साथ-साथ कवि अपने अस्तित्व को उस यथार्थ का अंश मानकर उसके प्रति जागरूक अभिव्यक्तियाँ देता है। 

आधुनिक कविता के इस अत्यन्त समर्थ कवि से हिन्दी काव्य को नये तेवर, नयी भंगिमा मिली। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए लगता है, जैसे हम किसी से आमने-सामने खड़े होकर बोल-बतिया रहे हों। उनकी रचनात्मक ईमानदारी भी लाजवाब रही है। उन्होंने अपने 'गीतफरोश' गीत से कविता कारोबारियों को भी नहीं बख्शा। गूढ़ बातों को भी आसान शब्दों में सहज-सहज अभिव्यक्ति की मुखरता देने वाले भवानी प्रसाद मिश्र उन कवि-साहित्यकारों में एक रहे हैं, जो आपातकाल के विरोध में बेखौफ उठ खड़े हुए थे। उन्होंने अपना कुछ वक्त फ़िल्मी दुनिया में भी बिताया, लेकिन सतपुड़ा के घने जंगलों ने उन्हें फिर अपने पास बुला लिया। आज भी उनका सादगी भरा शिल्प कवि-साहित्यकारों को ललचाता है।

जनभाषा में उनकी कविताए हमे आधुनिक भारत से सुपरिचित कराती हैं। भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म 29 मार्च 1914 को उनका जन्म गाँव टिगरिया, तहसील सिवनी मालवा, जिला होशंगाबाद (मध्य प्रदेश) में हुआ था। सोहागपुर, होशंगाबाद, नरसिंहपुर और जबलपुर में उनकी प्रारम्भिक शिक्षा हुई। उन्होंने हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत से बीए किया। इसके बाद अध्यापन करते हुए महात्मा गांधी के विचारों का प्रचार प्रसार करने लगे। उसी दौरान उनको 1942 में गिरफ्तार कर लिया गया। तीन साल तक जेल में रहे। इसके बाद वह 1945 में वर्धा (महाराष्ट्र) के महिलाश्रम में शिक्षा देने लगे। वह उन्नीस सौ तीस के दशक में नियमित रूप से कविताओं पर कलम चलाने लगे थे।

उसी दशक में वह क्रांतिकारी पत्रकार माखनलाल चतुर्वेदी के सम्पर्क में आए। उसके बाद 'कर्मवीर', 'हंस' आदि में उनकी कविताएँ छपती रहीं। बाद में वह सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन अज्ञेय के संपादन में दूसरे 'तार सप्तक' के कवि बने। वैचारिक स्तर पर वह गांधीवाद के समर्थक रहे। सन् 1972 में उनको 'बुनी हुई रस्सी' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार सम्मानित किया गया। इसके अलावा उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, मध्य प्रदेश शासन के शिखर सम्मान से अलंकृत किया गया। वह मुम्बई आकाशवाणी से प्रोड्यूसर के रूप में जुड़े। आकाशवाणी दिल्ली में भी कार्यरत रहे। उनका देहावसान 20 फ़रवरी 1985 को हुआ।

आनन्द वर्धन ओझा के शब्दों में वरेण्य कवि भवानीप्रसाद मिश्र को याद करते हुए मन उन्नीस सौ साठ के दशक में पहुँच जाता है। उन दिनों वर्ष में एक बार अखिल भारतीय स्तर पर 'रेडियो वीक' मनाने की परिपाटी थी, जिसमें सप्ताह-भर प्रतिदिन एक-न-एक आयोजन होते थे- साहित्यिक, सांगीतिक और रंगमंचीय इसमें कवि-सम्मलेन और 'लोहा सिंह' नाटक की पटना में धूम रहती थी। कवि-सम्मलेन का संयोजन-संचालन पं. प्रफुल्लचंद्र ओझा 'मुक्त' करते थे। ऐसे ही एक कवि-सम्मलेन में मुलाकात हुई। सुगठित शरीर, औसत क़द, गौर वर्ण, उन्नत ललाट, अधपके केश और श्वेत परिधान- धोती-कुर्ते में वे दिव्य मूर्ति लगे थे। उनके काव्य-पाठ के अनूठे अंदाज़ थे।

जब भी मिलते, बड़ी आत्मीयता से, हुलसकर। अद्भुत प्रवाहमयी कविता करने का उनका कौशल अनूठा था। उनकी कविताएँ खूब पढ़ी-सुनी गईं और चर्चा में बनी रहीं। उनके काव्य-ग्रंथ 'गीतफरोश', 'बुनी हुई रस्सी', 'चकित है दुःख', 'अँधेरी कविताएँ', 'त्रिकाल संध्या', 'खुशबू के शिलालेख' आदि उनकी यथेष्ट श्रेष्ठता के प्रमाण हैं। वह कहते थे - मैं कविता नहीं लिखता, कविता मुझको लिखती है। उनकी कविताएँ पढ़कर सचमुच ऐसा प्रतीत होता है कि उनके उद्वेगों, आवेगों, विचारों, चिंतनों को कविता स्वयं शब्द दे रही है और वह भी कितनी सहजता से, सरल-सहज शब्दों में- 'कुछ पढ़ के सो, कुछ लिख के सो, जिस जगह जागा सबेरे उससे आगे बढ़ के सो।'

ऐतिहासिक दृष्टि से ‘दूसरा सप्तक’ (1951) और उसके बाद की कविता को ‘नई कविता’ कहा जाता है। भवानी प्रसाद मिश्र ‘दूसरा सप्तक’ के पहले कवि हैं और नई कविता के प्रतिष्ठित रचनाकार भी। नई कविता के दौर में ‘गीतफ़रोश’ जैसा सशक्त कविताओं का दूसरा काव्य-संग्रह तब तक आया भी नहीं था। इस कारण ‘गीतफ़रोश’ उन दिनों काफ़ी लोकप्रिय हुआ। इस संग्रह में ‘सतपुड़ा के जंगल’, ‘नर्मदा के चित्र’, ‘सन्नाटा’, ‘आषाढ़’, ‘मेघदूत’ जैसी प्रकृति पर नए ढंग से लिखी गई कई कविताएँ तो थीं ही, इसके अतिरिक्त, ‘घर की याद’, ‘बाहिर की होली’, ‘तेरा जन्म दिन’ जैसी निजी अनुभूतियों को व्यक्त करती भावपूर्ण कविताएँ भी थीं।

आधुनिक काव्य में ‘गीतफ़रोश’ आज भी लोकप्रिय है। उसमें उनके आरंभिक दौर की कविताएँ हैं। उसकी कई कविताएँ आज़ादी से पहले की लिखी हैं, उनसे अधिक गहरी एवं परिपक्व कविताएँ आपातकाल और उसके बाद के समय में लिखी गईं। इस दृष्टि से ‘तूस की आग’ अत्यंत महत्वपूर्ण है। डॉ. स्मिता मिश्र कहती हैं कि 'गीतफ़रोश के रूप में प्रसिद्ध उनके उस व्यक्तित्व को पाठक एक बारगी भूल जाता है, जब वह ‘तूस की आग’ पढ़ता है।'

उनकी नई कविता की विशेषताएं रेखांकित करते हुए आलोचक लक्ष्मीकांत वर्मा लिखते हैं- उनकी कविताओं की “पहली प्रवृत्ति यथार्थवादी अहंवाद की है, जिसमें यथार्थ की स्वीकृति के साथ-साथ कवि अपने अस्तित्व को उस यथार्थ का अंश मानकर उसके प्रति जागरूक अभिव्यक्तियाँ देता है। दूसरी प्रवृत्ति व्यक्ति-अभिव्यक्ति की स्वच्छंद प्रवृत्ति है, जिसमें आत्मानुभूति की समस्त संवेदना को बिना किसी आग्रह के रखने की चेष्टा की जाती है। तीसरी प्रवृत्ति आधुनिक यथार्थ से द्रवित व्यंग्यात्मक दृष्टि की है, जिसमें वर्तमान कटुताओं और विषमताओं के प्रति कवि की व्यंग्यपूर्ण भानवाएं व्यक्त हुई हैं। चौथी प्रवृत्ति ऐसे कवियों की है, जिसमें रस और रोमांच के साथ-साथ आधुनिकता और समसामयिकता का प्रतिनिधित्व संपूर्ण रूप में व्यक्त हुआ है।

पांचवी प्रवृत्ति उस चित्रमयता और अनुशासित शिल्प की भी है, जो आधुनिकता के संदर्भ में होते हुए भी समस्त यथार्थ को केवल विंबात्मक रूप में ग्रहण करता है। यथार्थवादी अहंवाद के कवियों में ‘अज्ञेय’, गजानन माधव मुक्तिबोध, कुँवर नारायण, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना इत्यादि की रचनाएं आती हैं। व्यक्ति-अभिव्यक्ति का प्रवृत्ति प्रभाकर माचवे और मदन वात्स्याययन में है, रस, रोमांच और यथार्थ का संकेत रूप गिरिजाकुमार माधुर, नेमिचंद्र जैन और धर्मवीर भारती में हैं। आधुनिक यथार्थ से द्रवित व्यंग्यात्मक प्रवृत्ति के अंतर्गत लक्ष्मीकांत वर्मा, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, भवानी प्रसाद मिश्र और विजयदेवनारायण साही की रचनाएं आती हैं। चित्रमयता और अनुशासित शिल्प के अंतर्गत जगदीश गुप्त, केदारनाथ सिंह और शमशेर बहादुर सिंह की रचनाएँ प्रस्तुत होती हैं।' भवानीप्रसाद मिश्र की एक प्रसिद्ध कविता है- ‘कवि’, जो उन्होंने 1930 में लिखी थी -

कलम अपनी साध,

और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध ।

यह कि तेरी-भर न हो तो कह,

और बहते बने सादे ढंग से तो बह ।

जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,

और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख ।

चीज ऐसी दे कि जिसका स्वाद सिर चढ़ जाए

बीज ऐसा बो कि जिसकी बेल बन बढ़ जाए ।

फल लगें ऐसे कि सुख-रस, सार और समर्थ

प्राण-संचारी कि शोभा-भर न जिनका अर्थ ।

‘तूस की आग’ उनके चिंतन का परिपक्व-फल है। इस पुस्तक का प्रकाशन उनकी मृत्यु के पश्चात 15 अगस्त, 1985 को हुआ था। उसमें कुल 70 कविताओं में से लगभाग आधी प्रकृति पर हैं। इनमें नदियाँ और पहाड़, खेत और मैदान, लता और पंछी, किरन और फूल का भिन्न-भिन्न प्रकार से चित्रण हुआ है। उनकी एक लंबी कविता है 'घर की याद' -

आज पानी गिर रहा है, बहुत पानी गिर रहा है,

रात भर गिरता रहा है, प्राण मन घिरता रहा है,

अब सवेरा हो गया है, कब सवेरा हो गया है,

ठीक से मैंने न जाना, बहुत सोकर सिर्फ माना-

क्योंकि बादल की अँधेरी, है अभी तक भी घनेरी,

अभी तक चुपचाप है सब, रातवाली छाप है सब,

गिर रहा पानी झरा-झर, हिल रहे पत्ते हरा-हर,

बह रही है हवा सर-सर, काँपते हैं प्राण थर-थर,

बहुत पानी गिर रहा है, घर नजर में तिर रहा है,

घर कि मुझसे दूर है जो, घर खुशी का पूर है जो,

घर कि घर में चार भाई, मायके में बहिन आई,

बहिन आई बाप के घर, हाय रे परिताप के घर!

आज का दिन दिन नहीं है, क्योंकि इसका छिन नहीं है,

एक छिन सौ बरस है रे, हाय कैसा तरस है रे,

घर कि घर में सब जुड़े है, सब कि इतने कब जुड़े हैं,

चार भाई चार बहिनें, भुजा भाई प्यार बहिनें,

और माँ‍ बिन-पढ़ी मेरी, दुःख में वह गढ़ी मेरी

माँ कि जिसकी गोद में सिर, रख लिया तो दुख नहीं फिर,

माँ कि जिसकी स्नेह-धारा, का यहाँ तक भी पसारा,

उसे लिखना नहीं आता, जो कि उसका पत्र पाता।

और पानी गिर रहा है, घर चतुर्दिक घिर रहा है,

पिताजी भोले बहादुर, वज्र-भुज नवनीत-सा उर,

पिताजी जिनको बुढ़ापा, एक क्षण भी नहीं व्यापा,

जो अभी भी दौड़ जाएँ, जो अभी भी खिल-खिलाएँ,

मौत के आगे न हिचकें, शेर के आगे न बिचकें,

बोल में बादल गरजता, काम में झंझा लरजता,

आज गीता पाठ करके, दंड दो सौ साठ करके,

खूब मुगदर हिला लेकर, मूठ उनकी मिला लेकर,

जब कि नीचे आए होंगे, नैन जल से छाए होंगे,

हाय, पानी गिर रहा है, घर नजर में तिर रहा है,

चार भाई चार बहिनें, भुजा भाई प्यार बहिनें,

खेलते या खड़े होंगे, नजर उनको पड़े होंगे।

पिताजी जिनको बुढ़ापा, एक क्षण भी नहीं व्यापा,

रो पड़े होंगे बराबर, पाँचवे का नाम लेकर,

पाँचवाँ हूँ मैं अभागा, जिसे सोने पर सुहागा,

पिता जी कहते रहें है, प्यार में बहते रहे हैं,

आज उनके स्वर्ण बेटे, लगे होंगे उन्हें हेटे,

क्योंकि मैं उन पर सुहागा बँधा बैठा हूँ अभागा,

और माँ ने कहा होगा, दुःख कितना बहा होगा,

आँख में किस लिए पानी, वहाँ अच्छा है भवानी,

वह तुम्हारा मन समझ कर, और अपनापन समझ कर,

गया है सो ठीक ही है, यह तुम्हारी लीक ही है,

पाँव जो पीछे हटाता, कोख को मेरी लजाता,

इस तरह होओ न कच्चे, रो पड़ेंगे और बच्चे,

पिताजी ने कहा होगा, हाय, कितना सहा होगा,

कहाँ, मैं रोता कहाँ हूँ, धीर मैं खोता, कहाँ हूँ,

गिर रहा है आज पानी, याद आता है भवानी,

उसे थी बरसात प्यारी, रात-दिन की झड़ी झारी,

खुले सिर नंगे बदन वह, घूमता-फिरता मगन वह,

बड़े बाड़े में कि जाता, बीज लौकी का लगाता,

तुझे बतलाता कि बेला ने फलानी फूल झेला,

तू कि उसके साथ जाती, आज इससे याद आती,

मैं न रोऊँगा,कहा होगा, और फिर पानी बहा होगा,

दृश्य उसके बद का रे, पाँचवें की याद का रे,

भाई पागल, बहिन पागल, और अम्मा ठीक बादल,

और भौजी और सरला, सहज पानी, सहज तरला,

शर्म से रो भी न पाएँ, खूब भीतर छटपटाएँ,

आज ऐसा कुछ हुआ होगा, आज सबका मन चुआ होगा।

अभी पानी थम गया है, मन निहायत नम गया है,

एक से बादल जमे हैं, गगन-भर फैले रमे हैं,

ढेर है उनका, न फाँकें, जो कि किरणें झुकें-झाँकें,

लग रहे हैं वे मुझे यों, माँ कि आँगन लीप दे ज्यों,

गगन-आँगन की लुनाई, दिशा के मन में समाई,

दश-दिशा चुपचाप है रे, स्वस्थ की छाप है रे,

झाड़ आँखें बंद करके, साँस सुस्थिर मंद करके,

हिले बिन चुपके खड़े हैं, क्षितिज पर जैसे जड़े हैं,

एक पंछी बोलता है, घाव उर के खोलता है,

आदमी के उर बिचारे, किस लिए इतनी तृषा रे,

तू जरा-सा दुःख कितना, सह सकेगा क्या कि इतना,

और इस पर बस नहीं है, बस बिना कुछ रस नहीं है,

हवा आई उड़ चला तू, लहर आई मुड़ चला तू,

लगा झटका टूट बैठा, गिरा नीचे फूट बैठा,

तू कि प्रिय से दूर होकर, बह चला रे पूर होकर,

दुःख भर क्या पास तेरे, अश्रु सिंचित हास तेरे!

पिताजी का वेश मुझको, दे रहा है क्लेश मुझको,

देह एक पहाड़ जैसे, मन की बाड़ का झाड़ जैसे,

एक पत्ता टूट जाए, बस कि धारा फूट जाए,

एक हल्की चोट लग ले, दूध की नद्दी उमग ले,

एक टहनी कम न होले, कम कहाँ कि खम न होले,

ध्यान कितना फिक्र कितनी, डाल जितनी जड़ें उतनी!

इस तरह क हाल उनका, इस तरह का खयाल उनका,

हवा उनको धीर देना, यह नहीं जी चीर देना,

हे सजीले हरे सावन, हे कि मेरे पुण्य पावन,

तुम बरस लो वे न बरसें, पाँचवे को वे न तरसें,

मैं मजे में हूँ सही है, घर नहीं हूँ बस यही है,

किंतु यह बस बड़ा बस है, इसी बस से सब विरस है,

किंतु उनसे यह न कहना, उन्हें देते धीर रहना,

उन्हें कहना लिख रहा हूँ, उन्हें कहना पढ़ रहा हूँ,

काम करता हूँ कि कहना, नाम करता हूँ कि कहना,

चाहते है लोग, कहना, मत करो कुछ शोक कहना,

और कहना मस्त हूँ मैं, कातने में व्यस्‍त हूँ मैं,

वजन सत्तर सेर मेरा, और भोजन ढेर मेरा,

कूदता हूँ, खेलता हूँ, दुख डट कर झेलता हूँ,

और कहना मस्त हूँ मैं, यों न कहना अस्त हूँ मैं,

हाय रे, ऐसा न कहना, है कि जो वैसा न कहना,

कह न देना जागता हूँ, आदमी से भागता हूँ,

कह न देना मौन हूँ मैं, खुद न समझूँ कौन हूँ मैं,

देखना कुछ बक न देना, उन्हें कोई शक न देना,

हे सजीले हरे सावन, हे कि मेरे पुण्य पावन,

तुम बरस लो वे न बरसे, पाँचवें को वे न तरसें।

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