एनआरसी लिस्ट से वंचित 48 हजार महिलाओं का अभी अपना कोई देश नहीं
नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस (एनआरसी) की लिस्ट में नामांकित होने-न-होने के द्वंद्व से जूझ रहीं 48 हजार से अधिक महिलाओं का अपना कोई देश होगा या नहीं, संभवतः इस महीने 31 अगस्त तक सुप्रीम कोर्ट में अंतिम सूची के दाखिले के बाद ही इसका पता चले, तब तक तो 'विस्तार है अपार, प्रजा दोनों पार, करे हाहाकार..।'
भूपेन हज़ारिका के एक गीत के बोल हैं- 'विस्तार है अपार, प्रजा दोनों पार, करे हाहाकार..।' तो ये दास्तान एक वैसे ही हाहाकार से गुजर रहीं असम की 'निश्शब्द' सी माबिया बीबी, सुचंद्रा गोस्वामी, जुतिका दास. मायारानी, मधुबला, हज़ेरा आदि महिलाओं की है, जो नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस (एनआरसी) की लिस्ट में नामांकित होने-न-होने के द्वंद्व से जूझ रही हैं। उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट ने एनआरसी की अंतिम सूची बनाने के लिए पहले 31 जुलाई तक की समय सीमा तय की थी, लेकिन गत माह 23 जुलाई को उच्चतम न्यायालय ने आखिरी लिस्ट तैयार करने की वह तारीख अब 31 अगस्त तक के लिए बढ़ा दी है। उन परेशानहाल महिलाओं को लगता है कि इस समय उनका दुनिया में अपना कोई देश नहीं है।
दरांग (असम) के गांव खरपेटिया की पचपन वर्षीया माया रानी साह की जिंदगी में उस वक़्त हाहाकार आया, जब अडिशनल ड्राफ़्ट एक्सक्लूजन लिस्ट में उनके नाम के आगे 'डी' लिख दिया गया। अब उनका परिवार उन्हे भारतीय नागरिक साबित करने की चुनौतियों से जूझ रहा है। यद्यपि उनके बेटे उत्पल आज भी मां के समस्त शैक्षिक प्रमाण, वोटर लिस्ट की सत्यापित प्रतियां आदि लेकर दफ्तरों के चक्कर लगाते थके नहीं हैं। अब पूरे परिवार को एनआरसी की आखिरी सूची आने का बेसब्री से इंतज़ार है। डर है कि अंतिम लिस्ट में भी नाम नहीं आया तो कहीं माया रानी को अपने बुढ़ापे के बाकी दिन डिटेंशन सेंटर में न गुजारने पड़ें!
बाक्सा (असम) की माबिया बीबी बताती हैं कि एक दिन उनके पति ने जब एनआरसी लिस्ट में अपना नाम नहीं पाया तो हार्ट अटैक से उनकी मौत हो गई। इसी तरह बोगीबिल (डिब्रूगढ़) में ब्रह्मपुत्र के किनारे बसे गांव आई थांग निवासी शंकर की भी मां का नाम अभी तक एनआरसी लिस्ट में नहीं आ सका है लेकिन वह आखिरी लिस्ट में नाम होने की संभावना के साथ धैर्य साधे हुए हैं।
चिरांग (असम) के गांव बिश्नुपुर की 59 वर्षीय मधुबाला मंडल को तो भारतीय नागरिकता के पर्याप्त प्रणाम पत्र होते हुए भी तीन साल डिटेंशन सेंटर में बिताने पड़े हैं। वह बताती हैं कि तीन वर्ष पूर्व एक दिन अचानक कोई उनकी झोपड़ी के सामने पेड़ पर एनआरसी का नोटिस लटक गया। जंगल से लकड़ी लेकर जब वह घर लौटीं तो उस पेपर को लेकर बच्चे खेल रहे थे। अनपढ़ होने के कारण मधुबाला उस सूचना से बेखबर रह गईं। उसके दो माह बाद कड़ाके की ठंड में पुलिस ने उन्हे पकड़ कर कोकराझार जेल में बंद कर दिया। वहां उन्हे चालीस औरतों से भरे एक कमरे में तीन साल काटने पड़े। अपने भारतीय होने के सवाल से आज भी वह जूझ रही हैं। आमराघाट (असम) की जुतिका दास के पति अजित दास की भारतीय नागरिकता पर सवाल उठा तो सिलचर डिटेंशन कैंप में उन्हे बंद कर दिया गया। जब पुलिस उन्हे पकड़ कर ले जा रही थी, उनकी बीमार बेटी ने देख लिया था। एक मीडिया रिपोर्ट के बाद उन्हे डिटेंशन कैंप से ज़मानत पर रिहा कर दिया गया। अब बेटी का इलाज दोबारा शुरू हो गया है।
बताया जाता है कि बारपेटा (असम) की मलेका ख़ातून के दिहाड़ी मज़दूर पति सैमसुल हक़ ने पिछले साल इसलिए आत्महत्या कर ली कि उनका नाम उनका नाम न वोटर लिस्ट में था, न एनआरसी में। मलेका तो फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल की सुनवाई में भारतीय मतदाता साबित हो चुकी हैं लेकिन एनआरसी में नाम न होने से वह भी परेशान हैं। इसी तरह एक अन्य असमिया महिला हज़ेरा बताती हैं कि एनआरसी की सुनवाई से लौटने के बाद उनके पति ने भी खुदकुशी कर ली।
सिलचर की सुचंद्रा गोस्वामी भी विदेशी ट्राइब्यूनल का नोटिस मिलने के बाद से विचलित हैं। नोटिस मिलने के कुछ दिन बाद उन्हे भी पुलिस पकड़ ले गई। वहां से डिटेंशन कैंप भेज दिया गया। यह सब उनके नाम में त्रुटिवश हुआ। उन्हे तीन साल सेंट्रल जेल में बिताने पड़े। वह बताती हैं कि एनआरसी लिस्ट में नाम न होने से साढ़े अड़तालीस हजार महिलाएं परेशान हैं।
लेकिन इन्ही हालात के बीच जोरहाट की दीपांजलि बोरा कहती हैं कि दशकों पहले असम आंदोलन में विदेशियों को भगाने के लिए संघर्ष किया गया। तमाम लोग घायल और शहीद हो गए। वह भी जेल गईं लेकिन सालोसाल कुछ नहीं हुआ। अब एनआरसी प्राधिकरण से संभावनाएं बनी हैं। फिलहाल, हमारे प्रदेश में बांग्लादेशी भरे हुए हैं।