राहुल के हाथों कांग्रेस की बागडोर, आगे की राहें नहीं हैं आसान
बेटे को कांग्रेस की कमान सौंपते निवर्तमान अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा कि मैं राहुल को अध्यक्ष बनने की शुभकामनाएं, बधाई और आशीर्वाद देती हूं। आज मैं आखिरी बार कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर संबोधित कर रही हूं।
सोनिया ने कहा कि मैं जिस परिवार में शादी होकर आई, वह क्रांतिकारी परिवार था। उस परिवार का एक-एक सदस्य जेल जा सकता था। देश ही उनका जीवन था। इंदिराजी से मैंने काफी कुछ सीखा।
गुजरात चुनाव प्रचार से लौटने के बाद कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में 47 वर्षीय राहुल गांधी की आज ताजपोशी तो हो गई लेकिन उनके सामने भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश की सियासत में सबसे बड़े विपक्ष को पुनः सत्ता के सिंहासन तक लौटा ले जाने की गंभीर चुनौती है। उनकी अब तक की क्षमता पर कई बड़े प्रश्न संदेह जगाते हैं लेकिन उम्मीद करने से भला किसने किसे रोक रखा है। कोई भी ऊंची उड़ान भर सकता है। कांग्रेस के राजनीतिक अतीत और भविष्य की संभावनाओं पर नजर दौड़ाते हुए राहुल की सफलता-असफलता के मायने जानने से पहले जान लेते हैं कि आज दिल्ली में क्या-कुछ हुआ।
बेटे को कांग्रेस की कमान सौंपते निवर्तमान अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा कि मैं राहुल को अध्यक्ष बनने की शुभकामनाएं, बधाई और आशीर्वाद देती हूं। आज मैं आखिरी बार कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर संबोधित कर रही हूं। आपके सामने अब एक नया दौर है। मैं एक मां के तौर पर राहुल की तारीफ नहीं करना चाहती, लेकिन उन्होंने पिछले कुछ सालों में काफी व्यक्तिगत हमले झेले हैं, जिससे वे निडर और साहसी बने हैं। 20 साल पहले जब आपने मुझे अध्यक्ष पद के लिए चुना और मैं इसी तरह संबोधित करने के लिए खड़ी थी। मुझे घबराहट थी कि कैसे इस संगठन को संभालूंगी। तब मेरे सामने एक कठिन कर्तव्य था। तब तक मेरा राजनीति से बहुत वास्ता नहीं पड़ा था।
सोनिया ने कहा कि मैं जिस परिवार में शादी होकर आई, वह क्रांतिकारी परिवार था। उस परिवार का एक-एक सदस्य जेल जा सकता था। देश ही उनका जीवन था। इंदिराजी से मैंने काफी कुछ सीखा। इंदिराजी की मौत के बाद मुझे लगा कि मेरी मां मुझसे छिन गईं। मैं अपने बच्चों को राजनीति से दूर रखना चाहती थी। इंदिराजी के बाद मेरे पति राजीव ने जिम्मेदारी को समझा, प्रधानमंत्री पद संभाला। पूरे देश की समस्याओं को जाना। इंदिराजी की हत्या के 7 साल बाद राजीवजी को भी मार दिया गया। देश के प्रति अपने कर्तव्य को समझते हुए मैं राजनीति में आई। उस वक्त 3 राज्यों में कांग्रेस की सरकारें थीं। केंद्र से भी हम काफी दूर थे। आप सबके सहयोग से हमने बेमिसाल कामयाबी हासिल की। कांग्रेस पार्टी के लाखों कार्यकर्तागण, मेरे साथ इस सफर के साथी रहे हैं। आपने हमेशा मेरा साथ दिया है। इसकी तुलना नहीं हो सकती। मेरे शुरुआती दौर में एकजुट रखने की कोशिश की थी।
उन्होंने कहा कि 2004 से 2014 तक हमने अन्य पार्टियों के साथ मिलकर देश को एक प्रगतिशील सरकार दी। इस जिम्मेदारी को डॉ. मनमोहन सिंह ने बड़ी जिम्मेदारी के साथ संभाला। आज जो चुनौती है, वो कभी नहीं रही। हम कई चुनाव हार चुके हैं। संवैधानिक मूल्यों पर हमला किया जा रहा है लेकिन हम पीछे नहीं हटेंगे। मुझे पूरी आशा है कि नवीन नेतृत्व से पार्टी में नया जोश आएगा। राहुल मेरा बेटा है, उसकी तारीफ करना मुझे अच्छा नहीं लगता। राजनीति में उसने एक ऐसे व्यक्ति का हमला झेला है, जिसने उसे एक निडर इंसान बनाया है। मुझे विश्वास है कि वे पार्टी का नेतृत्व पूरे धैर्य और जिम्मेदारी के साथ करेंगे।
इस भाषण को सुनने के बाद देश के एक जाने-माने साहित्यकार ने कहा कि काश सोनिया गांधी, नहीं तो राहुल गांधी ही, गुजरात के चुनाव प्रचार में इसी तरह का भाषण दिए होते तो शायद कांग्रेस का बहुत भला हो जाता। बेटे की ताजपोशी पर दिया गया भाषण देश उतनी गंभीरता से नहीं लेगा। राहुल गांधी गुजरात में चुनाव प्रचार के दौरान देश के डरे-सहमे लोगों को निश्चिंत करने वाला अथवा मजबूत विपक्ष के बेहतर भविष्य का सपना दिखाने वाला भाषण देने की बजाय मंदिरों की परिक्रमा कर, जनेऊ दिखाकर पंडित बनने का स्वांग ही करते रह गए। शायद यही वजह रही है कि एक बार फिर से सत्ता की बागडोर गुजरात में भाजपा के हाथों में जाती दिख रही है।
यह सही है कि राहुल के पुरखों ने देश के लिए कई कुर्बानियां दी हैं, कई जनपक्षधर कदम दृढ़ता से उठाकर पार्टी का नाम ऊंचा किया है लेकिन पंडित सुमित्रा नंदन पंत या जयशंकर प्रसाद की तरह उनकी संतानें भी महाकाव्य लिख देंगी, उम्मीद करना खयाली पुलाव पकाने जैसा लगता है। हर व्यक्ति की योग्यता, अयोग्यता उसे सफलता अथवा असफलता दिलाती है। दरअसल कांग्रेस के सामने अध्यक्ष पद के तमाम विकल्प मौजूद रहे हैं लेकिन एक परिवार के ही हाथ में उसकी लगाम रहे, इस लालसा से पार्टी का बहुसंख्यक उबर नहीं पाया है। इतने पर भी समझ नहीं आया है कि उनके सामने जो शख्स प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा है, उस पर न परिवारवादी साया है, न बाढ्रा जैसा कोई दामादी रिश्तानामा है उसका। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि ऐसे शख्स के समानांतर राहुल कहीं नहीं ठहरते हैं। कांग्रेस का यह कदम उसे भविष्य में बहुत भारी पड़ सकता है।
सच मानें तो राहुल के सामने बहुत बड़ा चैलेंज है। राहुल ऐसे समय कांग्रेस पार्टी की बागडोर ले रहे हैं जब पार्टी अभी तक सबसे बुरे समय से गुजर रही है। 132 साल पुरानी पार्टी का अस्तित्व देश के पांच राज्य और एक केंद्र शासित प्रदेश में ही बचा है। लोकसभा चुनाव में 50 सीटों के नीचे तो कांग्रेस 2014 में ही आ गई थी, लेकिन उसके बाद एक के बाद एक राज्यों से अपनी सत्ता गंवाती चली गई है. जाहिर है कि कांग्रेस के नए अध्यक्ष के सिर पर कांटों का ताज सजा है। ऐसे में उनके सामने अनेक चुनौतियां खड़ी हैं, जिनका सामना करना आसान नहीं। सोनिया गांधी ने जब 1998 में अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी संभाली थी, उस वक्त कांग्रेस की सरकार सिर्फ चार राज्यों में थी।
हालांकि लोकसभा में 141 सांसद थे। कांग्रेस की सरकारें चार राज्यों मिजोरम, नगालैंड, मध्य प्रदेश और उड़ीसा में बची थीं, बाकी सभी राज्यों में और केंद्र में पार्टी हार चुकी थी। पार्टी अंदर ही अंदर बिखर रही थी। अर्जुन सिंह, नारायण दत्त तिवारी, माधव राव सिंधिया, ममता बनर्जी, जी के मूपनार, शीला दीक्षित, पी चिदंबरम जैसे दिग्गज पार्टी छोड़ चुके थे। सोनिया गांधी के अध्यक्ष बनने के कुछ ही महीनों बाद कांग्रेस में चुनाव जीतने का सिलसिला शुरू हो गया।
1998 में ही दिल्ली, मध्य प्रदेश और राजस्थान में उसकी सरकार बन गई। हालांकि केंद्र में 2004 में यूपीए गठबंधन की सरकार बनी। जिन बातों को लेकर राहुल से संभावनाएं बनती हैं, उनमें एक है, राजनीति में अपनी मां की तरह नौसिखिया और ढुलमुल न होना। उन्होंने हाल के दिनो में अपनी किंचित राजनीतिक दक्षता का मंचों से परिचय भी दिया है। दूसरी बात, हमारे देश की राजनीति में कौन मामूली सा व्यक्ति देश की सबसे ऊंची कुर्सी पर पहुंच जाए, कुछ कहना मुश्किल रहता है। इसी का नाम लोकतंत्र है। संभव है, राहुल भी किसी करिश्माई मौके के बूते देश के सबसे शासक बन जाएं लेकिन अभी तो अनुमान लगाना दूर की कौड़ी होगी।
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