कभी न भूलेगा गुनाहों का देवता, सूरज का सातवां घोड़ा
तप्त माथे पर, नजर में बादलों को साध कर। रख दिये तुमने सरल संगीत से निर्मित अधर। आरती के दीपकों की झिलमिलाती छाँह में, बाँसुरी रखी हुई ज्यों भागवत के पृष्ठ पर। इन शब्दों को लिखने वाले धर्मवीर भारती की आज पुण्यतिथि है।
प्राध्यापन के दिनो में ही उन्होंने 'नदी प्यासी थी', 'चाँद और टूटे हुए लोग', 'ठेले पर हिमालय' आदि कृतियां रचीं।
कहा जाता है कि पढ़ाई के दिनो में वह स्कूल का समय समाप्त होते ही वाचनालय में भाग जाते और वहाँ देर शाम तक पुस्तकों में सिर खपाए रहते।
'गुनाहों का देवता', 'सूरज का सातवाँ घोड़ा', 'अंधा युग' जैसी अविस्मरणीय कृतियों के यशस्वी कवि-लेखक एवं 'धर्मयुग' के संपादक धर्मवीर भारती की आज (4 सितंबर) पुण्यतिथि है। उनका जन्म जन्म 25 दिसंबर 1926 को इलाहाबाद के 'अतरसुइया' मोहल्ले में हुआ था। वक्त के कठिन थपेड़ों का सामना करते हुए उनका बचपन परिजनों के कर्ज में बीता और स्कूली शिक्षा ट्यूशन पढ़ाकर पूरी हो सकी। भारती जी छात्र जीवन से ही साहित्यिक अध्यवसाय के गहरे अनुरागी थे। छात्र जीवन में ही उन्होंने कीट्स, वर्ड्सवर्थ, टॅनीसन, एमिली डिकिन्सन के साथ उन्होंने फ़्रांसीसी, जर्मन और स्पेन के कवियों के अंग्रेज़ी अनुवाद पढ़े। एमिल ज़ोला, शरदचंद्र, मैक्सिम गोर्की, क्युप्रिन, बालज़ाक, चार्ल्स डिकेन्स, विक्टर हयूगो, दॉस्तोयव्स्की, तॉल्सतोय आदि के उपन्यासों को पढ़ डाला। उन पर शरत चंद्र चट्टोपाध्याय, जयशंकर प्रसाद और ऑस्कर वाइल्ड का गहरा प्रभाव रहा।
कहा जाता है कि पढ़ाई के दिनो में वह स्कूल का समय समाप्त होते ही वाचनालय में भाग जाते और वहाँ देर शाम तक पुस्तकों में सिर खपाए रहते। स्वतंत्रता आंदोलन के दिनो में गांधी जी के आह्वान पर इंटरमीडिएट की पढ़ाई छोड़ कर आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़े। वह सुभाष चंद्र बोस के प्रशंसक थे। हर समय साथ में हथियार लेकर चलने लगे और 'सशस्त्र क्रांतिकारी दल' में शामिल होने के सपने मन में सँजोने लगे, पर अंतत: अपने मामा के समझाने पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक किया। स्नातक में हिन्दी में सर्वाधिक अंक ले आने पर उन्हें 'चिंतामणि गोल्ड मैडल' से सम्मानित किया गया। उनकी एक कविता है, 'बरसों के बाद उसी सूने- आँगन में'-
बरसों के बाद उसी सूने- आंगन में जाकर चुपचाप खड़े होना रिसती-सी यादों से पिरा-पिरा उठना मन का कोना-कोना कोने से फिर उन्हीं सिसकियों का उठना फिर आकर बाँहों में खो जाना अकस्मात मंडप के गीतों की लहरी फिर गहरा सन्नाटा हो जाना दो गाढ़ी मेंहदीवाले हाथों का जुड़ना, कँपना, बेबस हो गिर जाना
गम्भीर एवं साहित्यिक पत्रकारिता के मानक रचने वाले डॉ. धर्मवीर भारती जीवन के शुरुआती दौर में कुछ समय तक पद्मकांत मालवीय, माखनलाल चतुर्वेदी, इलाचन्द्र जोशी के साथ शिक्षित-दीक्षित होते रहे। उनसे पत्रकारिता का ज्ञान लिया। उन्हीं दिनों कथा-कहानियाँ लिखने लगे। उनके 'मुर्दों का गाँव', 'स्वर्ग और पृथ्वी' दो कहानी संग्रह छप गए। कविताओं का संग्रह 'ठंडा लोहा' नाम से छपा। उन्हीं दिनों उन्होंने अपने लोकप्रिय उपन्यास 'गुनाहों का देवता' और 'सूरज का सातवाँ घोड़ा' लिखे। डॉ. धीरेन्द्र वर्मा की हिदायत पर उन्होंने अंग्रेजी के बजाए हिन्दी से स्नातकोत्तर की पढ़ाई की। उन्हीं दिनो 'मार्क्सवाद' का गहरा अध्ययन किया।
इसके बाद वे 'प्रगतिशील लेखक संघ' में शामिल हो गए। भारतीय दर्शन, वेदांत के अलावा उन्होंने वैष्णव और संत साहित्य का गंभीर अध्ययन किया। शोध के बाद वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय में ही हिन्दी के प्राध्यापक नियुक्त हो गए। प्राध्यापन के दिनो में ही उन्होंने 'नदी प्यासी थी', 'चाँद और टूटे हुए लोग', 'ठेले पर हिमालय' आदि कृतियां रचीं। उन्होंने महाभारत, गीता, विनोबा और लोहिया के साहित्य का भी गहराई से अध्ययन किया। उन्हीं स्वाध्याय के बूते उन्होंने अंधा युग जैसी कालजयी कृति का सर्जन किया।
बाद में वह विश्वविद्यालय से एक वर्ष की छुट्टी लेकर 1960 में मुंबई (बम्बई) से प्रकाशित टाइम्स ऑफ इंडिया की साहित्यिक पत्रिका 'धर्मयुग' के संपादक हो गए। पत्रिका में उनका ऐसा जी रमा कि उन्होंने विश्वविद्यालय की नौकरी हमेशा के लिए छोड़ दी। त्यागपत्र देकर पूरे समर्पण के साथ धर्मयुग के संपादन में ध्यान केंद्रित किया। 'धर्मयुग' में कार्यरत रहने के दौरान ही उन्होंने पुष्पा भारती से शादी रचा ली। उनके संपादन में 'धर्मयुग' साहित्यिक पत्रकारिता की मानक पत्रिका बनी। उन्हें हल्दीघाटी श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार, साहित्य अकादमी रत्न, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, संगीत नाटक अकादमी, दिल्ली, महाराणा मेवाड़ फ़ाउंडेशन, राजस्थान से सर्वश्रेष्ठ लेखक सम्मान, गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार, राजेन्द्र प्रसाद शिखर सम्मान, बिहार, भारत भारती सम्मान, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र गौरव, केडिया हिन्दी साहित्य न्यास, मध्यप्रदेश, बिड़ला फ़ाउंडेशन के व्यास सम्मान आदि से सम्मानित किया गया। डॉ. धर्मवीर भारती की एक लोकप्रिय कविता 'टूटा पहिया'-
मैं रथ का टूटा हुआ पहिया हूँ लेकिन मुझे फेंको मत! क्या जाने कब इस दुरूह चक्रव्यूह में अक्षौहिणी सेनाओं को चुनौती देता हुआ कोई दुस्साहसी अभिमन्यु आकर घिरजाय! अपने पक्ष को असत्य जानते हुए भी बड़े-बड़े महारथी अकेली निहत्थी आवाज़ को अपने ब्रह्मास्त्रों से कुचल देना चाहें तब मैं रथ का टूटा हुआ पहिया उसके हाथों में ब्रह्मास्त्रों से लोहा लेसकता हूँ! मैं रथ का टूटा पहिया हूँलेकिन मुझे फेंको मत इतिहासों की सामूहिक गति सहसा झूठी पड़ जाने पर क्या जाने सच्चाई टूटे हुए पहियों का आश्रय ले!
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