पुरानी हिंदी फिल्मों के गुस्सैल सामंती पिताओं के उलट वो पांच पिता, जो बेटियों के जिगरी यार हैं
सालों तक बॉलीवुड जिस तरह के टॉक्सिक, सामंती, गुस्सैल और अहंकारी पिताओं का पोस्टर बना रहा है, इन पांच फिल्मों के पांच पिता उस छवि के उलट दयालु, संवेदनशील और बेटियों का आदर करने वाले पिता की नई छवि गढ़ रहे हैं.
आज फादर्स डे के मौके पर बात करेंगे जो पांच भारतीय फिल्मों की, जिनकी कहानी के केंद्र में पिता और बेटी के मजबूत संबंध है. कहने का आशय और समझने की बात सिर्फ ये है पिता की बेटियों की जिंदगी में भूमिका बहुत अहम है. मां से ज्यादा लड़कियों के जीवन में पिता का प्रभाव पड़ता है. एक संवदेनशील, स्नेही, दयालु और बेटियों को बराबरी का सम्मान देने वाला पिता उनके जीवन की बुनियाद तय करता है.
सालों तक बॉलीवुड जिस तरह के सामंती, टॉक्सिक, गुस्सैल और अहंकारी पिताओं का पोस्टर बना रहा है, इन पांच फिल्मों के पांच पिता उस छवि के उलट दयालु, संवेदनशील और बेटियों का आदर करने वाले पिता की एक नई छवि गढ़ रहे हैं.
आज बात उन पांच बेहतरीन फिल्मों की
बरेली की बर्फी (2017)
निर्देशक – अश्विनी अय्यर तिवारी
इस सूची में सबसे पहले इस फिल्म का नाम लेना थोड़ा अजीब लग सकता है, क्योंकि फिल्म की केंद्रीय कहानी पिता और बेटी का रिश्ता नहीं है. लेकिन उस कहानी को तय करने में पिता-बेटी के रिश्ते की बहुत अहम भूमिका है. पिता भी मेट्रो में रहने वाला वेस्टर्न, मॉडर्न व्यक्ति नहीं है. छोटे शहर में मिठाई की दुकान चलाने वाला एक साधारण सा इंसान.
नरोत्तम मिश्रा (पंकज त्रिपाठी) के चरित्र की खासियत ये है कि वो सामंती, अहंकारी और अपनी बेटी के जीवन को नियंत्रित करने वाला इंसान नहीं है. वो बिट्टी (कृति सेनन) का बेस्ट फ्रेंड है. बिटिया अपनी सारी परेशानियां, सारे सीक्रेट पिता से शेयर करती है. दोनों मां से छिपकर छत पर अकेले सिगरेट भी पी लेते हैं.
जीवन के साथ तमाम प्रयोग कर रही बेटी को कुछ गलत लगने पर पिता समझाते हैं, डांटते नहीं, पहरा नहीं लगाते. करन जौहर ब्रांड परंपरा, संस्कार, अनुशासन आदि का नकली पाठ नहीं पढ़ाते. वेा बिट्टी को वो होने देते हैं, जो वो चाहती है.
इस फिल्म को देखने वाले बहुसंख्यक हिंदुस्तानी लड़कियों की प्रतिक्रिया यही थी कि ऐसा पिता कहां होता है. पिताओं की प्रतिक्रिया क्या थी, पता नहीं. लेकिन देखकर ये जरूर लगता है कि पिता और बेटी के रिश्ते में इतनी ही बराबरी, दोस्ती और प्यार होना चाहिए. ख्याल है, जिम्मेदारी का भाव भी है, लेकिन बराबर की दांत कटी दोस्ती भी है.
थप्पड़ (2020)
निर्देशक – अनुभव सिन्हा
घरेलू हिंसा की थीम पर बनी तापसी पन्नू की यह फिल्म इस समस्या की हमारी पारंपरिक समझ को तो चुनौती देती ही है, लेकिन यह भी बताती है कि अगर बेटियों के सिर पर पिता का हाथ हो तो किसी लड़की को ससुराल में हिंसा, अपमान और तकलीफों की सामना नहीं करना पड़ेगा.
अपने जीवन में हर तरह के अपमान और वॉयलेंस को आत्मसात कर चुके बहुसंख्यक हिंदुस्तानियों की तब भी फिल्म पर यही प्रतिक्रिया थी कि एक थप्पड़ पर इतना तमाशा क्यों. लेकिन बात सिर्फ एक थप्पड़ की नहीं है. एक इंसान के पूरे वजूद की, आत्मसम्मान की, उसकी ह्यूमन डिग्निटी की है. फिल्म में एक जगह जब अमृता (तापसी पन्नू) के पिता सचिन संधू (कुमुद मिश्रा) का बेटा अपनी गर्लफ्रेंड से ऊंची आवाज में बात करता है तो वो उसे डांटकर माफी मांगने को कहते हैं. बेटी अपनी हो या किसी और की, कोई पुरुष उसके साथ बदतमीजी नहीं कर सकता. न दामाद बेटी के साथ और न अपना बेटा होने वाली बहू के साथ.
फिल्म का मैसेज बहुत क्लीयर है. बेटियां उतना ही लड़ पाती हैं अपने सम्मान के लिए, जितना प्यार, सम्मान और आदर उन्हें अपने पिता से मिला हो. जो पिता बेटियों को पराया धन समझकर ब्याह के बाद उससे पल्ला झाड़ लेते हैं, वही सुसराल में मारी-पीटी और जलाई जाती हैं.
पीकू (2015)
निर्देशक – शुजीत सरकार
पिता और बेटी के बीच प्यार और बराबरी का रिश्ता कुछ वैसा ही दिखता है, जैसे फिल्म पीकू के बंगाली दादा भास्कर बनर्जी (अमिताभ बच्चन) और पीकू (दीपिका पादुकोण) का है. बूढ़े हो रहे जिद्दी पिता के टैंट्रम्स भी हैं, लेकिन इतनी बराबरी की जगह है कि जवान बेटी पिता के घर में आधी रात अपने बॉयफ्रेंड को बुला सकती है बिना डरे. इस पिता के जीवन का मकसद अपनी बेटी को किसी सुयोग्य वर के साथ ब्याह देना नहीं है. उसे इस बात से भी दिक्कत नहीं है कि बेटी वर्जिन है कि नहीं.
भास्कर बनर्जी की पत्नी का जीवन पति की सेवा करने में गुजर गया और य बात वो अपनी बेटी के लिए नहीं चाहते. यह रिश्ता उससे कहीं ज्यादा जटिल है, जितना चंद शब्दों में बयान किया जा सकता है. लेकिन कुल मिलाकर बात प्यार, बराबरी और दोस्ती की ही है.
उस न्यूयॉर्क टाइम्स के आर्टिकल की हेडलाइन की तरह एक हेडलाइन ये भी हो सकती है- “जब पिता बनते हैं बेटियों के दोस्त, बेटियां जीती है बेहतर जीवन.”
दंगल (2016)
निर्देशक – नितेश तिवारी
दंगल फिल्म की कहानी तो वास्तविक जीवन पर आधारित है. हरियाणा के एक सामंती, पारंपरिक और रूढि़वादी परिवार का पिता, जिसे जिद है अपनी बेटियों को रसलर बनाने की. दीवानगी की हद तक उस जिद में डूबा पिता सपने को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है. लड़कियों की लड़कों से कुश्ती करवा सकता है.
इस फिल्म का एक क्रिटिक ये था कि गीता और बबीता फोगाट के पिता महावीर सिंह (आमिर खान) कतई डेमोक्रेटिक इंसान नहीं हैं. उन्होंने एकतरफा तौर पर अपनी बेटियों की जिंदगी के लिए फैसला ले लिया और उन्हें कुश्ती में झोंक दिया. बात सच है, लेकिन सही नहीं है. हम एक ऐसे समाज में रहते हैं, जहां 90 फीसदी पिता बेटियों से पूछे बिना उनके जीवन के सारे एकतरफा फैसले लेते हैं. उन्हें पढ़ाते नहीं, नौकरी नहीं करने देते, मर्जी के खिलाफ उन्हें ब्याह देते हैं.
ऐसे में एकतरफा मर्जी ही सही, लेकिन महावीर फोगाट ने बेटियों को ब्याहने के बजाय वो बनाया कि आज पूरी दुनिया उनका नाम जानती है. उनकी अपनी पहचान है.
गुंजन सक्सेना, द कारगिल गर्ल (2020)
निर्देशक – शरन शर्मा
यह बायाग्राफिकल ड्रामा फिल्म यूं तो मूल रूप से पिता-बेटी के रिश्तों पर आधारित नहीं है, लेकिन फिल्म में गुंजन सक्सेना (जाह्नवी कपूर) का अपने पिता अनूप सक्सेना (पंकज त्रिपाठी) के साथ बहुत सुंदर रिश्ता है. वो इस तरह के पिता हैं, जो हारने पर हौसला देते हैं, जीतने पर दाद. जो हमेशा बेटी के सिर पर ढाल बनकर खड़े रहते हैं. जो प्यार भी करते हैं और हिम्मत भी देते हैं. ऐसे पिता, जिनका हाथ पकड़कर बेटियां दुनिया की हर मुश्किल का मुकाबला कर सकती हैं.