प्रीती हिंगे अपने गांव और दूर-दूर तक के सौ गांवों में अकेली महिला कारपेंटर हैं, चला रही हैं अपना बिजनेस
प्रीती के पास इतना काम है कि उन्हें यह सोचने की फुरसत ही नहीं कि उनके बढ़ई होने को दुनिया कैसे देखती है. उनके गांव के लोग क्या सोचते हैं. उनका सपना बड़ा है. वो इस छोटी सी वर्कशॉप को एक दिन बड़े शोरूम में बदलना चाहती हैं.
नागपुर में रहने वाली 30 साल की प्रीती हिंगे अपने गांव की और 100 किलोमीटर दूर-दूर तक आसपास के किसी भी गांव की पहली ऐसी महिला हैं, जो पेशे से बढ़ई हैं. नागपुर के वाठोडा में उनकी वर्कशॉप है. नाम है जयश्री गणेश फर्नीचर मार्ट.
तीन बच्चों की मां प्रीती की यह रोज की दिनचर्या है. सुबह जल्दी उठना और फिर घर के जरूरी काम निपटाकर पैदल ही वर्कशॉप चले जाना. वर्कशॉप घर से ज्यादा दूर नहीं, लेकिन रास्ते में अब भी कई बार लोगों की घूरती निगाहें, मर्दों की फब्तियां उनका पीछा करती हैं. लेकिन प्रीती के दिमाग में तो उस वक्त कुछ और ही हिसाब चल रहा होता है.
हाथों का हुनर और खुदमुख्तार औरत
पिछले हफ्ते जिस पलंग का ऑर्डर आया था, वो पूरी करनी है. छह कुर्सियां कल शाम बनकर तैयार हो गई थीं, लेकिन उनकी पॉलिश अभी बाकी है. नया माल ऑर्डर किया था. वो आज पहुंचने ही वाला होगा. प्रीती के पास इतना काम है कि उन्हें यह सोचने की फुरसत ही नहीं कि उनके कारपेंटर होने को दुनिया कैसे देखती है. उनके गांव के लोग क्या सोचते हैं. उनका सपना बड़ा है. वो इस छोटी सी वर्कशॉप को एक दिन बड़े शोरूम में बदलना चाहती हैं. वो चाहती हैं कि उनके जैसी हाशिए पर पड़ी और बहुत सारी महिलाएं इस हुनर को सीखकर खुदमुख्तार हो सकें, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बन सकें.
जब पिता से कहा, मैं बढ़ई बनना चाहती हूं
प्रीती कहती हैं, “मैं शुरू से ही पुरुषों को हाथ के काम करते देख काफी अभिभूत होती थी. बढ़ई लकड़ी से तरह-तरह के सुंदर सामान बना देता, मिस्त्री मकान खड़ा कर देता. मुझे भी लगता था कि मैं ये काम करूं. मैंने अपने पिताजी से कहा कि मैं भी उनकी तरह काम करना चाहती हूं.”
प्रीती के पिता भी कारपेंटर हैं. उनके पास अलग से कोई दुकान या वर्कशॉप नहीं थी. घर के छोटे पिछवाड़े में वो लकड़ी के सामान बनाते. उनका ज्यादातर काम दूसरों के घर पर ही होता. कभी आसपास से कोई ऑर्डर मिलने पर जब वो उनके घर जाकर कुर्सी, मेज, पलंग या आलमारी बना रहे होते थे तो प्रीती भी पिता के साथ चली जाती.
जब पहली बार प्रीती ने उनसे कारपेंटरी का काम सीखने की इच्छा जाहिर की तो उन्हें थोड़ा आश्चर्य हुआ. उन्होंने भी कभी लड़कियों को ऐसे काम करते देखा नहीं था. वो बहुत आधुनिक विचारों वाले शहरी पिता नहीं थे. लेकिन इतने संकीर्ण भी नहीं कि अपनी बेटी की इच्छा का सम्मान न करें.
सिर पर पिता का हाथ और बेटी का हुनर
पिता ने बेटी को अपने साथ बढ़ई का काम सिखाने का फैसला किया. प्रीती भी पिता के साथ आरी, छेनी, हथौड़ा चलाने की कला सीखने लगी. जैसाकि हमेशा ही होता है, बदलाव को कोई आसानी से स्वीकार नहीं करता. एक पिता अपनी बेटी को कारपेंटरी सिखा रहा था और आसपास के बाकी पिताओं को ये बात बड़ी बुरी लग रही थी. लोग बातें बनाने लगे, घरवालों को भी थोड़ा डर तो लगा. लेकिन पिता ने बेटी का साथ देना नहीं छोड़ा.
20 साल की उम्र में बनाई पहली आलमारी
प्रीती रोज अपने पिता के साथ उनकी दुकान पर जाती रही और बढ़ईगिरी का काम सीखती रही. सारा काम उन्होंने पिता को काम करते देख-देखकर ही सीखा. 20 साल की उम्र में पहली आलमारी बनाई और वो बिक भी गई. प्रीती का हौसला बढ़ गया. उसे यकीन हो गया कि कारपेंटर बनने का सपना अब पूरा जरूर होगा.
आठ साल पहले प्रीती ने अपनी खुद की वर्कशॉप खोली. किराया था 8,000 रु. महीना. तब यह रकम बहुत बड़ी लगती थी. लेकिन धीरे-धीरे काम चल पड़ा तो कमाई भी होने लगी. वक्त के साथ मुनाफा भी बढ़ने लगा.
जब प्रीती ने दुकान खोली थी, तब उनकी पहली बेटी का जन्म हो चुका था. वो गोद की बेटी को साथ लेकर काम पर जातीं. बाद में दो और बच्चों का जन्म हुआ. प्रेग्नेंसी के दौरान भी उन्होंने काम करना नहीं छोड़ा. आज वो तीन बेटियों की मां हैं. सबसे बड़ी बेटी 9 साल की है. दूसरी पांच और तीसरी तीन साल की है.
कोविड महामारी और बिजनेस पर असर
कोविड के समय बदली आर्थिक स्थितियों का प्रीती के बिजनेस पर भी काफी असर पड़ा. ऑर्डर आने कम हो गए. कुछ समय के लिए काम बहुत मंदा पड़ गया, लेकिन अब वापस उनका काम पटरी पर लौट रहा है. फिर से ऑर्डर्स आने शुरू हो गए हैं. कुछ समय पहले प्रीती ने भारत सरकार के स्किल इंडिया मिशन के अंतर्गत चलाए जा रहे प्रोग्राम के तहत ‘द नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर आंत्रप्रेन्योरशिप एंड स्मॉल बिजनेस डेवलपमेंट (NIESBUD)’ में 15 दिन की एक कार्यशाला में हिस्सा लिया. प्रीती कहती हैं, "वहां मुझे कारपेंटरी की कई बारीकियां सीखने का मौका मिला, जो पिता के साथ और स्वतंत्र रूप से काम करते हुए मैं नहीं जानती थी.” वो कहती हैं कि इस ट्रेनिंग ने मुझे अपने काम में और कुशल बनने में मदद की.
पिछले आठ सालों में प्रीती ने काफी लंबा सफर तय किया है. शुरुआत जान-पहचान के लोगों, मित्रों, परिचितों और रिश्तेदारों के लिए लकड़ी के फर्नीचर बनाने के साथ की थी. काबिलियत, लगन और मेहनत से आज प्रीती का काम आज काफी बड़ा हो गया है. उन्होंने दो और लोगों अपने यहां काम पर भी रखा हुआ है.
प्रीती के पति पेशे से ड्राइवर हैं और पत्नी के काम में उनका पूरा सहयोग करते हैं. समाज के जो लोग पहले प्रीती का मजाक उड़ाते थे, आज वही उनकी सफलता पर मोहित होते हैं. गर्व करते हैं. प्रीती का उदाहरण देखकर आसपास के और उनके गांव के लोगों को भी लगने लगा है कि बेटियां बेटों से किसी मामले में कम नहीं हैं. उन्हें मौका मिले तो वो कमाल कर सकती हैं. प्रीती कहती हैं, “कोई काम आदमी या औरत का काम नहीं होता. औरतें भी वो सारे काम कर सकती हैं, जो मर्दों को लगता है कि सिर्फ उन्हीं का अधिकार है.”