कश्मीर के एक विस्थापित कवि, लेखक और विचारक अग्निशेखर के स्वर
साहित्य में 'अग्निशेखर' के नाम से मशहूर डॉक्टर कुलदीप सुंबली कश्मीर के एक विस्थापित कवि के रूप में जाने जाते हैं...
कश्मीर के विस्थापित कवि, लेखक, विचारक और जड़ से उजड़ते लोगों के नेता अग्निशेखर कहते हैं - मैं पाबलो नेरूदा, बरतोल्त ब्रेख़्त से ले कर क़ाज़ी नज़रुल इसलाम से निराला तक से प्रेरित हूँ। कबीर मेरे आदर्श है। अग्निशेखर के पूरे रचना संसार में विस्थापन का दर्द मानो शब्द-शब्द उफनता रहता है हर वक्त। अग्निशेखर का तीन मई को जन्म दिन है।
हमारे निर्वासन में लिखे गए साहित्य में कई चौंका देने वाली समानताएँ होना स्वभाविक है। यहूदी साहित्य में विस्थापन के साथ, फिलिस्तीनी साहित्य में दुर्द्धर्श आकांक्षा के साथ, अश्वेत साहित्य में आए नस्ल भेद के साथ, अरबी साहित्य विशेषकर सीरिया में 1967 की अरब पराजय के बाद की मानसिकता के साथ, मिला कर इसे देखा जा सकता है।
साहित्य में 'अग्निशेखर' के नाम से मशहूर डॉक्टर कुलदीप सुंबली कश्मीर के एक विस्थापित कवि के रूप में जाने जाते हैं। तीन मई को अग्निशेखर का जन्मदिन होता है। अग्निशेखर न तो कश्मीर की सियासत में किसी परिचय के मोहताज हैं, न हिन्दी साहित्य में। एक विस्थापित कवि के रूप में वह अलग रहते हुए भी कश्मीर को अपने दिल से कभी पृथक नहीं कर सके हैं। कश्मीरी साहित्य को विश्व मंच तक ले जाने में भी उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। हिन्दी में अब तक उनके कई कविता संग्रह- 'किसी भी समय', 'मुझसे छीन ली गई मेरी नदी', 'कालवृक्ष की छाया में', 'जवाहर टनल' आदि प्रकाशित हो चुके हैं।
उनकी ज्यादातर कविताओं में भी अपनी जड़ों से टूट जाने, बेघर हो जाने की सदियों पुराना दर्द है। 'जवाहर टनल' के एक तरफ है कश्मीर और दूसरी तरफ शेष भारत, बकौल कवि के ''हिंदुस्तान- मेरा देश महान...' बीच में एक सुरंग है- गहरा स्याह और अन्तहीन! इसी में फंसे हुए हैं सैकड़ों लोग- विस्थापित, अपनी जन्नत से- दोजख की ओर- एक लंबी, अनजान यात्रा पर। इन कविताओं में जो कुछ भी है, वह किसी उदास इन्द्रधनुष की तरह खूबसूरत, मगर उतना ही त्रासद भी! इन्हें पढते हुए हाड़-मज्जे में सन्नाटा धंस आता है और एक आतंक - एकदम अछोर, अतल।
अस्सी के दशक के पूर्वार्ध में जब अग्निशेखर कश्मीर विश्वविद्यालय में हिन्दी में पीएचडी कर रहे थे, तो उन्होंने शायद सोचा ही न होगा कि नियति उनको नेतृत्व की दिशा में धकेल देगी। फिर अस्सी का दशक समाप्त होते होते, कश्मीर घाटी में इनक़लाब सा आ गया, तथाकथित आज़ादी का इनक़लाब। वर्षों से कश्मीर में पाकिस्तान समर्थित अलगाववाद का जो लावा उबल रहा था, वह ज्वालामुखी बन कर फूट पड़ा। कुछ दिनों के लिए, कुछ शहरों में, लग रहा था कि अलगाववादी अपने मक़सद में कामयाब हो गए हैं। मस्जिदों के लाउड-स्पीकरों से, उर्दू अखबारों में छपी सूचनाओं से एक ही आवाज़ आ रही थी – रलिव या गलिव, (हमारे साथ) मिलो या मरो।
ऐसे में कश्मीरी हिन्दू और अन्य भारतवादी आतंक के घेरे में आ गए। कुछ लोगों को निशाना बनाया गया, जिन में गणमान्य लोग भी थे और साधारण लोग भी। कई गाँव के गाँव ऐसे में एथ्निक क्लीन्सिंग की भूमिका बनाए गए, ताकि बाकी भारतवादियों को सबक मिले। लाखों लोगों का एक पूरा समुदाय, जो पीढ़ियों से कश्मीर के अतिरिक्त किसी घर को नहीं जानता था, समूल उखाड़ फेंका गया। पिछले लगभग दो दशकों से विश्व का भू-राजनैतिक घटनाक्रम जिस तेज़ी के साथ स्थापित मानचित्र बदलता हुआ चला है उसे देखते हुए क्या मैं पूछूँ कि क्या सोवियत रूस का टूटना संभव था? टूट कर नए देशों का बनना, बर्लिन की दीवार का गिरना? इसी तरह आज़ाद कश्मीर में पाकिस्तान का बनना, अलग इस्लामी गणतन्त्र का बनना?
कश्मीर को वहाँ के मूल निवासी हिन्दुओं से विहीन करना संभव है, तो विस्थापित कश्मीरी पंडितों के लिए चंडीगढ़ सरीखा एक विशाल गृहराज्य बनना संभव क्यों नहीं? यह दरअसल एक राष्ट्रीय मुद्दा है, संकीर्ण और कश्मीरी पंडितों तक सीमित नहीं। कश्मीर के मुद्दे का अन्तिम निदान कब और कैसे होगा, आज की तारीख में उस के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। जब भी ऐसा होगा, उस समय हमारे भू-राजनैतिक अधिकारों की अनदेखी घातक सिद्ध होगी। कश्मीर में कश्मीरी हिन्दुओं का वापसी कश्मीरियत की वापसी है, उसकी परंपरा की वापसी है, उसकी विरासत की वापसी है, और इसे वृहत् भारतीय सांस्कृतिक परिपेक्ष्य में देखें तो यह हमारे जीवन मूल्यों की वापसी है।
कवि, लेखक, विचारक और विस्थापित कश्मीरियों के नेता अग्निशेखऱ कहते हैं - 'मैं पनुन कश्मीर का स्वप्न दर्शी हूँ। मैंने अपने चन्द मित्रों के साथ इसको सोचा, बुना और खड़ा किया। इस में कश्मीरी विस्थापितों के उन तमाम अधिकारों की आग्रहपूर्वक बात की जो उन से छिन चुके थे, भूमि की बात की, अनुभवों की बात की। भविष्य की अपने लिए शासन की बात की, भारतीय संविधान की निर्बाध बहाली की बात की, इसीलिए होमलैंड के साथ केन्द्र शासित क्षेत्र की बात की, जहाँ वे सब लोग निश्शंक और निर्भय हो कर सम्मान के साथ रह सकें जिन का विश्वास भारतीय लोकतन्त्र और धर्म-निरपेक्षता, सह-अस्तित्व और सहिष्णुता में हो।
चूँकि कश्मीर में धर्म-निरपेक्षता की धज्जियाँ उड़ाई गई हैं, सह-अस्तित्व को नकारा गया है, अतः वहाँ के मूल नागरिक होने के नाते हमारा अधिकार बनता है कि हम वहाँ जा कर अपने रंग-ढंग से रह सकें। इसीलिए हमने अलग होमलैंड की मांग की। यह मांग साम्प्रदायिक नहीं है, बल्कि धर्म-निरपेक्ष है। जबकि समूचा आतंकवाद, अलगाववाद और उसके समर्थक साम्प्रदायिक हैं। इसीलिए मैंने कहा पनुन कश्मीर धर्म-निरपेक्षता की नर्सरी है। अपनी रचनाओं पर निष्कासन की छाप का जिक्र करते हुए अग्निशेखर कहते हैं कि दुर्भाग्य से निर्वासन हमारी नियति बन गई है।
यह निर्वासन देश विभाजन के बाद की सब से बड़ी मानवीय त्रासदी है। इसने एक जीवन्त और उज्जवल संस्कृति को धूल फांकने पर विवश किया है और उसके रेशे रेशे को बिखेर दिया है और नई चुनौतियों, नए अनुभवों और नए वस्तुसत्य को सामने ला खड़ा किया है। यह वस्तुसत्य हमें यहूदियों के ऐतिहासिक वस्तुसत्य से जोड़ता है। हमारे निर्वासन में लिखे गए साहित्य में कई चौंका देने वाली समानताएँ होना स्वभाविक है। यहूदी साहित्य में विस्थापन के साथ, फिलिस्तीनी साहित्य में दुर्द्धर्श आकांक्षा के साथ, अश्वेत साहित्य में आए नस्ल भेद के साथ, अरबी साहित्य विशेषकर सीरिया में 1967 की अरब पराजय के बाद की मानसिकता के साथ, मिला कर इसे देखा जा सकता है। ऐसी ही एक कविता है 'कांगड़ी' -
जाड़ा आते ही वह उपेक्षिता पत्नी सी
याद आती है
अरसे के बाद हम घर के कबाड़ से
उसे मुस्कान के साथ निकाल लाते हैं
कांगड़ी उस समय
अपना शाप मोचन हुआ समझती है
उस की तीलियों से बुनी
देह की झुर्रियों में
समय की पड़ी धूल
हम फूँक कर उड़ाते हैं
ढीली तीलियों में कुछ नई तीलियाँ भी डलवाते हैं।
वह समझती है
कि दिन फिरने लगे हैं
हम देर तक रहने वाले कोयले पर
उस में आंच डालते हैं
धीरे धीरे उत्तेजित हो कर
फूटने लगता है उस की देह से संगीत
जिसे अपनी ठंड की तहों में
उतारने के लिए हम
उसे एक आत्मीयता के साथ
अपने चोगे के अन्दर वहशी जंगल में लिए फिरते हैं।
और जब रात को बुझ जाती है कांगड़ी
हम अनासक्त से हो कर
उसे सवेरे तक
अपने बिस्तर से बाहर कर देते हैं
कांगड़ी अवाक् देखती है हमें रात भर
आदमी हर बार
ज़रूरत के मौसम में उसे फुसलाता है
परन्तु नहीं सोचता कभी वह
उलट कर उस के बिस्तर में
भस्म कर जाएगी सदा की बेहूदगियाँ।
अग्निशेखर का अपने रचना संसार से एक अलग तरह का जुड़ाव है। उनके शब्दों में 'कविता रच रहा हूँ, तो जी रहा हूँ। इस में किसी प्रकार का विरोधाभास नहीं है। मेरी कविता का केन्द्रीय संवेदन निर्वासन, विस्थापन, निष्कासन है, और यही मेरे जीवन की संवेदना हो गई है। इसी से मुक्ति की कामना, प्रतिरोध का संघर्ष हम छेड़े हुए हैं, जिसमें मैं अग्रणी रूप से सक्रिय हूँ और चाहता हूँ कि जिनके साथ हम घाटी में जी रहे थे, वे सभी सांस्कृतिक जीवन मूल्य पुनः बहाल हों, सद्भाव हो और धर्म जाति या मौलिक विचारधारा के आधार पर किसी के साथ भेदभाव न हो। मुख्यतः पनुन कश्मीर सूक्ष्म स्तर पर यही एक स्वप्न लेकर चलता है।
हालाँकि इसकी स्थूल व्याख्याएँ अलग अलग तरह से की जाती हैं। पनुन कश्मीर मेरे लिए सेक्युलरिज़्म की नर्सरी है, जिस में हम इन्हीं जीवन मूल्यों की पनीरी बचाए हुए हैं। आज कश्मीर घाटी में अलगाव और धर्म के आधार पर एक विखंडन की प्रतिक्रिया अपने हिंस्र और बर्बर रूप में चल रही है। मेरे लिए दो ही रास्ते हैं। या तो पराजय स्वीकार कर अपना जीवन यापन करना, या पलट कर इस सब से लड़ना। शब्द और कर्म दोनों से। कबीर, मेरे आदर्श कवि हैं। मेरे जागने और मेरे दुख में जहाँ निविड़ एकान्त, उदास कर देने वाली चुप्पी है वहीं भविष्य में आस्था रखने वाले ऐसे तमाम विस्थापित संस्कृति कर्मी, बुद्धिजीवी, संघर्ष-चेतना से संपन्न राजनीतिक कार्यकर्त्ता व शरणार्थी शिविरों में घुट घुट कर सांस ले रही आम जनता की भागीदारी रही है, जो आज के छद्म और क्षुद्र स्वार्थों के युग में अकेला पड़ते हुए भी संबल देती है।
अग्निशेखर बताते हैं कि मैंने उन तमाम अपने प्रिय प्रगतिशील कवियों, रचनाकारों, बुद्धिजीवियों की परवाह नहीं की, जो मेरे विस्थापन और जीनोसाइड पर चुप रहे। यह टीस मुझे अन्दर ही अन्दर सालती रही है। अभिव्यक्ति के सारे खतरे लगातार उठाते हुए चरम यातना के क्षणों में भी मेरी आस्था, मेरा सौन्दर्य मरा नहीं। प्रतिक्रियावादी बना नहीं अपितु एक अद्भुत दीप्ति से चमक उठा है, जो कि एक संघर्षरत रचनाकार से अपेक्षित होता है। मैं पाबलो नेरूदा, बरतोल्त ब्रेख़्त से ले कर क़ाज़ी नज़रुल इसलाम से निराला तक से प्रेरित हूँ। जयश्री रॉय लिखती हैं कि 'जवाहर टनल' में एक स्याह सुरंग और उजाले की अन्तहीन तलाश है। इस कविता संग्रह में तकरीबन 57 कविताएँ हैं। कविताएँ- अन्तहीन दु:स्वप्न, यातना और दंश की मार्मिक अभिव्यक्ति और इसके साथ ही इस त्रासद दौर के बीच से अपनी आस्था और प्रेम को बचा ले जाने की जिद्द... टूटे-हारे जनों की गाथा जो मटियामेट होकर भी झुके नहीं हैं! चल रहे हैं अविराम जीवन का अग्निपथ और उनका हौसला आज भी आकाश को छूता है।
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