समाज में कलम से ज्यादा कुर्सी की महिमा: मनोहर श्याम जोशी
मनोहर श्याम जोशी के जन्मदिन पर विशेष...
हमारे समाज में कलम से ज्यादा महिमा कुर्सी की है। रुतबा, रौब, रुपया, कुर्सी पर बैठकर ही मिलता है। कुर्सी जमाने, उखाड़ने के अधिकार दिलाती है, भक्तों को आकर्षित, शत्रुओं को आतंकित करती है।
उन्होंने 'हिंदी साहित्य में वीरबालकवाद' शीर्षक से एक बार सविस्तार ऐसा व्यंग्य-लेख लिखा कि उसने बड़े-बड़ों की मूर्च्छा झकझोर डाली। उसमें उन्होंने देश के तमाम बड़े कवियों, साहित्यकारों, पत्रकारों, मठाधीशों की जमकर कलई खोली।
हिंदी के प्रसिद्ध गद्यकार, उपन्यासकार, व्यंग्यकार, पत्रकार, दूरदर्शन धारावाहिक एवं फ़िल्म पटकथा लेखक मनोहर श्याम जोशी का आज (9 अगस्त) जन्मदिन है। एक जमाने में, जब सिर्फ दूरदर्शन घरों में दस्तक दिया करता था, जोशी के लिखे धारावाहिक 'बुनियाद', 'नेताजी कहिन', 'मुंगेरी लाल के हसीं सपने', 'हम लोग' आदि रोजाना सुर्खियों में रहा करते थे। उन धारावाहिकों के कारण वह भारत के घर-घर में प्रसिद्ध हो गए। उनका जन्म 9 अगस्त, 1933 को अजमेर (राजस्थान) के एक प्रतिष्ठित एवं सुशिक्षित परिवार में हुआ था। भाषा के जितने विविध अंदाज और मिज़ाज मनोहर श्याम जोशी के लेखन में मिलते हैं, उतने किसी और हिंदी कथाकार में नहीं। कभी शरारती, कभी उन्मुक्त। कभी रसीली तो कभी व्यंग्यात्मक। कभी रोजमर्रे की बोलचाल वाली तो कभी संस्कृत की तत्सम पदावली वाली। उनकी भाषा में अवधी का स्वाद भी है, कुमाउंनी का मजा और परिनिष्ठित खड़ी बोली का अंदाज भी।
उन्होंने 'हिंदी साहित्य में वीरबालकवाद' शीर्षक से एक बार सविस्तार ऐसा व्यंग्य-लेख लिखा कि उसने बड़े-बड़ों की मूर्च्छा झकझोर डाली। उसमें उन्होंने देश के तमाम बड़े कवियों, साहित्यकारों, पत्रकारों, मठाधीशों की जमकर कलई खोली। देश के प्रतिष्ठित पत्रकार रामशरण जोशी को लक्ष्य कर उन्होंने एक संस्मरण के बहाने बड़े चुटीले अंदाज में लिखा, 'साठ के दशक में मुंबई में देवानंद के एक सहायक अमरजीत को जुहू में में टायर पंचर लगाते हुआ एक किशोर मिला, जो बहैसियत लेखक बंबइया फिल्मों में किस्मत आजमाने अपने घर से भागकर आया था। चंदा इकट्ठा कर बंबई से उसे विदा किया गया। लगभग सात वर्ष बाद साप्ताहिक हिंदुस्तान में एक नौजवान पत्रकार मुझसे मिलने आया। उसे देखते ही मेरे मुँह से निकला, 'कहो वीरबालक तुम यहाँ कैसे?' रामशरण जोशी जयपुर में अपनी पढ़ाई पूरी करके बहैसियत फिल्म-लेखक बंबई में किस्मत आजमाने आ गए थे। मैंने उनका स्वागत किया और उनकी सारगर्भित पत्रकारिता के कई नमूने छापे। शुरू में रामशरण जनसंघियों की न्यूज एजेंसी 'हिंदुस्तान समाचार' से जुड़े हुए थे। फिर वह एक नक्सलवादी के रूप में प्रकट हुए। उनकी बातचीत और पत्रकारिता से यह संकेत मिलने लगा कि संघर्ष है जहाँ, वीरबालक है वहाँ। इसके साथ ही नेताओं के बारे में उनकी व्यक्तिगत जानकारी में बड़ी तेजी से इजाफा होता चला गया। सत्ता-प्रतिष्ठान के पत्रों के लिए लिख तो पहले से ही रहे थे फिर वह उनमें से एक में अच्छे पद पर नियुक्ति भी पा गए। और इसके साथ ही उनका संघर्षरत क्रांतिकारी वाला स्वरूप ज्यादा जोर पकड़ने लगा।'
जोशी जी बताते हैं कि अपने इस इतने लंबे साहित्यिक जीवन में मैंने अब तक कुल एक ऐसा लेखक देखा है, जो अच्छी खासी नौकरी छोड़कर क्रांतिकारी बनने चला गया। वह था दिनमान में मेरे साथ काम कर चुका रामधनी। वह भी अब मुख्यधारा में शामिल हो गया है। अपने मित्र मुद्राराक्षस को छोड़ मैंने किसी और लेखक को नहीं देखा, जिसने किसान या मजदूर मोर्चे पर काम किया हो। और तो और स्वतंत्र लेखन कर सकने और अपनी बात बेरोक-टोक कहने की खातिर नौकरी छोड़ने वाले पंकज बिष्ट जैसे लोग भी गिने-चुने ही मिल पाएँगे। जोशी जी कहते हैं कि नंगे पाँव चलने वाले का साहित्य में भले ही अनन्य स्थान हो, वे नगण्य समझे जाते हैं। उनके बारे में यह तक नहीं माना जाता कि वे वे मकबूल फिदा हुसैन मार्का बेहतरीन स्टंटबाज हैं। राजनीति की तरह साहित्य में भी स्थायी दोस्त दुश्मन-जैसी कोई चीज नहीं होती। शत्रुता का एक बहुत ही मैत्रीपूर्ण मैच चलता रहता है। सौदेबाजी चलती रहती है और समीकरण बदलते रहते हैं। इसलिए आपसी गाली-गलौज को बहुत सिर-यसली में नहीं टेक किया जाता।
'हिंदी साहित्य में वीरबालकवाद' शीर्षक व्यंग्य-लेख में वह लिखते हैं - 'अमरीकी नाटककार आर्थर मिलर ने कहा था - 'लोकतंत्र वाले देशों में सत्ता प्रतिष्ठान को मुँह बिराते संस्कृतिकर्मी अब जेलों में नहीं, भव्य दफ्तरों में कैद किए जा रहे हैं। उनकी हैसियत खतरनाक क्रांतिकारियों की नहीं, मनोरंजक उछल-कूद करने वाले बंदरों की रह गई है। इसलिए वे जितना ही ज्यादा गाली-गलौज करते हैं, उन्हें उतना ही ज्यादा प्यार से गले लगाया जाता है। उन्हें अपनाकर सत्ता प्रतिष्ठान अपनी छवि सुधार लेता है और साथ ही स्वयं उन्हें सत्ता प्रतिष्ठान का ही एक हिस्सा बना देता है।...आज तो मीडिया हर कहीं वामपंथियों को वातानुकूलित दफ्तरों में बैठकर सर्वहारा की पैरवी और मुक्तमंडी की भर्त्सना करने के लिए तगड़ा वेतन और हर तरह की सुख-सुविधा दे रहा है। लोकतंत्र और मुक्तमंडी के अंतर्गत स्वयं राजनीति भी कुल मिलाकर वीरबालकवादी हो चली है इसलिए आज भारत जैसे असामंती देश तक यह संभव है कि आप किसी सेठ की या सरकार की नौकरी करते हुए भी अपने को सत्ता-प्रतिष्ठान-विरोधी क्रांतिकारी मान और मनवा सकें। कभी कम्युनिस्ट होने पर सरकारी नौकरी नहीं मिलती थी, आज यह आलम है कि पूँजीपति मीडिया में काम करने वाले पत्रकार और आईएएस, आईपीएस अधिकारी भी अपने को कम्युनिस्ट बता रहे हैं। उनमें एक-दूसरे पर सेठाश्रय या राजाश्रय लेने का आरोप लगाने का रिवाज है। अपनी समस्त प्रगतिशीलता के बावजूद सरस्वती-वंदना सुनने और शंख-ध्वनि के बीच शाल, श्रीफल, प्रतिमा और चेक लेने की स्वीकृति। जब हम न शाल ओढ़ते हैं और न हमें नारियल गिरी की बर्फी पसंद है, तब आप शाल-श्रीफल ही क्यों दिए चले जाते हैं? सूट लेंथ और स्काच नहीं दे सकते क्या?'
जोशी जी बताते हैं कि मेरे मित्र साहित्यकारों में केवल कमलेश्वर ही ऐसे थे, जो इंदिरा गांधी के विरोध में कुछ कर दिखाने के लिए निकले थे। प्रसंगवश बाद में वह समर्थ कवि और प्रकांड विद्वान से ज्यादा इस रूप में सायं स्मरणीय हुए कि समर्थ मेजबान हैं। मेरे दोस्तों में कुल निर्मल वर्मा ने ही 'जोशी हाउ कैन यू...' वाली शैली में लताड़ते हुए तब कायर संपादक कहा था। औरों को तो यह इलहाम इंदिरा गांधी के हार बल्कि मर जाने के बाद हुआ। वह कहते हैं कि 'हम एक अर्द्धसामंती समाज में जी रहे हैं जिसमें कलम से कहीं ज्यादा महिमा कुर्सी की है। रुतबा, रौब, रुपया, कुर्सी पर बैठने के बाद ही मिलता है। कुर्सी ही जमाने और उखाड़ने के लिए अधिकार दिलाती है, जो भक्तों को आकर्षित शत्रुओं को आतंकित करती है। वीरबालक भयंकर रूप से सत्ता-ग्रंथि का मारा हुआ होता है क्योंकि हिंदीभाषी क्षेत्र में साहित्य और साहित्यकार की अपनी अलग से कोई सत्ता बची ही नहीं है। मुझे अपने दोस्त श्रीकांत का एक सवाल याद आता है जो उसने मुझसे एक दिन दिनमान कार्यालय में पूछा था, यह बताओ जोशी कि ज्यादा पावर किस में होती है - पोस्ट में कि पालिटिशियन में? अगर मैं अपने कसबे बिलासपुर में पावरफुल पोस्ट होकर लौटूँ तो मुझे ज्यादा सम्मान मिलेगा कि पावरफुल मिनिस्टर बनकर लौटने में?'
वह लिखते हैं - 'जैसाकि रामशरण जोशी ने मुझे आपातकाल में कायरता दिखाने का प्रमाण पत्र देने के साथ-साथ यह भी बताया कि इंदिरा गांधी के हार जाने के बाद अपनी कुर्सी बचाए रखने के लिए मैंने अटल जी की कुंडलियाँ छापनी शुरू कर दीं। सफाई देना इसलिए व्यर्थ नहीं है कि किस्सा खासा दिलचस्प है। हुआ यह कि जेल से अटल जी ने एक कुंडली संपादक के नाम पत्र के रूप में भेजी जिसमें मॉरिशस में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन पर कटाक्ष किया गया था। पत्र जेल-सेंसर से पास हो कर आया था, इसलिए मैंने छाप दिया लेकिन इसके छापे जाने पर सूचना मंत्रालय के सेंसर ने मुझे फटकार सुनाई। फिर विदेशमंत्री बन जाने के बाद अटल जी ने अपने कुछ गीत प्रकाशनार्थ भेजे जिन्हें मैंने तुरंत नहीं छापा। इस पर उन्होंने संपादक पर व्यंग्य करते हुए एक कुंडली भेजी। फिर मैंने उनके गीत छापे और उनकी भेजी कुंडली और जवाबी संपादकीय कुंडली भी साथ ही साथ छाप दिए। संपादकीय कुंडली में कहा गया था कि मंत्री पद पा जाने पर कवि हो जाना सहज संभाव्य है। मुझे सचमुच बहुत अफसोस है कि मुझे अपनी कुर्सी बचाने के लिए ऐसे घटिया काम करने पड़े। जहाँ तक रामशरण जोशी का सवाल है, मेरे लिए यह अपार संतोष का विषय है कि उन्हें अपने नक्सलवादी विचारों के कारण माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कार्यकारी निर्देशक का पद मिल गया और इसे पाने या बचाने के लिए उन्हें कभी किसी कांग्रेसी सीएम, पीएम की चाटुकारिता करने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ी।'
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