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भीष्म साहनी के शब्दों में निखरी रिश्तों की बारीकी

भीष्म साहनी के शब्दों में निखरी रिश्तों की बारीकी

Wednesday August 08, 2018 , 5 min Read

ख्यात लेखक भीष्म साहनी जितने बेबाक लेखन में, उतने ही सहज जीवन में, घर-परिवार में। जीवन भर पत्नी शीलाजी उनके अशेष सृजन की प्रथम पाठक-आलोचक रहीं। बेटी कल्पना उन्हें पापा-डैडी नहीं, दोस्त की तरह 'भीष्मजी' कहकर बुलाती थीं। वह ट्रेडिशनल शादी-ब्याह में विश्वास नहीं करते थे। इसे वह स्त्रियों की रचनाशीलता के लिए एक बड़ी बाधा के रूप में देखते थे।

भीष्म साहनी (फाइल फोटो)

भीष्म साहनी (फाइल फोटो)


जहाँ तक प्रगतिवादी कथा आन्दोलन और भीष्म साहनी के कथा साहित्य का प्रश्न है, इसे काल की सीमा में बद्ध कर देना उचित नही है। हिन्दी लेखन में समाजोन्मुखता की लहर बहुत पहले नवजागरण काल से ही उठने लगी थी।

'साहित्य अकादमी', 'शिरोमणि लेखक पुरस्कार', 'लोटस अवॉर्ड' 'सोवियत लैंड नेहरु अवॉर्ड', 'पद्मभूषण' आदि से समादृत हिंदी के प्रतिष्ठित कथाकार-उपन्यासकार भीष्म साहनी का आज (08 अगस्त) जन्मदिन है। हिंदी साहित्य में भीष्म साहनी की कई विशिष्टताएं उन्हें अन्य लेखक-साहित्यकारों से अलग करती हैं। एक कथाकार के रूप में उन पर यशपाल और प्रेमचंद की गहरी छाप रही। वह जितने अपनी रचनाओं में सहज रहे, उतने ही अपने जीवन-व्यवहार में। शायद इसीलिए वह जो कुछ भी लिखते थे, उनकी सबसे पहली पाठक और आलोचिका उनकी पत्नी शीलाजी होती थीं। एक बार तो ‘नीलू, नीलिमा, नीलोफर’ लिखने के बाद उस कृति को पत्नी के हाथों में देने के बाद वह किसी मासूम की तरह उनका अभिमत जानने के लिए उत्सुक रहे। पुस्तक सुपठनीय होने की टिप्पणी मिलते ही वह प्रसन्नता से मुस्करा उठे थे।

जहां तक स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की बात है, वह भारतीय गृहस्थ जीवन में दांपत्य को दो पहियों वाला एक रथ मानते थे। वह स्त्रियों के व्यक्तित्व विकास के पक्षपाती थे। वह परम्परा से चली आ रही विवाह की पारम्परिक मान्यता को ठुकराते हुए पति-पत्नी की भावनात्मक एकता, साझा रचनात्मकता और रागात्मक अनुबंधों को विवाह का प्रमुख आधार मानते थे। ‘चीफ की दावत’, ‘साग मीट’, ‘तमस’ ‘हानूश’, ‘कबिरा खड़ा बजार में’ जैसे अविस्मरणीय सृजन के चितेरे पिता को उनकी बेटी कल्पना पापा-डैडी नहीं, 'भीष्मजी' कहकर सम्बोधित करती थीं। सन् 2000 में राजकमल से प्रकाशित ‘नीलू, नीलिमा, नीलोफर’ उनका आखिरी अद्भुत उपन्यास था। दुनिया छोड़ने से पहले उन्होंने 'आज के अतीत' नाम से आत्मकथा लिखी। उसके बाद 11 जुलाई 2003 को उनका शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया।

ख्यात आलोचक नामवर सिंह कहते हैं- ‘मुझे उनकी प्रतिभा पर आश्चर्य होता है कि कॉलेज में पढ़ते हुए वे लिखने, प्रगतिशील लेखक संघ से भी जुड़ने का समय निकाल लेते थे.मैं यह नहीं कहता कि उनकी सभी रचनाओं का स्तर ऊंचा है लेकिन अपनी हर रचना में उन्होंने एक स्तर बनाए रखा। हैरानी होती है यह देख कर कि रावलपिंडी से आया हुआ आदमी जो पेशे से अंग्रेज़ी का अध्यापक था और जिसकी भाषा पंजाबी थी, वह हिंदी साहित्य में एक प्रतिमान स्थापित कर रहा था।’

जहाँ तक प्रगतिवादी कथा आन्दोलन और भीष्म साहनी के कथा साहित्य का प्रश्न है, इसे काल की सीमा में बद्ध कर देना उचित नही है। हिन्दी लेखन में समाजोन्मुखता की लहर बहुत पहले नवजागरण काल से ही उठने लगी थी। वाम लेखन ने उसमें केवल एक और आयाम जोड़ा था। इसी चिन्तन को मानवतावादी दृष्टिकोण से जोड़कर उसे जन-जन तक पहुंचाने वालों में एक थे भीष्म साहनी। स्वातन्त्र्योत्तर लेखकों की भाँति 'भीष्म साहनी' सहज मानवीय अनुभूतियों और तत्कालीन जीवन के अन्तर्द्वन्द्व को लेकर सामने आए और उसे रचना का विषय बनाया। वाम चेतना के इस लेखक की सृजन-संवेदना का आधार हमेशा जनता का दुख रहा। जनसामान्य के प्रति समर्पित उनका लेखन यथार्थ की ठोस जमीन पर टिका है। वह ऐसे साहित्यकार थे, जो बात को मात्र कह देना ही नहीं बल्कि उसके सच की गहराई को नाप लेना भी उतना ही उचित समझते थे। वह अपने साहित्य के माध्यम से सामाजिक विषमता और संघर्ष के बन्धनों को तोड़कर आगे बढ़ने का आह्वान करते। उनके साहित्य में सर्वत्र मानवीय करुणा, मानवीय मूल्य, नैतिकता और गलत के खिलाफ अडिग रूप से उठ खड़े होने की अनुशासित पुकार होती थी।

उनका जन्म 8 अगस्त 1915 को रावलपिण्डी में एक सीधे-सादे मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। वह अपने पिता हरबंस लाल साहनी तथा माता श्रीमती लक्ष्मी देवी की सांतवी संतान थे। 1935 में लाहौर के गवर्नमेंट कालेज से अंग्रेजी विषय में एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् उन्होने डॉ इन्द्रनाथ मदान के निर्देशन में 'Concept of the hero in the novel' शीर्षक के अन्तर्गत अपना शोधकार्य सम्पन्न किया। सन् 1944 में उनका विवाह शीला जी के साथ हुआ। उनकी पहली कहानी 'अबला' इण्टर कालेज की पत्रिका 'रावी' में तथा दूसरी कहानी 'नीली आंखें' अमृतराय के सम्पादकत्व में 'हंस' में छपी। उन्होंने 'झरोखे', 'कड़ियाँ', 'तमस', 'बसन्ती', 'मय्यादास की माड़ी', 'कुंतो' आदि उपन्यासो के अतिरिक्त भाग्यरेखा, पटरियाँ, पहला पाठ, भटकती राख, वाड.चू, शोभायात्रा, निशाचर, पाली, प्रतिनिधि कहानियाँ व मेरी प्रिय कहानियाँ नामक दस कहानी संग्रहों का सृजन किया। नाट्य-सृजन के क्षेत्र में भी उन्होंने हानूश, कबिरा खड़ा बाजार में, माधवी मुआवजे जैसे नाटक लिखे। जीवनी साहित्य के अन्तर्गत उन्होंने 'मेरे भाई बलराज', 'अपनी बात', 'मेंरे साक्षात्कार' और बाल साहित्य में 'वापसी', 'गुलेल का खेल' आदि का सृजन किया।

देश के विभाजन से पहले उन्होंने व्यापार भी किया। साथ-साथ अध्यापन भी करते रहे। कुछ वक्त तक पत्रकारिता एवं 'इप्टा' के साथ अभिनय करने लगे थे। वह फ़िल्म जगत में अपनी क्षमता आजमाने के लिए बम्बई गए, जहाँ काम न मिलने के कारण बेकारी का जीवन बिताना पड़ा। वापस आकर पुन: कुछ वक्त तक अम्बाला के एक कॉलेज में अध्यापन, उसके बाद दिल्ली विश्वविद्यालय में स्थायी रूप से प्रोफेसर रहे। इसी बीच उन्होंने लगभग 1957 से 1963 तक विदेशी भाषा प्रकाशन गृह मास्को में अनुवादक का भी दायित्व निभाया। वहाँ उन्होंने करीब दो दर्जन टालस्टॉय, ऑस्ट्रोव्स्की, औतमाटोव आदि की किताबों का हिन्दी में रूपांतरण किया। उन्होंने 1965 से 1967 तक 'नई कहानियाँ' का सम्पादन किया, साथ ही प्रगतिशील लेखक संघ तथा अफ़्रो एशियाई लेखक संघ से सम्बद्ध रहे। वह 1993 से 1997 तक 'साहित्य अकादमी एक्जिक्यूटिव कमेटी' के सदस्य भी रहे।

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