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Trial By Fire: दुख, त्रासदी और साहस की ऐसी कहानी, जो लंबे समय तक जेहन में जिंदा रहेगी

13 जून, 1997 को दिल्‍ली के उपहार सिनेमा हॉल में हुए हादसे पर आधारित है नेटफ्लिक्‍स की यह सीरीज.

Trial By Fire: दुख, त्रासदी और साहस की ऐसी कहानी, जो लंबे समय तक जेहन में जिंदा रहेगी

Tuesday January 17, 2023 , 4 min Read

यह कहानी एक ऐसी त्रासदी की है, जो थोड़ी सजगता और जिम्‍मेदारी से रोकी जा सकती थी. यह कहानी हमारे न्‍याय व्‍यवस्‍था की भी है, जिसमें आपके हिस्‍से सिर्फ तारीखें और इंतजार आता है, लेकिन आप अमीर, ताकतवर और रसूख वाले नहीं हैं. यह कहानी उस कभी न खत्‍म होने वाले दुख की है, उस लॉस की, जिसकी कोई भरपाई नहीं. यह कहानी है दुख और अन्‍याय के कभी न खत्‍म होने वाले सिलसिले की.

लेकिन ये उस साहस और हिम्‍मत की भी कहानी है, जो शुरू तो होती है अपने दुख से, लेकिन धीरे-धीरे वो सबके साझे दुख और साझी लड़ाई में बदल जाती है.

नेटफ्लिक्‍स पर बीते शुक्रवार को रिलीज हुई सीरीज ट्राय बाय फायर (Trial by Fire) एक सच्‍ची घटना पर आधारित ऐसी कहानी है, जिसे एक सिटिंग में बैठकर लगातार बस देखते जाना मुमकिन नहीं. बार-बार आपकी आंखें नम होंगी, आपकी आवाज रुंधेगी. आप अपना टीवी बंद कर अपने भीतर उमड़ रहे भूचाल को देखेंगे और उस दुख की कल्‍पना करेंगे, जिससे 13 जून, 1997 के उस दिन और उसके बाद से हर दिन गुजरे होंगे.

साउथ दिल्‍ली के पॉश ग्रीन पार्क इलाके में बने उपहार सिनेमा हॉल में 13 जून, 1997 को बॉर्डर फिल्‍म की स्‍क्रीनिंग के दौरान एक खतरनाक हादसा हुआ. 3 बजे के फिल्‍म शो के दौरान सिनेमा हॉल के बेसमेंट में लगे एक ट्रांसफार्मर में आग लग गई. आग देखते ही देखते पूरे सिनेमा हॉल में फैल गई. तकरीबन 900 लोगों से खचाखच भरे उस हॉल में सिक्‍योरिटी का कोई इंतजाम नहीं था. एक्जिट के दरवाजे बंद थे. वीआईपी सेक्‍शन को खास तवज्‍जो देने के लिए बालकनी के एक्जिट डोर बंद कर दिए गए थे. इमर्जेंसी एक्जिट, फुटलाइट, अनाउंसमेंट माइक कुछ भी काम नहीं कर रहा था.

उस दिन हुए उस खतरनाक हादसे में 59 लोग आग के धुंए में घुटकर मर गए और 100 से ज्‍यादा लोग खतरनाक रूप से घायल हो गए.

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मरने वालों में 13 साल का एक लड़का उज्‍जवल और 17 साल की एक लड़की उन्‍नति भी थी. यह कहानी उनके माता-पिता नीलम कृष्‍णमूर्ति और शेखर कृष्‍णमूर्ति की न्‍याय के लिए लड़ी गई 25 साल लंबी लड़ाई की कहानी है.

उपहार सिनेमा में उस दिन जो हुआ, वो सिर्फ एक हादसा भर नहीं था. अमीर और ताकतवर लोगों की लापरवाही और गैरजिम्‍मेदारी की इंतहा थी. उपहार सिनेमा के मालिक दिल्‍ली के सबसे अमीर और ताकतवर बिल्‍डरों में से एक सुशील और गोपाल अंसल थे.  

सिनेमा हॉल, एक ऐसी जगह, जहां एक साथ सैकड़ों लोग बैठकर फिल्‍म देख रहे हों, वहां उनकी सुरक्षा के, फायर सेफ्टी के कोई इंतजाम नहीं थे. यह कहानी पूरे के पूरे सिस्‍टम की लापरवाही, मक्‍कारी और बेईमानी की कहानी है.

फिर यह कहानी हमारे ज्‍यूडिशियल सिस्‍टम की भी है. 25 साल तक एक केस कोर्ट में घिसटता रहा. अंसल अपने पैसे और ताकत के दम पर बड़े वकीलों को कोर्ट में खड़ा करते रहे. केस सीबीआई के हाथों में गया, तब भी सुबूत गायब होने से लेकर पीडि़तों को डराने-धमकाने तक हर तरह के हथकंडे अपनाए गए.

उपहार त्रासदी में मरे लोगों ने मिलकर एक एसोसिएशन बनाया था- The Association of Victims of Uphaar Fire Tragedy. इस एसोसिएशन ने अंसल ब्रदर्स और इस सिस्‍टम के खिलाफ 25 साल लंबी लड़ाई लड़ी. अंत में अंसल ब्रदर्स को जेल तो हुई, लेकिन फिर अपने पैसे के दम पर वो लोग एक साल में ही जेल से छूट भी गए.

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लेखक और निर्देशक ने इस कहानी को जिस तरह बुना है, इसकी सबसे बड़ी ताकत इसकी स्क्रिप्‍ट है. बिना किसी शोर-शराबे और ड्रामे के निर्देश प्रशांत नायर ने बहुत ताकतवर ढंग से कहानी सुनाई है. नीलम और शेखर कृष्‍णमूर्ति के रोल में राजश्री देशपांडे और अभय देओल ने बहुत सधा हुआ अभिनय किया है. दोनों के हिस्‍से में बहुत ज्‍यादा डायलॉग और भाषण नहीं हैं. लेकिन उनकी आंखें और पूरी देह बोलती है. राजश्री का चेहरा तो ऐसा है कि मानो अपने बच्‍चों की मौत के बाद उसके चेहरे पर सिवा सतत दुख, उदासी और गुस्‍से के अब कोई और भाव बचा ही नहीं है.

नीलम और शेखर कृष्‍णमूर्ति ने मिलकर एक किताब भी लिखी है-‘Trial by Fire: The Tragic Tale of the Uphaar Fire Tragedy.’ यह सीरीज इसी किताब पर आधारित है. 

यह कहानी बहुत लंबे समय तक हमारे जेहन में जिंदा रहने वाली है. इस देश में, जहां हर रोज जाने कितनी त्रासदियां होती हैं और लोग उन्‍हें भूल भी जाते हैं, उपहार केस आज भी न सिर्फ लोगों की स्‍मृतियों में, बल्कि खबरों में भी जिंदा है. उसकी सबसे बड़ी वजह उन लोगों की लड़ाई है. उन्‍होंने कभी हार नहीं मानी, कभी इस मुद्दे को शांत नहीं होने दिया. कोर्ट को भी अंत में अंसल ब्रदर्स को हैवी कंपनसेशन और जेल की सजा देनी ही पड़ी.


Edited by Manisha Pandey