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सायोमदेब से आरजे डेन बनने की कहानी नाउम्मीद को उम्मीद और हार को जीत में बदलने की कहानी है

देश और दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में कई लोग अपनी उपलब्धियों और महान कार्य से कामयाबी की नयी-नयी कहानियाँ लिख रहे हैं। इन कहानियों में जीवन के विविध रंग हैं, लेकिन इन कहानियों की सबसे बड़ी खूबी है कि ये प्रेरणादायक हैं। इन कहानियों में निराशा को आशा, विपरीत परिस्थिति को अनुकूल परिस्थिति और हार को जीत में बदलने के लिए लोगों को प्रेरित और प्रोत्साहित करने की शक्ति है। कामयाबी की हर कहानी अपने आप में विशेष है और उसकी अपनी महत्ता है। कामयाबियों की इन कहानियों की विशेषता और महत्ता उस समय और भी बढ़ जाती है जब इन कहानियों का नायक या नायिका दिव्यांग होता है। दिव्यांगजनों की कामयाबियों और उनकी उपलब्धियों हर व्यक्ति का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती हैं। शारीरिक रूप से कमज़ोर या फिर शरीर के किसी महत्वपूर्ण अंग से अभाव से ग्रस्त कोई किसी भी व्यक्ति के लिए कोई नायाब कामयाबी हासिल करना आसान नहीं होता। कामयाबी की राह और भी मुश्किल जान पड़ती है जब शारीरीक रूप से संपन्न लोग भी किसी लक्ष्य को हासिल करने में नाकाम होते नज़र आते हैं। लेकिन, जब कोई दिव्यांग व्यक्ति कोई ऐसा उपलब्धि हासिल कर लेता है जिसे हासिल में ताकतवर लोग भी विफल होते हैं तब वो दिव्यांग भी नायक बनता है और उसकी कामयाबी की कहानी भी प्रेरणादायक हो जाती है। कोलकाता के सायोमदेब मुखर्जी एक ऐसे ही दिव्यांग हैं जिन्होंने अपने अदम्य साहस और ऊंचे मुकाम पर पहुँचने के जुनून के दम पर कामयाबी की एक नायाब कहानी लिखी है। 

सायोमदेब से आरजे डेन बनने की कहानी नाउम्मीद को उम्मीद और हार को जीत में बदलने की कहानी है

Thursday January 05, 2017 , 19 min Read

कामयाबी की एक अनोखी कहानी के नायक सायोमदेब मुखर्जी का जन्म 1980 में एक बंगाली ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनके पिता पबित्रदेब मुखर्जी डॉक्टर थे। बतौर चिकित्सक पबित्रदेब काफी लोकप्रिय थे। लोग दूर-दूर से अपनी बीमारी का इलाज करवाने उनके पास आते थे। कई लोगों का मानना था कि नब्ज़ पकड़ते ही मरीज़ की बीमारी का पता लगा लेते थे पबित्रदेब। उनकी दी हुई दवाइयां भी जादू-सा असर करती थीं। 

सायोमदेब की माँ गृहिणी थीं। पबित्रदेब मुखर्जी का संयुक्त परिवार था। कई सारे रिश्तेदार एक ही घर में रहते थे। जब सायोमदेब का जन्म हुआ तब घर-परिवार में बड़े ही धूम-धाम से उनका स्वागत किया गया था। घर में नए मेहमान के आगमन पर कई दिनों तक जश्न मनाया गया था। माँ-बाप भी अपनी पहली संतान पर फूले नहीं समां रहे थे। माँ-बाप ने अपने बच्चे को लेकर सपने संजोने शुरू कर दिए थे। लेकिन, माँ-बाप की ख़ुशी ज्यादा दिन तक नहीं रही। सायोमदेब अभी अपने पांवों पर खड़ा होना सीख ही रहे थे कि शारीरिक ताकत कम होने लगी। उनका शारीरिक विकास भी बहुत ही धीमा हो गया। उनका शारीरिक विकास सामान्य बच्चों की तुलना में बहुत ही धीमा था। सायोमदेब सामान्य बच्चों की तरह अपने मूंह से कुछ शब्द भी नहीं कह पा रहे थे। हालत इतनी बिगड़ गयी कि वे शरीर हो हिलाना भी उनके लिए मुश्किल हो गया। शारीरिक दुर्बलता ने उन्हें जकड़ दिया और वे अब एक ही जगह पर रहने को मजबूर हो गए।

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पिता डॉक्टर थे, लेकिन वे भी इस शारीरिक दुर्बलता की वजह नहीं जान पाए। डॉक्टर होने की वजह से पिता इतना ज़रूर जान गए थे कि उनका लाड़ला किसी बीमारी का शिकार है, लेकिन बीमारी कौन सी है ये वे भी नहीं जानते थे। कई सारे परीक्षण करवाए गए, अलग-अलग डॉक्टर्स को दिखाया गया, लेकिन सही बीमारी का पता नहीं चल पाया। विशेषज्ञों की भी सलाह ली गयी, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। सायोमदेब की शारीरिक दुर्बलता दूर नहीं हुई और वे अपने बिस्तर तक ही सीमित रहने को मजबूर बने रहे। सायोमदेब को अपने बचपन के वो दर्द और दुःख से भरे दिन आज भी याद हैं। कोलकाता में उनके मकान पर हुई एक बेहद ख़ास मुलाकात में सायोमदेब ने हमें अपने जीवन की कई महत्वपूर्ण घटनाएं सुनाईं। बातचीत के दौरान सायोमदेब ने कहा, “बचपन की यादें अब भी जीवंत हैं, मैं उन यादों को कभी नहीं भूल सकता। हर चीज़ अच्छे से याद है मुझे। वो दिन भी मैं कभी नहीं भूल सकता जब मुझे ये अहसास हुआ कि मैं अपने आप हिल भी नहीं सकता हूँ।”

अपने जीवन के सबसे कष्टदायी दिनों में एक उस दिन को याद करते हुए सायोमदेब ने बताया, “उस दिन जैसे ही मेरी नींद खुली हर दिन की ही तरह मैंने बिस्तर से उतरने की कोशिश। मैं कोशिश कर रह रहा था लेकिन उतर नहीं पा रहा था। मैंने कई बार कोशिश की लेकिन मैं हिल भी नहीं पाया। कुछ देर बाद मुझे अहसास गो गया कि मुझमें ताकत नहीं है। मैं अपने से उठ भी नहीं पा सकता हूँ। मैं बैठ भी नहीं सकता हूँ , मैं हिल भी नहीं सकता हूँ।” सायोमदेब के लिए मुश्किलें यहीं नहीं रुकीं। मुश्किलों ने अलग-अलग तरीकों से सायोमदेब को जकड़ा। नींद से जगने के बाद एक सुबह अचानक सायोमदेब ने पाया कि उनकी कलाइयां मुड़ी हुई हैं। इसके कुछ दिन बाद उनके हाथ की उंगलियाँ भी मुड़ गयीं। सायोमदेब की हालात उस समय और भी विकट को गयी जब मेरु-रज्जु यानी उनका स्पाइनल कॉर्ड मुड़ गया है, यानी हालत बद से बदतर हो गयी। डॉक्टर पिता ने बीमारी का पता लगाने की हर मुमकिन कोशिश की। विदेश के डॉक्टरों से भी सलाह मशवरा लिया गया, लेकिन कोई बात नहीं बनी। सायोमदेब ने कहा, “पिता के नाते, एक डॉक्टर के नाते उन्होंने वो सब किया जोकि वो कर सकते थे। मेरे पिता के लिए चुनौती एक नहीं कई सारी थीं। उनकी चुनौतियां भी बिलकुल अलग थीं। कई लोग थे जो कहते थे कि डॉक्टर होने के बावजूद उनका बेटा इस तरह से हुआ है। उनपर एक मायने में नाकामी का स्टैम्प भी लगा था। लेकिन, मेरी तरह कई और भी लोग थे जो ये जानते थे कि हर चीज़ डॉक्टर के हाथ में नहीं होती।”

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माँ की तकलीफों के बारे में बताते हुए सायोमदेब और भी ज्यादा ज़ज्बाती हो जाते हैं। सायोमदेब ने कहा, “माँ गृहिणी थीं। उनकी चुनौतियां अलग थीं। मेरी देखभाल की ज़िम्मेदारी सबसे बड़ी थी। माँ के बहुत सारे सपने थे, लेकिन मेरी बीमारी ने उन सब सपनों को ख़त्म कर दिया था।” उन दिनों खुद की मानसिक दशा के बारे में बताते हुए सायोमदेब ने कहा, “जब मैं दूसरे बच्चे को खेलते हुए देखता था तो मुझे बहुत दुःख होता था। मैं समझ नहीं पाता था कि मैं ही ऐसा क्यों हूँ? मेरे आसपास जो लड़के हैं वे सब काम करते हैं। सिर्फ मैं हूँ जो चल फिर नहीं पाता, बात तक नहीं कर पाता, खुद उठकर बैठ भी नहीं पाता। ऐसा मेरे साथ क्यों हुआ ? इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं था।” सायोमदेब की ज़िंदगी सिर्फ बिस्तर और व्हीलचेयर तक ही सीमित हो गयी थी। वे शारीरिक रूप से कमज़ोर तो थे ही उनकी मानसिक ताकत भी कमज़ोर होने लगी थी। उदासी और मायूसी ने भी उन्हें जकड़ लिया था। जाहिर है कि सायोमदेब के जीवन में ये सबसे कठिन समय था। एक इंसान जो चलने-फिरने से लेकर बोलने और हाथ-पैर हिला पाने की काबिलियत भी खो दे उसकी मनस्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। 

सायोमदेब को लगने लगा कि इस अपंग जिंदगी से मौत बेहतर है। लेकिन शरीर से पूरी तरह से लाचार हो चुके सायोमदेब के लिये मौत भी आसान न थी। सायोमदेब ने बताया कि उन्होंने एक बार खुदखुशी करने की भी सोची थी लेकिन वे इतने कमज़ोर थे कि वे खुदखुशी भी नहीं कर पाए। इस घटना के बारे में भी सायोमदेब ने हमें बताया। सायोमदेब के मुताबिक, उनके पिता छुट्टियों में उन्हें घुमाने ले जाते थे। माता भी हमेशा साथ होतीं। पिता सायोमदेब को देश में कई जगह घुमाने ले गए थे। एक बार पिता सायोमदेब को सिक्किम राज्य में एक हिल स्टेशन पर ले गए। इस यात्रा के दौरान एक मौका ऐसा आया जब व्हील चेयर पर बैठे सायोमदेब पहाड़ी पर थे और ठीक उनके सामने खाई थी। गहरी खाई को देखकर सायोमदेब के मन में ख्याल आया कि क्यों न खाई में छलांग लगाकर खुदखुशी की जाय। उन्हें लगा कि खुदखुशी ने उन्हें सारी समस्याओं से मुक्ति मिल जाएगी। सायोमदेब ने बताया कि उन्होंने पूरा ताकत लगाकर व्हीलचेयर से निकलने और फिर खाई में गिरने की कोशिश की। लेकिन, उनके पास इतनी ताकत भी नहीं थी कि वे व्हीलचेयर से बाहर भी निकल पाते। वे इतने लाचार थे कि उस खाई में गिरकर अपनी जान भी नहीं दे सकते थे। तभी सायोमदेब के मन में ये विचार आया कि मौत पर भी उनका कोई अधिकार नहीं है और वे अपनी मर्जी से मर भी नहीं सकते हैं। सायोमदेब को लगा कि मौत से ज्यादा बड़ी चुनौती है जिंदगी जीना और उन्हें इस चुनौती को स्वीकार करना चाहिए।

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सायोमदेब का कहना है कि उनके माता-पिता ने कभी भी अपना धैर्य नहीं खोया और अपनी जिम्मेदारियों को निभाते रहे। उनके शब्दों में, “मेरे माता-पिता ने पॉजिटिव माइंड फ्रेम बनाये रखा।” पिता की लगातार और अबाध चलती रही कोशिशों की वजह से साल 2005 में ये पता चल पाया कि सायोमदेब एक बहुत ही असाधारण आनुवंशिक विकार यानी जेनेटिक डिसऑर्डर का शिकार हैं। 1995 में पहली बार जापान ने डाक्टरों और वैज्ञानिकों ने ‘डोपामाइन- रेस्पांसिव डिस्टोनिया’ नामक इस आनुवंशिक विकार के बारे में पता लगा लिया था लेकिन इसकी रोकथाम के लिए दवाई और टीका नहीं बना पाए थे। इस आनुवंशिक विकार के शिकार व्यक्ति की हालत को बिगड़ने से रोकने या फिर हालत में सुधार लाने के लिए भी दवाई का इजाद कई सालों बाद हुआ था।

साल 2005 में डॉक्टर पिता ने बीमारी और उसके इलाज की दवा का पता चलने के बाद नए सिरे से इलाज शुरू किया। सायोमदेब को डोपामाइन वर्धक दवाइयां देनी शुरू की गयीं। इन दवाइयों का असर भी होने लगा। साल 2005 में इन्हीं दवाइयों से सकारात्मक प्रभाव की वजह से सायोमदेब को उनकी आवाज़ उन्हें वापस मिल गयी। 23 साल के बाद सायोमदेब वापस कुछ बोल पा रहे थे। जब वे करीब डेढ़ साल के थे तब उनकी आवाज़ चली गयी थी तो दो दशक के ज्यादा समय बाद वापस उन्हें मिली। आवाज़ वापस मिलने से न सिर्फ सायोमदेब खुश हुए बल्कि उनके माता-पिता को भी उम्मीदें बढ़ीं। इसके बाद सायोमदेब को भारतीय कोलकाता के भारतीय प्रमस्तिष्क पक्षाघात संस्थान यानी इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ सलेब्रल पाल्सी (आईआईसीपी) से बहुत मदद मिली। चूँकि डोपामाइन वर्धक दवाइयां का फायदा होने लगा था आईआईसीपी में सायोमदेब की फिज़ीओथेरपी यानी भौतिक चिकित्सा शुरू की गयी, और इससे भी सायोमदेब को कुछ हद तक फायदा मिला।

आईआईसीपी में सायोमदेब को जो सबसे बड़ा फायदा हुआ वो था उनकी पढ़ाई-लिखाई का शुरू होना। सायोमदेब अपने हाथ-पाँव तो हिला नहीं सकते थे लेकिन पढ़ने-लिखने के लिए उन्होंने वही तकनीक अपनाई जो मशहूर वैज्ञानिक और लेखक स्टीफ़न हॉकिंग अपनाते हैं। स्टीफ़न हॉकिंग ने भी अपने शरीर की लगभग सभी मांसपेशियों से अपना नियंत्रण खो दिया था, लेकिन उनके गले की एक मांसपेशी पर उनके दिगाग का नियंत्रण था। इसी मांसपेशी के जरिए, स्टीफ़न हॉकिंग ने अपने चश्मे पर लगे सेंसर को कंप्यूटर से जोड़कर अपनी बातें लोगों तक पहुंचाना शुरू किया था। ‘डोपामाइन- रेस्पांसिव डिस्टोनिया’ की वजह से सायोमदेब ने भी अपनी लगभग सभी मांसपेशियों पर नियंत्रण खो दिया था, लेकिन अपने दाहिने आँख की पलक को कंप्यूटर से जोड़कर अपनी बातें कहना शुरू किया। कंप्यूटर पर विशेष सॉफ्टवेयर की मदद से सायोमदेब की पढ़ाई-लिखाई शुरू हुई।

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27 साल की उम्र में सायोमदेब ने दसवीं की परीक्षा लिखी। परीक्षा के दिनों की यादें ताज़ा करते हुए सायोमदेब ने कहा, “सभी बच्चे और उन सब के बीच मैं बूढ़ा दिख रहा था। मुझे बहुत शर्म आ रही थी, लेकिन मैंने परीक्षा दी।” सायोमदेब को दसवीं की परीक्षा लिखने के लिए एक सहायक दिया गया था जोकि नवी कक्षा पास था। सायोमदेब को इस बात की शिकायत है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था में बहुत कमजोरियां हैं और उनमें एक ये है कि दसवीं की परीक्षा न लिख पाने वाले विद्यार्थी को नवी पास विद्यार्थी को सहायक के रूप में देना। सायोमदेब कहते हैं कि दसवीं का परीक्षार्थी जो कहना चाहता है वो नौवीं पास विद्यार्थी समझ ही नहीं पता है और इसी वजह से सहायक उसे ही बनाया जाना चाहिए जिसे विषय का ज्ञान हो यानी जिसने दसवीं की पढ़ाई की हो। सायोमदेब का तर्क है कि जब परीक्षा केंद्र में निरीक्षक होते हैं तब सहायक की मदद से सवालों के जवाब देने के गुंजाईश ही नहीं रहती है। बहरहाल, सायोमदेब ने 27 साल की उम्र में दसवीं की परीक्षा पास कर ली, वो भी फर्स्ट क्लास में। उन्हें 65 % अंक मिले। बारहवीं की परीक्षा में सायोमदेब को 66 % अंक मिले। ग्रेजुएशन में सायोमदेब ने 67 % अंक हासिल किये, यानी हर बड़े पड़ाव पर उनके एक फीसदी अंक बढ़े। मजाकिया अंदाज़ में सायोमदेब कहते हैं, “अक्सर ये देखने में आया है कि जैसे जैसे विद्यार्थी आगे बढ़ता है वैसे वैसे परीक्षा में उसका अंक प्रतिशत घटता है, लेकिन मेरे मामले में ये उल्टा है, शायद मेरा जीवन ही उल्टा है।”

बड़ी बात तो ये है कि डोपामाइन वर्धक दवाइयां का असर कुछ इस तरह हुआ कि धीरे-धीरे शारीरिक तौर पर सायोमदेब की ताकत बढ़ी। वे पूरी तरह से तो अपनी शारीरिक कमजोरी को दूर नहीं कर पाए लेकिन अपनी मानसिक ताकत से उन्होंने नयी-नयी कामयाबियां हासिल करनी शुरू कीं। दसवीं की परीक्षा पास करने के बाद विश्वास खूब बढ़ गया। उन्होंने ठान ली कि वे इस दुनिया में कुछ ऐसा करेंगे जो कि बहुत ही कम लोग कर पाते हैं। बुद्धि तेज़ थी, स्मरण-शक्ति में मज़बूत थी इसी वजह से सायोमदेब ने कंप्यूटर की बारीकियों को समझना भी शुरू किया। जब वे मानव-जीवन में कंप्यूटर के बढ़ते इस्तेमाल और फायदे के बारे में जान गए तब उन्होंने कंप्यूटर की बारीकियों को समझने का काम शुरू किया। सायोमदेब ने ‘डॉस’ आधारित कंप्यूटर प्रोग्रामिंग सीखी। इसके बाद उन्होंने ओलिंपियाड में हिस्सा लिया। सायोमदेब को राष्ट्रीय स्तर के ओलिंपियाड में कंप्यूटर प्रोग्रामिंग वर्ग में कांस्य पदक मिला। सायोमदेब कहते हैं, “ओलिंपियाड में देश के अलग-अलग हिस्सों के लोग आये थे। किसी के पास बीबीए की डिग्री थी तो कोई एमबीए पास था। बड़े-बड़े सॉफ्टवेयर इंजीनियर भी थे।लेकिन, मैंने कोडिंग कर ली, कोडिंग की मेरी स्पीड बहुत अच्छी थी और मुझे ओलिंपियाड में ब्रोंज मैडल मिला।”

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कोडिंग पर अच्छी पकड़ होने की वजह से सायोमदेब को एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में कंप्यूटर प्रोग्रामिंग के लिए नौकरी भी मिल गयी थी। कुछ दिन काम करने के सायोमदेब को कंप्यूटर प्रोग्रामिंग में बोरियत महसूस होने लगी। उन्हें लगता था कि वे जीवन में कुछ और भी अच्छा और बढ़िया काम कर सकते हैं। जीवन में कुछ बड़ा करने के मकसद से सायोमदेब ने बहुराष्ट्रीय कंपनी की नौकरी छोड़ दी। इसी दौरान सायोमदेब ने कुछ साथियों के साथ मिलकर दिव्यांग जनों की सहायता करने के मकसद से ‘अंकुर’ नाम की एक स्वयंसेवी संस्था की भी शुरूआत की। आईआईसीपी में भी सायोमदेब को नौकरी मिली थी, लेकिन कुछ अलग करने का मौका हाथ लगते हुई उन्होंने ये नौकरी भी छोड़ दी थी। हुआ यूँ था जब सायोमदेब की ग्रेजुएशन का पहला साल चल रहा था तब वे कोई नौकरी न कर पाने की वजह से उदास रहने लगे थे। उनकी उदासी को दूर करने के मकसद से कुछ अधिकारियों से उन्हें आईआईसीपी में नौकरी पर लगाने की पेशकश की थी। आईआईसीपी के ये अधिकारी जानते थे कि सायोमदेब काबिल और नौकरी की जिम्मेदारियों को बखूबी निभा लेंगे। अधिकारियों के सुझाव पर सायोमदेब ने आईआईसीपी में नौकरी करनी शुरू कर दी।

लेकिन, इसी बीच उन्हें एक रेडियो स्टेशन ने नौकरी का ऑफर मिला। 91.9 फ्रेंड्स एफ एम में बड़ी जिम्मेदारियां संभाल रहे जॉयडीप बनर्जी ने सायोमदेब को नौकरी का ये ऑफर दिया था। जॉयडीप बनर्जी सायोमदेब की काबिलियत से भलीभांति परिचित थे और वे जानते थे कि रेडियो स्टेशन के लिए सायोमदेब कुछ नया और अच्छा कर सकते हैं। जॉयडीप बनर्जी ने सायोमदेब से रेडियो पर एक शो होस्ट करने को कहा। सायोमदेब ने कभी भी रेडियो के लिए काम नहीं किया था लेकिन उन्हें ‘रेडियो जॉकी’ बनने की पेशकश में एक बहुत ही बढ़िया मौका नज़र आया अपने सपने को साकार करने का। कई सालों से सायोमदेब ये सपना देख रहे थे कि उन्हें भी जीवन में वो मुकाम हासिल करना है जहाँ बहुत ही कम लोग पहुँच पाते हैं। ‘रेडियो जॉकी’ बनने की पेशकश क्या मिली सायोमदेब ने आईआईसीपी की अच्छी-खासी और पक्की नौकरी छोड़ दी। सायोमदेब को वो दिन अब भी याद है जब उन्हें अपने रेडियो प्रोग्राम का पहला एपिसोड बनाने में घंटो लग गए थे। सायोमदेब कहते हैं, “भले ही घंटों समय निकल गया था पहला एपिसोड बनाने में लेकिन मुझे अहसास हो गया कि मैं रदी जॉकी बनकर समाज के लिए कुछ अच्छा कर सकता हूँ।” सायोमदेब के शो का नाम रखा गया ... ‘हाल छेरो माँ बोंधू’ जिसका हिंदी में मतलब है हार मत मानो बधु। इस शो के लिए सायोमदेब को भी अपना नाम बदलना पड़ा। सायोमदेब नाम एक रेडियो जॉकी के लिए सूट नहीं करता था इस वजह से उन्हें भी अपना नाम बदलने के लिए मजबूर होना पड़ा। काफी सोच-विचार के बाद सायोमदेब ने अपना नाम ‘डेन’ रख लिया और इस तरह से सायोमदेब मुखर्जी ‘आरजे डेन’ बन गए। आरजे डेन बनते ही सायोमदेब की ज़िंदगी भी बदल गयी। आरजे डेन ने अपने प्रोग्राम से लोगों की ज़िंदगी बदलना शुरू किया। हर दिन सुबह 6 से 7 बजे तक प्रसारित होने वाले इस कार्यक्रम के ज़रिये आरजे डेन ने लोगों को ‘जीने की कला’ के बारे में बताने लगे। अपने शो पर आरजे डेन लोगों को प्रेरणा और प्रोत्साहन देने वाली कहानियाँ सुनाते। दिलचस्प किस्से सुनकर लोगों की मायूसी और उदासी को दूर करने की कोशिश करते। मनमोहन संगीत भी सुनवाते। कुछ ही दिनों में शो सुपरहिट हो गया और आरजे डेन काफी लोकप्रिय हो गए। लोग शो पर आरजे डेन को फोन करते और अपनी समस्याएँ सुनाते और आरजे डेन इन समस्याओं का हल निकालने के उपाय भी बताने लगे। ‘आरजे डेन’ बने सायोमदेब को अहसास हो गया कि वे अपने सपने को साकार करने में कामयाब हो रहे हैं। अपने रेडियो शो के ज़रिये वे लोगों की ज़िंदगी से उदासी, मायूसी, हताशा और दुःख को दूर करते हुए उन्हें अच्छे से अपना जीवन जीने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित कर रहे हैं। रेडियो शो के ज़रिये लोगों की मदद करने के लिए आरजे डेन को कई पुरस्कार और सम्मान भी मिले। ख़ुदकुशी करने से लोगों को रोकने में मददगार साबित होने की वजह से कोलकाता पुलिस ने भी उन्हें पुरस्कार से नवाज़ा।

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आरजे डेन की लोकप्रियता दिनबदिन बढ़ने लगी। उनके चाहने वालों की तादात भी लगातार बढ़ती ही जा रही थी, लेकिन इसी बीच रेडियो स्टेशन में मैनेजमेंट बदला। नए मैनेजमेंट ने आरजे डेन को इस्तीफ़ा देने को कह दिया। नया मैनेजमेंट अपने हिसाब से रेडियो चलाना चाहता था और उनकी पालिसी में आरजे डेन सही नहीं बैठते थे। मैनेजमेंट के कहने पर आरजे डेन ने इस्तीफ़ा दे दिया। लेकिन, उन्हें आज तक इस बात की वजह नहीं पता चल पायी कि नए मैनेजमेंट ने एक सुपरहिट शो को अचानक क्यों बंद करवा दिया। आरजे डेन यानी सायोमदेब कहते हैं, “मैंने उस रेडियो स्टेशन के लिए 822 एपिसोड किये और हर एपिसोड नया था, किसी भी एपिसोड को दुबारा रिपीट नहीं किया गया। मेरे शो की रेटिंग भी बहुत शानदार थी। तीन साल तक मैंने हर दिन कुछ नया दिया और लोगों ने उसे बहुत सराहा भी। लेकिन मैं समझ नहीं पाया कि मुझे रिजाइन करने के लिए क्यों कहा गया।” आरजे डेन के मन में इस बात को लेकर अब भी बहुत गुस्सा है कि उनका शो बंद करवा दिया गया। उन्हें इस बात पर और भी गुस्सा आता है कि किसी अन्य रेडियो स्टेशन ने भी उन्हें नौकरी की पेशकश नहीं की। आरजे डेन ने कहा, “मैंने अपने शो के लिए सब कुछ दिया, अपना पूरा समय दिया। मैंने जो काम किया उससे लोगों को भी फायदा हुआ। मेरे मन भी अभिमान है कि मैं एक सफल रेडियो जॉकी हूँ। इसीलिए मैं किसी और रेडियो स्टेशन पर भी नौकरी मांगने नहीं गया। मेरे फैन्स और फालोअर्स ने भी मुझसे कई बार पूछा कि आप दुबारा शो शुरू क्यों नहीं करते लेकिन मैं जवाब नहीं दे पाता हूँ।”

ये हकीकत भी है कि रेडियो शो को कामयाब बनाने के लिए आरजे डेन ने अपना जी जान लगा दिया था। जब वे शो होस्ट कर रहे थे उन्हीं दिनों उनके पिताजी की मृत्यु हो गयी। लेकिन, ऐसी दुःख भरी घड़ी में भी आरजे डेन ने अपने शो को रुकने नहीं दिया। पिता की मृत्यु के बाद जब अगले दिन आरजे डेन शो रिकार्ड करने स्टूडियो पहुंचे तब जॉयदीप बनर्जी ने उन्हें वापस घर जाने को कहा था, लकिन आरजे डेन शो की रिकार्डिंग पूरी करने के बाद ही वापस घर लौटे थे। तबीयत अगर खराब भी हो तब भी आरजे डेन ने शो किया। उन्हें वो दिन भी अच्छी तरह से याद है जब उन्हें 103 डिग्री का भुखार था तब भी वो शो की रिकार्डिंग करने के लिए स्टूडियो गए थे।

अपने शो की वजह से आरजे डेन कईयों के लिए प्रेरणा का बड़ा स्रोत बन गए थे।लेकिन शो को बंद कर दिए जाने के बाद आरजे डेन फिर से सायोमदेब बन गए। अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए उन्हें नयी नौकरी की तलाश करनी पड़ी। एक बार फिर आईआईसीपी के आला अधिकारियों ने उनकी मदद की। सायोमदेब को आईआईसीपी में दुबारा नौकरी मिल गयी। नौकरी करने के साथ-साथ वे अपनी सृजनात्मकता को बनाये रखने के लिए किताबें लिख रहे हैं। उनकी कहानियों का पहला संकलन बाज़ार में आ चुका है। दूसरी किताबों का काम जारी हैं। दिव्यंगों की मदद के लिए शुरू की संस्था में भी अपनी बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। उन्होंने रूपम शर्मा के निर्देशन में बनी एक हॉलीवुड फिल्म में भी काम किया है। ‘वन लिटिल फिंगर’ नाम की इस फिल्म में सायोमदेब की भूमिका काफी महत्वपूर्ण है। सायोमदेब कहते हैं वे फिलहाल लोगों की इस धारणा को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं कि दिव्यांगजन दूसरे लोगों की दया और उनके उपकारों पर जिंदा रहते हैं। मैं ये साबित करना चाहता हूँ कि दिव्यांगजन भी अपनी ज़िंदगी खुद जी सकते हैं और वो भी अपनी ज़िंदगी में ऐसी कामयाबियां और उपलब्धियां हासिल कर सकते हैं जो पहले किसी ने हासिल न की हुई हैं।

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इस बात में दो राय नहीं कि सायोमदेब में हार न मानने का ज़ज्बा है, वे स्वाभिमानी हैं। कुछ बड़ा और नया करने का जो जुनून उनमें है वैसा जुनून आसाधारण लोगों में ही होता है। वैसे तो सायोमदेब की कई खूबियाँ हैं लेकिन उनकी एक बड़ी खूबी ये है कि तीन भाषाओँ पर उनकी पकड़ काफी मज़बूत है। वे अंग्रेजी, बांग्ला और हिंदी के विद्वान हैं और उन्हें किताबें पढ़ने और कहानियाँ लिखने का शौक है। ग्रेजुएशन के दौरान उन्होंने इतिहास, भूगोल, राजनीति-शास्त्र की भी पढ़ाई की। उन्हें नयी-नयी जगह जाने और नए-नए लोगों से मिलना भी बेहद पसंद है। वे अमेरिका, डेनमार्क, ब्राज़ील जैसे देशों की यात्रा भी कर चुके हैं। सायोमदेब ने दिव्यांगजनों और उनसे जुड़ी समस्याओं पर हुए कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में हिस्सा लिया है और अपने विचारों से कई लोगों को प्रभावित भी किया है। शारीरिक रूप से अशक्त होने के बावजूद अपनी मानसिक शक्ति से सायोमदेब ने जो कुछ हासिल किया है वो लोगों के सामने एक बड़ी मिसाल बनकर खड़ा है।

सायोमदेब ने दिव्यांगता को मात देकर जीवन की कई सारी कठिनाइयों/चुनौतियों को पार किया और कभी हार नहीं मानी और शारीरिक कमजोरी के बाद भी समाज में अपनी ख़ास पहचान बनायी। सायोमदेब की कामयाबी की कहानी ये सिखाती है कि ज़िंदगी की जंग मानसिक ताकत के दम पर भी जीती जा सकती है। भारतीय पौराणिक कथा-कहानियों में गहरी दिलचस्पी रखने वाले सायोमदेब खुद को महाभारत के पात्र अभिमन्यु से जोड़कर देखते हैं। सायोमदेब के मुताबिक, कई बार वे जिंदगी के चक्रव्यूह में फंसे हैं और बाहर भी निकले हैं। वे इस समय भी एक चक्रव्यूह में फंसे हैं और उन्हें न सिर्फ इसे भेदकर जीत सुनिश्चित करनी है बल्कि उन्हें सुरक्षित बाहर भी आना था। सायोमदेब का इशारा इस सवाल का पता लगाना है कि उनका रेडियो शो क्यों बंद करवाया गया? वे दुबारा एक रेडियो शो शुरू कर लोगों की ज़िंदगी से उदासी, मायूसी, निराशा और दुःख को दूर करने की कोशिश करने की प्रबल इच्छा रखते हैं और इस इच्छा के पूरा होने को भी जीत मानते हैं। सायोमदेब से हमारी ये बेहद ख़ास मुलाकात कोलकाता में उनके निवास-स्थान पर हुई। इस मुलाकात के समय उनकी माँ घर पर ही मौजूद थीं। बातचीत के दौरान कई बार सायोमदेब ने अपने माता-पिता की खूब तारीफ़ की। सायोमदेब ने कहा, “मैं खुद कुछ नहीं हूँ, मुझे बनाया गया है। मैं जो भी हूँ आज अपने माता-पिता की वजह से ही हूँ। उन्होंने ने भी कभी हार नहीं मानी और उनसे जो कुछ संभव था वो सब किया, उनका साथ नहीं होता तो मैं कुछ कर नहीं पाता।” सायोमदेब आईआईसीपी की डॉ. सुधा पॉल और डॉ. रीना सेन की तारीफ करते हुए भी नहीं थकते हैं।  

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