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स्टार्टअप के माध्यम से विश्व पटल पर 3 भारतीय महिलाओं ने दर्ज कराई अपनी उपस्थिति

खुद की कंपनी शुरू करने वाली महिलाएं इसे ज़रूर पढ़ें।

स्टार्टअप के माध्यम से विश्व पटल पर 3 भारतीय महिलाओं ने दर्ज कराई अपनी उपस्थिति

Thursday April 06, 2017 , 10 min Read

"किसी सपने को देखना और उसे पूरा करना सिर्फ पुरुषों की ज़िंदगी का ही हिस्सा नहीं, बल्कि महिलाएं भी इसमें पीछे नहीं हैं। उदाहरण के तौर पर त्रिशा रॉय, ऋतुपर्णा पांडा और योशा गुप्ता वे तीन नाम हैं, जिन्होंने खुद के दम पर अपनी-अपनी कंपनियों को खड़ा किया और ये साबित करके दिखाया कि बंद आंखों में आने वाले सपनों को खुली आंखों से भी पूरा किया जा सकता है।"

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बाएं से दाये क्रमश: योशा गुप्ता, त्रिशा रॉय और ऋतुपर्णा पांडाa12bc34de56fgmedium"/>

औरत की सोच "अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आंचल में है दूध और आंखों में पानी" से काफी आगे निकल गई है। वो सिर्फ घर चलाने की नहीं कंपनी चलाने की भी कूवत रखती है और कंपनी ऐसी जो सिर्फ अपने गांव, अपने शहर, अपने कस्बे या सिर्फ अपने देश तक ही सीमित नहीं बल्कि विदेशों में भी जिसे पहचाना जाता हो। पूरी दुनिया के साथ ही भारत में भी उभर रही सफल महिला उद्यमियों की कई कहानियां हैं। उनमें से कुछ कहानियां काफी दिलचस्प और प्रेरणात्मक हैं। जो महिलाएं अपनी खुद की कंपनी शुरू करना चाहती हैं या फिर कोई स्टार्टअप शुरू करने का सोच रही हैं, उनके लिए त्रिशा रॉय, रितुपर्णा पांडा और योशा गुप्ता की कहानी प्रेरणादायक हो सकती है। ये अमेरिका गईं तो अपने सपनों को पूरा करने के लिए थीं, लेकिन संयुक्त राज्य अमेरिका और दुनिया भर में बाजार बनाने की उनकी सफलता ने उनकी तरफ 500 स्टार्टअप का ध्यान आकर्षित किया। असल में इनके स्टार्टअप्स को डेव मैक्क्लेयर और उनकी टीम ने व्यवसाय के रूप में चुना था।

त्रिशा रॉय की 'द बार्न एंड विलो' की दिलचस्प जर्नी

कुछ साल पहले अमेरिका में अपने घर को सजाते हुए त्रिशा को ये एहसास हुआ कि उनके उस देश में पर्दे और विशेष रूप से निर्मित खिड़की का रख-रखाव काफी खर्चीला था। विशेष रूप से निर्मित कुछ पर्दों की कीमत तो 10,000 $ तक थी। इसके बाद उन्होंने अपने परिवार के सदस्यों को, जो कोलकाता और दिल्ली में टेक्सटाइल का काम करते थे उनसे ये जानने के लिए फोन किया, कि अमेरिका में पर्दे इतने मंहगे क्यों हैं? और फिर उन्हें पता चला, कि हाई क्वालिटी वाले कॉटन और लिनेन की सप्लाई चेन किस तरह काम करती है। इन्हीं सबको आधार बनाकर त्रिशा ने काम करना शुरू किया और नाम दिया बार्न एंड विलो

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त्रिशा रॉय, फाउंडर बार्न एंड विलोa12bc34de56fgmedium"/>

त्रिशा कहती हैं, "इस सप्लाई चेन में कई ट्रेडर्स होते हैं, जो कारखानों से सामान खरीदते हैं और संयुक्त राज्य अमेरिका (USA) में रीटेलर्स को बेचते समय की लागत को भी मार्क-अप करते हैं।" रिटेल मार्केट में जब वे उपभोक्ताओं को बेचे जाते हैं तो मार्क-अप 250 प्रतिशत से अधिक तक हो सकते हैं। 

इस जानकारी के बाद त्रिशा को एहसास हुआ, कि यदि वे बिचौलिए की इन तीन या चार परतों को ख़त्म कर दें तो वे संयुक्त राज्य अमेरिका (USA) की एक बहुत बड़ी कारोबारी समस्या को हल कर सकती हैं। हालांकि उन्होंने फैसला किया कि वह सिर्फ पर्दे और तकिए ही नहीं बेचेंगी बल्कि अपने व्यवसाय को अलग तरीके से करने और उपभोक्ताओं को आकर्षित करने के लिए कस्टमाइज्ड डिजाइन और सेवा भी प्रदान करनी होगी। ऐसा करने के लिए उन्हें जल्द से जल्द सप्लाई चेन में शामिल होना था। एक ट्रेड फेयर में उनकी मुलाकात एक निर्माता (manufacturer) से हुई और उन्होंने तमिलनाडु के एक कारखाने से सूती कपड़े के नमूने मंगवाने शुरू कर दिये। बेलगाम की एक फैक्ट्री से त्रिशा सबसे अच्छी क्वालिटी का कपड़ा मंगवाती हैं और उस कच्चे माल को वे दिल्ली की एक फैक्ट्री में अॉर्डर देकर सिलवाती है। फिर भारत से इस उत्पाद को कैलिफोर्निया के एक गोदाम में भेज दिया जाता है, जहां से पूरे अमेरिका भर में वितरित किया जाता है। और जहां दूसरी जगहों पर प्रोडक्ट मार्कअप 250 प्रतिशत से ज्यादा होता है, वहीं त्रिशा के प्रोडक्ट्स पर सिर्फ 60 प्रतिशत होता है। यही वो बात थी, जिसने कस्टमर्स को अपनी ओर आकर्षित किया।

त्रिशा कहती भी हैं, कि 'ये ही वजह है जिसने मेरे बिज़नेस को बढ़ाने और विकसित करने का काम किया है।" साथ ही उनका ये भी कहना है, कि 'इस कंपनी के निर्माण में उनका PayPal और eBay में काम करने का अनुभव भी काम आया है।' एक समय था जब त्रिशा eBay और PayPal जैसी कंपनियों में एक कर्मचारी के तौर पर काम करती थीं।

बार्न एंड विलो का पहला आर्डर दिसंबर 2014 में पूरा हुआ था और अब उनकी कंपनी का मासिक व्यापार 50,000 डॉलर से भी ज्यादा है। बार्न एंड विलो कंपनी की ग्रोथ 45 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। ऐसी वृद्धि के साथ 500 स्टार्टअप ने 125,000 डॉलर के साथ इस विचार को वरीयता दी है।

ऋतुपर्णा पांडा ने छोटे व्यापारियों के लिए बनाया Fulfil.IO

त्रिशा की तरह, ऋतुपर्णा के पास भी अमेरिका में उनके अनुभव को बताने वाली एक कहानी है। Fulfil.IO की स्थापना छोटे व्यवसायों को क्लाउड और मोबाइल तकनीक में स्थानांतरित करने में मदद करने के लिए हुई थी। 2012 में ऋतुपर्णा ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई समाप्त करने के बाद एक बुटीक सलाहकार फर्म में काम करना शुरू कर दिया था। 2014 में उन्हें ये एहसास हुआ कि पूरी दुनिया में छोटे और मध्यम खुदरा विक्रेताओं के पास कई चैनलों पर बिक्री करते समय उनकी सूची का प्रबंधन करने के लिए को खास तरीका उपलब्ध नहीं है। ऐसे में ऋतुपर्णा ने एक ऐसी तकनीक विकसित करने के बारे सोचना शुरू किया, जो ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों तरह से पुराने ईआरपी सिस्टम को बदल सकती थी और कई प्लेटफॉर्म्स पर सूची और ऑर्डर को ट्रैक करने के लिए क्लाउड का उपयोग कर सकती थी। Fulfil.IO की को-फाउंडर, ऋतुपर्णा कहती हैं, “ये एक बेहतरीन मौका था, लेकिन इस पर काम करना कोई आसान बात नहीं थी। यहां सिर्फ एक टैब-आधारित मल्टी-चैनल ट्रैकिंग का उपयोग करने के लिए छोटे व्यवसाइयों को समझाना भर नहीं था और न ही उस तकनीक के पास कोई पारंपरिक आईटी का अॉप्शन था।"

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ऋतुपर्णा पांडा, को-फाउंडर Fulfil.IOa12bc34de56fgmedium"/>

जहाँ त्रिशा के 'बार्न एंड विलो' ने सप्लाई चेन और कंज़्यूमर पर ध्यान केंद्रित किया, वहीँ ऋतुपर्णा की Fulfil.IO का फोकस सप्लाई चेन और बिज़नेस पर रहा।

2015 की शुरूआत में ही ऋतुपर्णा ने अपनी नौकरी छोड़ दी और तीन अन्य सह-संस्थापकों के साथ प्रोडक्ट के निर्माण का काम शुरू कर दिया। सब से पहली चीज जो ऋतुपर्णा ने महसूस की, वो ये थी कि प्रोडक्ट सिर्फ तभी सफल हो सकता है, यदि उसका परीक्षण अमेरिका में किया जाये। 2015 में अपने आईटी बुनियादी ढांचे को बदलने के लिए अमेरिका के छोटे उद्यमियों ने लगभग 161 अरब डॉलर खर्च किए थे। ऐसे में ऋतुपर्णा का अमेरिका के बाजार में सबसे पहले प्रवेश करने का निर्णय सही था।

Fulfil.IO जब सिर्फ कुछ महीने ही पुरानी थी, तब 2015 के मध्य में ऋतुपर्णा ने कई राज्यों की यात्रा की। इसी दौरान उन्हें और उनके अन्य सह-संस्थापकों को एक टूल निर्माता मिला, जिसका व्यवसाय अपस्ट्रीम से जुड़ा था और वह खुदरा स्टोर और ई-कॉमर्स प्लेटफार्मों के लिए डाउनस्ट्रीम की आपूर्ति का काम करता था। इस निर्माता को अपनी पूरी इन्वेंट्री का एक से अधिक चैनलों पर जाने का कोई तरीका नज़र नहीं आ रहा था, इस प्रक्रिया में कंपनी उन चैनलों पर इन्वेंट्री भेज रही थी, जो लाभदायक नहीं थी और इस वजह से उनको नुक्सान हो रहा था। ऋतुपर्णा कहती हैं, कि "हमारे प्रोडक्ट से निर्माता एक ही डैशबोर्ड पर अपने पूरे व्यवसाय को देख सकता था। इस एकीकरण में कुछ दिन लगा, क्योंकि निर्माता को कई आईटी प्रणालियों से डेटा को हमारे प्रोडक्ट में ट्रांसफर करना था।” 1,000 डॉलर प्रति माह की सदस्यता वाला मॉडल आठ महीनों में लोकप्रिय हो गया और कंपनी के पास 20 से ज्यादा भुगतान करने वाले कस्टमर हैं।

जहाँ त्रिशा के 'बार्न एंड विलो' ने सप्लाई चेन और कंज़्यूमर पर ध्यान केंद्रित किया, वहीँ ऋतुपर्णा की Fulfil.IO का फोकस सप्लाई चेन और बिज़नेस पर रहा।

'LafaLafa' और उसकी फाउंडर योशा गुप्ता की कहानी

2014 में योशा गुप्ता ने हांगकांग में Lafalafa की शुरूआत की। स्टार्टअप को लेकर योशा की सोच काफी स्पष्ट और सरल थी। यदि वे ई-कॉमर्स कंपनियों की एक भागीदार बन जायें तो वे अपने कमीशन का अधिकांश हिस्सा उन उपभोक्ताओं को दे सकती हैं, जो उनकी Lafalafa साइट से कूपन खरीदते हैं और साथ ही इसकी मदद से ऑनलाइन शॉपिंग प्लेटफॉर्म पर बिक्री में बढ़ोतरी भी की जा सकती है। आने वाले कुछ सालों में भारत में ऑनलाइन ई-कॉमर्स बाजार 100 अरब डॉलर के पार भी जा सकता है और इससे संबंधित उद्योग जीएमवी में 15-20 प्रतिशत योगदान देता है। योशा कहती हैं, "इस क्षेत्र में प्रतियोगिता के साथ ही एक बड़ा मौका भी है।" MySmartPrice, CouponDunia, Grabon, Cashkaro, और Pennyful आदि Lafalafa के बड़े प्रतिद्वंदी हैं।

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योशा गुप्ता, फाउंडर LafaLafaa12bc34de56fgmedium"/>

योशा गुप्ता के 'LafaLafa' का चयन 500 स्टार्टअप्स में किया गया है, क्योंकि योशा का बिज़नेस मोबाइल पर केंद्रित है और उसको अपनाने वालों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ी। 'LafaLafa' के बिज़नेस का 70 प्रतिशत हिस्सा एंड्रॉयड एप से आया है।

योशा कहती हैं “हम व्यक्तिगतकरण पर अपना ध्यान केंद्रित कर रहे हैं, ताकि हम अपने उपयोगकर्ताओं को अधिक प्रासंगिक ऑफ़र सुझा सकें।” साथ ही कंपनी ऑफ़लाइन व्यापार मॉडल पर भी काम करा रही है। जिस के विकास में स्टोर कूपन और कैशबैक स्वाभाविक रूप से शामिल होंगे। कंपनी ने 500 से भी अधिक ऑनलाइन ब्रांडों के साथ करार किया है, जिसमे फ्लिपकार्ट, पेटीएम, स्नैपडील और शॉपकैवेल जैसे सभी शीर्ष ब्रांड शामिल हैं।

विकासशील देशों की महिलाओं के लिए पश्चिमी बाजारों में पकड़ बना कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराना कभी आसान काम नहीं रहा और इस हालात को और बदतर बनाने वाली बात ये है, कि उनके घरेलू बाज़ार भी अभी तक उनके इन विचारों को स्वीकार करने और अपनाने के लिए तैयार नहीं हैं

कई नकारात्मकओं बावजूद कुछ महिलायें सपने देखने की हिम्मत करती हैं। करोड़पति अनूशेह अन्सारी की मिसाल हमारे सामने है। अस्सी के दशक में, जब वे ईरान से अमेरीका आईं थीं, तो उन्हें अंग्रेजी का एक शब्द भी नहीं आता था। उनकी अंग्रेजी भाषा के ज्ञान की कमी के कारण स्कूल में प्रवेश के दौरान अधिकारियों ने सुझाव दिया, कि उन्हें ग्रेड 11 से ग्रेड 9 के लिए डिमोट किया जाये। अनूशेह अपनी इस अस्थायी कमजोरी के कारण दो साल बर्बाद नहीं करना चाहती थीं, इसलिए वे 11वीं कक्षा में प्रवेश पाने के लिए गर्मी के अवकाश के दौरान 12-घंटे की अंग्रेजी कक्षाओं में गईं और उनकी इस दृढ़तापूर्ण आदत ने भविष्य में उनकी मदद की।

आगे चलकर एक दशक के अंदर ही अनुशेह ने 1997 में 750 मिलियन डॉलर में दूरसंचार का अपना स्टार्टअप बेचा और स्वयं को पहले से अधिक साहसिक सिद्ध करते हुए 11 दिनों की अंतरिक्ष यात्रा भी की। भारतीय महिलाओं को इन उदाहरणों से सीख लेते हुए आगे बढ़ना चाहिए, क्योंकि हमारे पास भी महिलाओं की एक ऐसी पीढ़ी है जो या तो स्वयं की कंपनियां चला रही हैं या कंपनियों में शीर्ष प्रबंधन अधिकारी के रूप में सेवारत हैं। आईसीआईसीआई बैंक की चंदा कोचर, एक्सिस बैंक की शिखा शर्मा, आईबीएम की वनिता नारायणन और ओमदीयार नेटवर्क की रूपका जैसी महिलाएं बेहतरीन उदाहरण हैं। निश्चित रूप से ये युग उन युवा भारतीय महिलाओं का होगा, जो अपने स्टार्टअप का संचालन करके उन्हें वैश्विक कंपनियों में शामिल करने में सफल होंगीं।

-विशाल कृष्णा

अनुवाद: प्रकाश भूषण सिंह

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