पांच हजार किसानों और एक बुजुर्ग वैज्ञानिक की इच्छा-मृत्यु पर उठे सवाल!
गुजरात के पांच हजार से अधिक किसानों और ऑस्ट्रेलिया के एक बुजुर्ग वैज्ञानिक डेविड गुडॉल के इच्छामृत्यु चाहने के प्रकरणों ने इच्छा-मृत्यु जैसे गैरकानूनी विषय पर फिर से सोचने को विवश कर दिया है...
जबकि दुनिया के ज्यादातर देशों में इच्छा-मृत्यु को गैरकानूनी माना जा चुका है और भले ही हमारे देश की सर्वोच्च अदालत ने विशेष परिस्थितियों में इच्छामृत्यु के वरण का कानूनी अधिकार बहाल कर दिया हो, भले ही ऑस्ट्रेलिया में सार्को नाम की इच्छामृत्यु की 3D-प्रिंटेड मशीन इजाद हो चुकी हो, इस अतिगंभीर विषय को लेकर आज भी पूरी दुनिया में बहसें जारी हैं। फिलहाल तो गुजरात के पांच हजार से अधिक किसानों और ऑस्ट्रेलिया के एक बुजुर्ग वैज्ञानिक डेविड गुडॉल के इच्छामृत्यु चाहने के प्रकरणों ने इस पर नए सिरे से सोचने को विवश कर दिया है।
न्यायपालिका की नजर में भी आत्महत्या करने का प्रयास दंड संहिता के तहत अपराध है। ‘गरिमा के साथ मरने का अधिकार’ यानी ‘राइट टू डाय विथ डिग्निटी’ (इच्छामृत्यु) का संदर्भ लेते हुए पौराणिक आख्यानों के सहारे भीष्म पितामह, सीता, राम-लक्ष्मण, आचार्य विनोबा भावे आदि का जिक्र आता है। सच तो यह है कि इच्छामृत्यु की आड़ में अन्यायपूर्ण स्थितियों के बने रहने को प्रोत्साहन मिलता है।
किसी मनुष्य का जीवन कितना अमूल्य होता है, स्वयं के लिए, स्वयं से जुड़े लोगों के लिए और सबसे पहले देश-समाज के लिए, लेकिन इच्छा-मृत्यु पर समाज के विभिन्न तबकों में एक अंतहीन सी बहस चल रही है। और इस तरह की बहस के साथ-साथ इच्छा-मृत्यु मांगने-चाहने वालों का सिलसिला भी यथावत कायम है। मसलन, अभी कुछ दिन पहले ही भावनगर (गुजरात) के पांच हजार से अधिक किसानों ने राज्य विद्युत उपक्रम द्वारा अपनी जमीनों के अधिग्रहण के खिलाफ एक सामूहिक पत्र लिखकर भारत के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और गुजरात के मुख्यमंत्री से इच्छामृत्यु की मांग की है।
इसी तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी में सारनाथ थाना क्षेत्र के एक व्यापारी नेता अमीरचंद पटेल ने रंगदारी वसूलने वालों से आजिज आकर पीएम को चिट्ठी लिखकर अपनी इच्छामृत्यु की मांग की है। उनका आरोप है कि पिछले कई साल से व्यापारिक प्रतिद्वंदी उनसे गुंडा टैक्स मांगने के लिए हर वक्त फोन करते रहते हैं और रंगदारी न देने पर जान से मारने की धमकी देते हैं। उन्हें अपनी हत्या की भी आशंका है। फर्जी मुकदमों में फंसाकर उन्हें लगातार प्रताड़ित किया जा रहा है। इच्छामृत्यु की एक और गौरतलब सूचना चंडीगढ़ (पंजाब) से। चालीस लाख रुपए देने के बावजूद पीजीआई में हॉस्पिटल इंजीनियरिंग इंस्टीट्यूट नहीं बनने से नाराज डॉ. जेसी मेहता ने भी इच्छा मृत्यु मांगी है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिख उन्होंने पीएम को जानकारी दी है कि पीजीआई में मैडीकल सुविधाओं की बढ़ोतरी और लाखों लोगों के फायदे के लिए वह इंस्टीट्यूट बनवाना चाहते हैं। पिछले लगभग दस वर्षों से इसके लिए उन्हें बार-बार सिर्फ आश्वासन दिया जा रहा है। इस पर पीएमओ ने पीजीआई पूछताछ शुरू कर दी है। ये तो रही इच्छामृत्यु मांगने वालों से सम्बंधित कुछ ताजा सूचनाएं। इसी कड़ी में इच्छामृत्यु पर कई और संदर्भ सामने आते हैं। मसलन, एक ऐसी मशीन भी आ चुकी है, जो इंसान को उसकी मर्जी के बाद सिर्फ एक बटन दबाते ही मरने की अनुमति दे देती है। ऑस्ट्रेलियाई इच्छामृत्यु कार्यकर्ता फिलिप नित्स्चेक और डच डिज़ाइनर अलेक्जेंडर बैन्निंक ने सार्को नामक ये 3D-प्रिंटेड मशीन बनायी है। इंसान को मौत के घाट उतारने वाली इस विवादस्पद मशीन को 'इच्छामृत्यु' मशीन भी कहा जा रहा है।
इच्छा मृत्यु से सम्बंधित एक अन्य ऑस्ट्रेलिया वैज्ञानिक डेविड गुडॉल के इच्छामृत्यु चाहने के मामले को जानने से पहले स्वयं को खत्म कर लेने के अधिकार सम्बंधित कुछ और जानकारियां प्राप्तव कर लेते हैं। इच्छामृत्यु को एक तरह से निष्क्रिय हत्या भी कहा जाता है। इस पर इंग्लैंड और फ्रांस की संसदों में पेश विधेयक खारिज हो चुके हैं। अमेरिकी अदालत मेडिकल-सहायता प्राप्त हत्या पर रोक लगा चुकी है। सन् 1972 में भारतीय संसद में भी धारा 30 9 (आत्महत्या करने की कोशिश) को हटाने के लिए भारतीय दंड संहिता में संशोधन करने के लिए विधेयक पेश किया गया था, जिसमें सरकार को सुझाव दिया गया था कि आत्महत्या का प्रयास दंड संहिता की धारा 309 के तहत अपराध के रूप में माना जाए।
न्यायपालिका की नजर में भी आत्महत्या करने का प्रयास दंड संहिता के तहत अपराध है। ‘गरिमा के साथ मरने का अधिकार’ यानी ‘राइट टू डाय विथ डिग्निटी’ (इच्छामृत्यु) का संदर्भ लेते हुए पौराणिक आख्यानों के सहारे भीष्म पितामह, सीता, राम-लक्ष्मण, आचार्य विनोबा भावे आदि का जिक्र आता है। सच तो यह है कि इच्छामृत्यु की आड़ में अन्यायपूर्ण स्थितियों के बने रहने को प्रोत्साहन मिलता है। फिर भी असाध्य रोगग्रस्त अतिपीड़ितों के इच्छामृत्यु सम्बंधी हजारों दलीलों पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि खास परिस्थितियों के मद्देनजर लिविंग विल यानी इच्छा मृत्यु को कानूनी मान्यता है। विशेष परिस्थिति में सम्मानजनक मौत को व्यक्ति का व्यक्तिगत अधिकार माना जाना चाहिए।
अरुणा शानबाग की इच्छा मृत्यु की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट की ओर से दिए गए एक ऐतिहासिक फैसले में न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू ने दुनियाभर की कानूनी अवधारणाओं के साथ प्राचीन धर्मग्रंथों का उल्लेख करते हुये अपना फैसला सुरक्षित किया। सुप्रीम कोर्ट ने अरुणा शानबाग की इच्छा मृत्यु की याचिका तो ठुकरा दी थी परन्तु चुनिंदा मामले में कोर्ट ने पैसिव यूथनेसिया (कानूनी तौर पर लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटाए जाने) की इजाजत दे दी।
जबकि जर्मनी में एक दशक की लंबी कानूनी लड़ाई के बाद एक व्यक्ति इच्छा मृत्यु के लिए प्राणघातक दवा खरीदने का मुकदमा जीत चुका है और जर्मनी की संघीय प्रशासनिक अदालत अपने एक ऐतिहासिक फैसले में कह चुकी है कि बहुत ही मुश्किल परिस्थितियों में लोगों को आत्महत्या के लिए जरूरी दवाएं खरीदने का अधिकार है, लाइलाज बीमारी से पीड़ित रोगी को अपना जीवन खत्म करने का अधिकार है, ऐसा मरीज यह भी तय कर सकता है कि वह कैसे दम तोड़ना चाहता है, ऐसे मामलों में मरीज को खुलकर अपनी इच्छा जाहिर करने और उस पर अमल करने का भी अधिकार है, केवल अति गंभीर मामलों में ही मरीज को ऐसी दवाएं खरीदने के अधिकार मिलना चाहिए, यदि अपनी असहनीय जीवन दशा के कारण, वे स्वतंत्र होकर और गंभीरता से जीवन खत्म करने का फैसला करते हैं और इसके लिए कोई आरामदायक चिकित्सकीय विकल्प नहीं है तो ऐसे रोगी प्राणघातक दवाओं तक पहुंच मिलनी चाहिए।
जबकि ऑस्ट्रेलिया समेत दुनिया के ज्यादातर देशों में इच्छा-मृत्यु गैरकानूनी है, ऑस्ट्रेलिया के 104 साल के बुजुर्ग वैज्ञानिक हैं डेविड गुडॉल का ताजा प्रसंग सामने आया है। वह इसी माह स्विट्जलैंड जाकर दुनिया को अलविदा कहना चाहते हैं। इस सम्बंध में उन्होंने बासेल की एक एजेंसी से संपर्क कर समय लिया है। यह एजेंसी लोगों को मरने में मदद करती है। पिछले महीने इकोलॉजिस्ट गुडॉल अपने जन्मदिन पर कह चुके हैं कि 'मुझे इस उम्र तक पहुंचने का बहुत अफसोस है। मैं खुश नहीं हूं। मैं मरना चाहता हूं। मेरा मानना है कि मेरे जैसे बूढ़े लोगों को नागरिकता के साथ ही असिस्टेड सुसाइड का भी अधिकार मिलना चाहिए।'
मीडिया से मिल रही सूचनाओं के मुताबिक गुडॉल को स्विट्जरलैंड जाने में मदद करने वाली एजेंसी एग्जिट इंटरनेशनल का कहना है कि ऑस्ट्रेलिया के सबसे बुजुर्ग और प्रमुख नागरिक को सम्मान के साथ मरने के लिए दुनिया के दूसरे हिस्से में जाने पर विवश होना पड़ रहा है। यह अनुचित है। शांति से सम्मान के साथ मौत उन सब लोगों का हक है जो ऐसा चाहते हैं। किसी आदमी को इसे पाने के लिए अपना देश छोड़ने पर विवश नहीं किया जाना चाहिए। बताया जा रहा है कि इस समूह ने गो फंड मी नाम से एक अभियान शुरू किया है, जिसके जरिए गुडॉल और उनके सहयोगियों के लिए हवाई जहाज के टिकट का बंदोबस्त किया जा चुका है। इसके बाद टिकट को इकनॉमी से बिजनेस क्लास में अपग्रेड भी किया जा चुका है।
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