कवि को डालनी होती है घास के ऊपर रेत
पढ़ते-लिखते हुए कई बार लगता है कि कविताएं भी बोलती हैं। ऐसी कविताओं के शब्द-शब्द हमारे भीतर तो एक अलग तरह का रचना संसार रचते हुए चलते ही हैं, उनके पढ़ने के बाद हमारे आसपास का भी भिन्न-भिन्न दृष्टियों में नजर आने लगता है।
उपन्यास और कहानियां तो हमे अपने आसपास के पात्रों में उन जैसे चरित्र तलाशने के लिए स्यात सक्रिय कर देती हैं लेकिन कविताएं गागर में सागर की तरह होती हैं।
हिंदी के एक ख्यात कवि अष्टभुजा शुक्ल। उनकी दृष्टि में 'कविता राजनीति का भी प्रतिपक्ष निर्मित करती है। साहित्य की राजनीति साहित्य को परिमित और कभी-कभी दिग्भ्रमित भी करती है क्योंकि साहित्य मनुष्य का अंतस्तल है, जबकि राजनीति व्यवस्थागत संरचना।
पढ़ते-लिखते हुए कई बार लगता है कि कविताएं भी बोलती हैं। ऐसी कविताओं के शब्द-शब्द हमारे भीतर तो एक अलग तरह का रचना संसार रचते हुए चलते ही हैं, उनके पढ़ने के बाद हमारे आसपास का भी भिन्न-भिन्न दृष्टियों में नजर आने लगता है। उपन्यास और कहानियां तो हमे अपने आसपास के पात्रों में उन जैसे चरित्र तलाशने के लिए स्यात सक्रिय कर देती हैं लेकिन कविताएं गागर में सागर की तरह होती हैं। जैसे कविता के पूरे ताजा परिवेश पर आज भी उसी तरह प्रभावी दिखती है भवानी प्रसाद मिश्र की रचना 'गीत-फरोश' की ये पंक्तियां, मानो इसमें हिंदी कविता का पूरा आधुनिक चरित्र समाया हुआ हो,
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ,
मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ,
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ!
जी, माल देखिए, दाम बताऊँगा,
बेकाम नहीं हैं, काम बताऊँगा,
कुछ गीत लिखे हैं मस्ती में मैंने,
कुछ गीत लिखे हैं पस्ती में मैंने,
यह गीत सख्त सर-दर्द भुलाएगा,
यह गीत पिया को पास बुलाएगा!
जी, पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझको,
पर बाद-बाद में अक्ल जगी मुझको,
जी, लोगों ने तो बेच दिए ईमान,
जी, आप न हों सुन कर ज़्यादा हैरान-
मैं सोच समझ कर आखिर
अपने गीत बेचता हूँ,
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ,
मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ,
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ!
यह गीत सुबह का है, गा कर देखें,
यह गीत गज़ब का है, ढा कर देखें,
यह गीत ज़रा सूने में लिक्खा था,
यह गीत वहाँ पूने में लिक्खा था,
यह गीत पहाड़ी पर चढ़ जाता है,
यह गीत बढ़ाए से बढ़ जाता है.......ऐसी कविताओं की सबसे खास बात ये है कि ये अन्येतर प्रसंगों पर नहीं, बल्कि सीधे-सीधे हमे उनके निकट ले जाती है, जिनका सिर्फ और सिर्फ कविता से सरोकार होता है, जो कविताएं लिखते हैं, जो कविताएं लिखने की जद्दोजहद से गुजरते रहते हैं। अपने वर्तमान के तरह तरह के यथार्थ से जोड़कर रचनाकारिता के संपूर्ण अर्थ बांचती इसी तरह की एक रचना है घाना के कवि क्वामे दावेस की,
बेशर्म हवाओं से निकली आवाज़ की तरह,
कविता के बाहर आने के पहले,
सोना होता है कवि को एक करवट साल भर,
खानी होती है सूखी रोटी,
पीना पड़ता है हिसाब से दिया गया पानी।
कवि को डालनी होती है घास के ऊपर रेत,
बनानी होती है अपने शहर की दीवारें,
घेरना होता है दीवारों को बंदूक की गोली से,
बंद करनी होती है शहर में संगीत की धुन ।
कवि की जीभ हो जाती है भारी,
रस्सियां बंध जाती हैं बदन में,
अंग प्रत्यंग हो जाते हैं शिथिल।
उलझता है वह खुदा से–
पूछता है–क्या है कविता का अर्थ।
एक ऐसी ही कविता है कटनी (म.प्र.) के कवि राम सेंगर की। उनकी इस लंबी कविता में पूरी छटपटाहट हिंदी साहित्य के उन आलोचकों को लेकर है, जो छंदमुक्त कविताओं की स्थापना के लिए छांदस कविताओं की जरूरत पर चुप्पी साध लेते हैं,
कविता को लेकर,जितना जो भी कहा गया,
सत-असत नितर कर व्याख्याओं का आया।
कविकर्म और आलोचक की रुचि-अभिरुचि का
व्यवहार-गणित पर कोई समझ न पाया।
'कविता क्या है' पर कहा शुक्ल जी ने जो-जो,
उन कसौटियों पर खरा उतरने वाले।
सब देख लिए पहचान लिए जनमानस ने
खोजी परम्परा के अवतार निराले।
विस्फोट लयात्मक संवेदन का सुना नहीं,
खंडन-मंडन में साठ साल हैं बीते।
विकसित धारा को ख़ारिज़ कर इतिहास रचा
सब काग ले उड़े सुविधा श्रेय सुभीते।
जनमानस में कितना स्वीकृत है गद्यकाव्य
विद्वतमंचों के शोभापुरुषों बोलो।
मानक निर्धारण की वह क्या है रीति-नीति,
कविता की सारी जन्मपत्रियां खोलो।
कम्बल लपेट कर साँस गीत की मत घोटो,
व्यभिचार कभी क्या धर्मनिष्ठ है होता।
कहनी-अनकहनी छल का एल पुलिंदा है,
अपने प्रमाद में रहो लगाते गोता।
हिंदी के एक ख्यात कवि अष्टभुजा शुक्ल। उनकी दृष्टि में 'कविता राजनीति का भी प्रतिपक्ष निर्मित करती है। साहित्य की राजनीति साहित्य को परिमित और कभी-कभी दिग्भ्रमित भी करती है क्योंकि साहित्य मनुष्य का अंतस्तल है, जबकि राजनीति व्यवस्थागत संरचना। राजनीति के स्वप्न और साहित्य के स्वप्न परस्पर विलोम हैं क्योंकि राजनीति हमेशा सत्तामुखी और व्यवस्था की पोषक होती है जबकि साहित्य आजादखयाल और मुक्तिकामी। राजनीति जीवन पर अंकुश लगाती है जबकि जीवन स्वच्छंद होना चाहता है। आज कविता के सामने सबसे बड़ी चुनौती छिन्नमूलता की है। जीवन में गहराई तक जाकर उसकी परतों को उधेड़ने की जिज्ञासा कमतर हुई है। फिर भी नवागत लेखन में स्त्री लेखन और आदिवासी लेखन से नया भरोसा पैदा हुआ है, जबकि किसान जीवन की दृष्टि से हिन्दी कविता लगभग रिक्त है। आजकल के कवियों की दशा कैसी हो गई है, आइए, उनकी 'कविजन खोज रहे अमराई' शीर्षक कविता पढ़कर जान लेते हैं -
कविजन खोज रहे अमराई।
जनता मरे, मिटे या डूबे इनने ख्याति कमाई॥
शब्दों का माठा मथ-मथकर कविता को खट्टाते।
और प्रशंसा के मक्खन कवि चाट-चाट रह जाते ॥
सोख रहीं गहरी मुषकैलें, डांड़ हो रहा पानी।
गेहूं के पौधे मुरझाते, हैं अधबीच जवानी ॥
बचा-खुचा भी चर लेते हैं, नीलगाय के झुंड।
ऊपर से हगनी-मुतनी में, खेत बन रहे कुंड॥
कुहरे में रोता है सूरज केवल आंसू-आंसू।
कविजन उसे रक्त कह-कहकर लिखते कविता धांसू॥
बाली सरक रही सपने में, है बंहोर के नीचे।
लगे गुदगुदी मानो हमने रति की चोली फींचे॥
जागो तो सिर धुन पछताओ, हाय-हाय कर चीखो।
'अष्टभुजा' पद क्यों करते हो कविता करना सीखो॥
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