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खून के आंसू पीये हैं, तब हुई है शायरी: बल्ली सिंह चीमा

खून के आंसू पीये हैं, तब हुई है शायरी: बल्ली सिंह चीमा

Wednesday October 11, 2017 , 8 min Read

चीमा का कहना है कि उर्दू में तो सीखने-सिखाने का रिवाज अभी है लेकिन हिंदी में इतने महाकवि पैदा हुए, आज के जमाने में कोई सीखने वाला है ही नहीं। 

बल्ली सिंह चीमा (फाइल फोटो)

बल्ली सिंह चीमा (फाइल फोटो)


शिक्षा हो या साहित्य, सीखने के लिए गुरु की परंपरा का होना जरूरी नहीं, बल्कि सृजन की राह चलने के लिए व्यक्ति में सीखने की ललक का होना जरूरी है।

असगर वजाहत ने कहा है कि कलावादियों ने, प्रगतिशील लेखकों, कवियों ने मुक्त छंद की कविता को अपना लिया। ये कलावादियों की जीत थी। मेरा मानना है कि ये कलावादियों की ही नहीं, शासक वर्ग की भी जीत है।

बल्ली सिंह चीमा हमारे समय के महत्वपूर्ण शीर्ष कवि हैं। वह कहते हैं कि रचनाकार समर्थ होना चाहिए। आजकल 'खराब' बहुत ज्यादा लिखा जा रहा है। मुक्तछंद ने बे-कवियों को कवि बना दिया है। उन्हें मालूम नहीं, शिल्प कैसा, लय कैसी हो। ऐसे तमाम अधिकारी कवि होने लगे हैं। हमने खून के आंसू पीये हैं, तब शायरी हुई है। छंद में भी बहुत सारी खराब कविताएं लिखी जा रही हैं। मुक्तछंद को प्रगतिशील कवियों ने अपना लिया, इससे कविता जनता से कट गई है। आज हम जिन लोगों के लिए लिख रहे हैं, उन तक हमारी बात पहुंच रही है या नहीं, सबसे गौरतलब बात ये है।'

चीमा का कहना है कि उर्दू में तो सीखने-सिखाने का रिवाज अभी है लेकिन हिंदी में इतने महाकवि पैदा हुए, आज के जमाने में कोई सीखने वाला है ही नहीं। शिक्षा हो या साहित्य, सीखने के लिए गुरु की परंपरा का होना जरूरी नहीं, बल्कि सृजन की राह चलने के लिए व्यक्ति में सीखने की ललक का होना जरूरी है। साहित्य की राह मैं कैसे चल पड़ा, इसकी बात बाद में, पहले मैं किताबों की बात करूंगा कि वह मेरी जिंदगी में कैसे आई। उस वक्त मैं पांचवीं क्लास में पढ़ता था। वैसे तो मूलतः मैं अमृतसर (पंजाब) के गांव चीमाखुर्द से हूं लेकिन होश संभालने के बाद वर्ष 1976 से जीवन का अधिकांश समय नैनीताल (उत्तराखंड) के गांव मढ़ैया बक्षी का होकर रह गया है। यहां मेरा घर कोसी नदी के बांध के किनारे पर स्थित है।

एक वक्त में मेरे घर के पास मजदूरों को काम करते देखा करता था। उनमें एक मजदूर प्रायः उपन्यास पढ़ता रहता था। उसी से मैं इब्नेसफी बीए के कई उपन्यास लेकर पढ़े। उसके बाद तो किताबें पढ़ने का नशा-सा हो गया। बस उसी वक्त से किताबों की दोस्ती हो गई। एक बात और, मुझे कुदरती तौर पर बचपन से ही कहानी का ही शौक रहा है। बचपन में गीत गाता था। कॉलेज में भी गाया करता था। विधिवत साहित्यिक संसर्ग उस समय मिला, जब वर्ष 1970 में हाईस्कूल पास करने के बाद मेरे सगे चाचा जोगा सिंह चीमा अपने पास ले गए। अमृतसर से 12 किलो मीटर दूर चभाल तहसील में, मेरा गांव बॉर्डर पर है, चीमा खुर्द। वही मेरा पैतृगांव रहा है। वहां पंजाब की बाबा बुढा कालेज प्री-यूनिवर्सिटी में एडमिशन लिया। इसी कॉलेज में टीचर थे पंजाबी के वरिष्ठ कहानीकार डॉ.जोगिंदर सिंह कैरो। कॉलेज के दिनों में मैं उनके संपर्क में आ गया। सबसे पहले उनसे ही मुझे साहित्यिक संस्कार मिले।

उसी दौरान पंजाबी साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ कवि सुरजीत सिंह पातर (कवि पाश के समकालीन और उनसे ज्यादा लोकप्रिय) मेरे कॉलेज में टीचर बन कर आ गए। मेरे चाचा, कहानीकार डॉ.जोगिंदर सिंह, कवि सुरजीत सिंह पातर, वह तीनों ही हमें पाश के बारे में बताते, कि वह जेल में हैं, उनकी कविताएं भी मुझे सुनाते। उन्हीं दिनों में कवि पातर ने कालेज में रवींद्र सत्यार्थी की अध्यक्षता में एक कवि सम्मेलन करवाया। उस कवि सम्मेलन में मैंने किसी दूसरे कवि की गजल सुनाई। उसी बहाने पहली बार वहां के कवियों से परिचय हुआ। बाद में मुझे पता चला कि पातर भी कविता लिखते हैं। कुछ समय तक उनकी शायरी पढ़ता रहा। उसी वातावरण में पाश से प्रभावित हुआ और मुक्त छंद की कविताएं लिखने की कोशिशें करने लगा। बीच-बीच में अपनी कविताएं पातर साहब को भी दिखाने लगा। वर्ष 1973 में उन्होंने एक द्वैमासिक पत्रिका 'चर्चा' में पहली बार मेरी 'सुपना' कविता छपवा दी।

यह सब उन दिनो की बात है, जब पंजाब में नौजवान भारत सभा गठित हो रही थी। मैं भी उसका सक्रिय सदस्य बन गया। गुरुशरण सिंह के नाटकों में पंजाबी भाषा में इंकलाबी गीत गाने लगा। पंजाब स्टूडेंट यूनियन का भी सक्रिय नेता हो गया। पंजाबी में जनगीत लिखने लगा। तब तक पंजाबी में ही कविताएं सीखने-लिखने की प्रक्रिया चलती रही। उसी बीच देश में इमरजेंसी लग गई। एक्टिविस्ट होने के नाते मेरे नाम से भी वारंट आ गया। साथियों ने मुझसे कहा कि तुम्हारा नैनीताल घर है तो वहां चले जाओ, वरना गिरफ्तार हो जाओगे। उसके बाद 1976 में मैं पुनः नैनीताल के अपने दूसरे गृहग्राम मढ़ैया बक्षी आ गया। उन्हीं दिनों मढ़ैया बक्षी में मेरे परिवार के साथ एक दुर्घटना हो गई। कोसी नदी में हमारी जमीन बह गई। घर पर आर्थिक संकट आ गया। उसके बाद तो आगे की पढ़ाई पंजाब के कॉलेज में जारी रखने के लिए वापस लौट कर नहीं जा सका। हां, कभी-कभार पंजाब जाता रहा। उसी दौरान गुरुनानक यूनिवर्सिटी से प्रभाकर (ज्ञानी) पास किया। पढ़ाई के बाद मेरा इरादा वहीं पर टीचर बनने का था, लेकिन मढ़ैया बक्षी के घर की परिस्थितियों ने वह सपना पूरा नहीं होने दिया।

वक्त करवट लेता रहा। मैं अपनी घर-गृहस्थी में दिन बिताने लगा। गांव में खेती-बाड़ी करने लगा। उन्हीं दिनो मन में आया कि क्यों न, मैं भी हिंदी में कुछ लिखता-पढ़ता भी रहूं। जीवन की साधना से शब्द मिलने लगे, लिखने लगा। मैंने एक कविता लिखी-

ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गाँव के,

अब अँधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गाँव के।

इसके लिए शब्दों का सरोकार पंजाब के मोगा कांड से मिला लेकिन हिंदी में लिखा यहां मढ़ैया बक्षी में। उन्ही दिनो दो कामरेड मुझसे मिलने आए। उन्होंने इस कविता को मुझसे बार-बार सुना और लौटते में यह कविता भी लिखकर ले गए। उसके बाद यह कविता देश की पूरी हिंदी पट्टी में फैल गई। रचना लोगों की जुबान चढ़ी तो मुझे अखबारों के संपादक ढूंढने लगे। वर्ष 1980 के दिनों में शिक्षक-मित्र वचस्पति उपाध्याय, जोकि काशीपुर के डिग्री कॉलेज में पढ़ाते थे, यही कविता उनसे मुलाकात की वजह बनी। उन्होंने पंजाबी से अनूदित कविताओं और हिंदी की कविताओं की एक साझा किताब छपवाई- 'खामोशी के खिलाफ'। वह किताब जनकवि बाबा नागार्जुन सहित कई बड़े कवि-साहित्यकारों तक पहुंच गईं। उसके बाद में नागार्जुन, ज्ञानरंजन आदि के संपर्क में आया। धीरे-धीरे साहित्यिक परिचय का दायरा बढ़ता गया। जब बड़े कवि-साहित्यकारों से अपनी कविताओं पर बधाइयां मिलने लगीं तो हौसला भी जागने लगा। मुझे मंचों पर कविता पाठ के लिए बाहर बुलाया जाने लगा। कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में छपने भी लगीं। वाचस्पति जी की, मुझे हिंदी साहित्य से परिचित कराने में ही नहीं, मार्गदर्शन में भी महत्वपूर्ण भूमिका रही। बाबा नागार्जुन हर साल जून में वाचस्पति जी के यहां आकर एक महीना रहते थे।

सन् 1981 में बाबा मेरे घर भी आए। मेरे बेटे का नामकरण भी किया। उनसे मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला। वह भी मेरे बारे में देश भर के कवि-साहित्यकारों को बताने लगे। बाबा नागार्जुन का आजीवन प्यार मिलता रहा। मैं उनसे सीखता रहा। इसके अलावा ज्ञानरंजन ने मांग कर 'पहल' में मेरी गजलें छाप दीं, जबकि उन दिनो 'पहल' के पहले पेज पर लिखा होता था कि पत्रिका में प्रकाशन के लिए गजल, गीत न भेजें। उसी दौरान प्रतिष्ठित कवि वीरेन डंगवाल का संपर्क मिला। भरपूर स्नेह मिला। वह 'अमर उजाला' में संपादक भी रहे। वह मेरी कविताएं 'अमर उजाला' में छापने लगे। उसके बाद उन्नीस सौ नब्बे के दशक में 'नीलाभ प्रकाशन' से मेरी एक किताब आई- 'जमीन से उठती आवाज'। ये उसी वक्त की बात है, जब वीरेन डंगवाल सहित कई वरिष्ठ कवियों की चार-पांच किताबें एक साथ चर्चा में आईं थीं।

असगर वजाहत ने कहा है कि कलावादियों ने, प्रगतिशील लेखकों, कवियों ने मुक्त छंद की कविता को अपना लिया। ये कलावादियों की जीत थी। मेरा मानना है कि ये कलावादियों की ही नहीं, शासक वर्ग की भी जीत है। एक है मुक्तछंद। कविता अतुकांत होकर भी अगर लय में है, तो उसमें अच्छी कविता लिखी जा सकती है। रचनाकार समर्थ होना चाहिए। लेकिन आजकल तो इसे लोगों ने बहुत आसाना समझ लिया है। उसमें खराब बहुत ज्यादा लिखा जा रहा है। मुक्तछंद ने तो बहुत से, हजारों बेकवियों को कवि बना दिया है। उन्हें मालूम नहीं है कि मुक्तछंद का शिल्प कैसा हो, लय कैसी हो। ऐसे तमाम अधिकारी भी कवि होने लगे हैं। कवि संस्कार से होता है। छंद में भी बहुत सारी खराब कविताएं लिखी जा रही हैं।

मुक्तछंद का जो आकर्षण है, इसको प्रगतिशील कवियों ने अपना लिया, इससे कविता जनता से कट गई है। आज की जरूरत है, सभी तरह की गुटबाजी से मुक्त होकर, अच्छी कविता, किसी भी फार्म में, किसी भी कवि की हो, उसका सम्मान होना चाहिए। इससे पुरस्कार के लालची लोग स्वयं हाशिये पर मिलेंगे। तभी जनता फिर से कविता के निकट आएगी। एक शेर है मेरा-

पढ़ मेरा दीवान और दीवानगी महसूस कर,

खून के आंसू पिए हैं, तो हुई है शायरी। 

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