एक जिद्दी कवि, जिसने आत्मसमर्पण नहीं किया!
चंद्रकांत देवताले को पढ़ना, सिर्फ पढ़ना नहीं होता है, उनके शब्दों से गुजरते हुए हमारे आसपास का यथार्थ, इस कड़वे यथार्थ से थकती, निढाल होती हमारी दुनिया चित्रपट की तरह सिलसिलेवार खुलती चली जाती है, हमारे दिलोदिमाग को बोझिल ही नहीं, चौकन्ना भी करती हुई।
खास तौर से उनके शब्दों की थाती में सहेजे गए हमारे देश की बेटियों, लड़कियों, औरतों के बारे में दुखों के कठोर सच, फिर इसी क्रम में उन सबसे बार-बार टकराना सबके बस की बात नहीं रह जाती है। आज चंद्रकांत देवताले की जयंती है। वह अभी कुछ ही महीने पहेल हमेशा के लिए हमारे बीच से जा चुके हैं।
वह कवि ही नहीं, अतिसंवेदनशील पिता भी थे। बेटियों के पिता। उनकी घरेलू कठिनाइयों में बेटियों की दुस्सह कठिनाइयां भी शुमार थीं, पिता के घर का दुख, उनकी बेटियों के घर का दुख था, देवताले उन कठिनाइयों को कुछ तरह अपनी 'दो लड़कियों का पिता होने से' कविता में अपने शब्दों से सभी तरह की दुखी बेटियों के सच से हमे रूबरू करा जाते हैं।
चंद्रकातं देवताले को पढ़ना, सिर्फ पढ़ना नहीं होता है, उनके शब्दों से गुजरते हुए हमारे आसपास का यथार्थ, इस कड़वे यथार्थ से थकती, निढाल होती हमारी दुनिया चित्रपट की तरह सिलसिलेवार खुलती चली जाती है, हमारे दिलोदिमाग को बोझिल ही नहीं, चौकन्ना भी करती हुई। खास तौर से उनके शब्दों की थाती में सहेजे गए हमारे देश की बेटियों, लड़कियों, औरतों के बारे में दुखों के कठोर सच, फिर इसी क्रम में उन सबसे बार-बार टकराना सबके बस की बात नहीं रह जाती है। आज चंद्रकांत देवताले की जयंती है। वह अभी कुछ ही महीने पहेल हमेशा के लिए हमारे बीच से जा चुके हैं। उनकी एक कविता है ‘बेटी के घर से लौटना’-
बहुत जरूरी है पहुँचना
सामान बाँधते बमुश्किल कहते पिता
बेटी जिद करती
एक दिन और रुक जाओ न पापा
एक दिन
पिता के वजूद को
जैसे आसमान में चाटती
कोई सूखी खुरदरी जुबान
बाहर हँसते हुए कहते कितने दिन तो हुए
सोचते कब तक चलेगा यह सब कुछ
सदियों से बेटियाँ रोकती होंगी पिता को
एक दिन और
और एक दिन डूब जाता होगा पिता का जहाज
वापस लौटते में
बादल बेटी के कहे के घुमड़ते
होती बारीश आँखो से टकराती नमी
भीतर कंठ रूँध जाता थके कबूतर का
सोचता पिता सर्दी और नम हवा से बचते
दुनिया में सबसे कठिन है शायद
बेटी के घर लौटना।
वह कवि ही नहीं, अतिसंवेदनशील पिता भी थे। बेटियों के पिता। उनकी घरेलू कठिनाइयों में बेटियों की दुस्सह कठिनाइयां भी शुमार थीं, पिता के घर का दुख, उनकी बेटियों के घर का दुख था, देवताले उन कठिनाइयों को कुछ तरह अपनी 'दो लड़कियों का पिता होने से' कविता में अपने शब्दों से सभी तरह की दुखी बेटियों के सच से हमे रूबरू करा जाते हैं-
पपीते के पेड़ की तरह मेरी पत्नी
मैं पिता हूँ
दो चिड़ियाओं का जो चोंच में धान के कनके दबाए
पपीते की गोद में बैठी हैं
सिर्फ़ बेटियों का पिता होने से भर से ही
कितनी हया भर जाती है
शब्दों में
मेरे देश में होता तो है ऐसा
कि फिर धरती को बाँचती हैं
पिता की कवि-आंखें.......
बेटियों को गुड़ियों की तरह गोद में खिलाते हैं हाथ
बेटियों का भविष्य सोच बादलों से भर जाता है
कवि का हृदय
एक सुबह पहाड़-सी दिखती हैं बेटियाँ
कलेजा कवि का चट्टान-सा होकर भी थर्राता है
पत्तियों की तरह
और अचानक डर जाता है कवि चिड़ियाओं से
चाहते हुए उन्हें इतना
करते हुए बेहद प्यार।
शिरीष मौर्य लिखते हैं, चंद्रकांत देवताले ने अपने समय की लड़कियों, स्त्रियों को केंद्र में रखकर कई श्रेष्ठ रचनाएं की हैं। उनमें एक कविता 'बालम ककड़ी बेचने वाली लड़कियाँ' को तो हिंदी साहित्य जगत में अपार प्रसिद्धि मिली। बालम ककड़ी बेचने वाली लड़कियों को प्रतीक बनाते हुए वह देश के एक बड़े वर्ग के दुखों की हजार तहों तक जाते हैं और लगता है, तब हमारे सामने, दिल-दिमाग में हमारे आसपास का खुरदरा, दहकता सच जोर-जोर से धधक उठता है, अपनी दानवी जिह्वाओं से हमारे समूचे अस्तित्व को, मनुष्यता पर बरसते तेजाब को और अधिक लहका देता है। कैसी हैं बालम कंकड़ी बेचने वाली लड़कियां,
कोई लय नहीं थिरकती उनके होंठों पर
नहीं चमकती आंखों में
ज़रा-सी भी कोई चीज़
गठरी-सी बनी बैठी हैं सटकर
लड़कियाँ सात सयानी और कच्ची उमर की
फैलाकर चीथड़े पर
अपने-अपने आगे सैलाना वाली मशहूर
बालम ककड़ियों की ढीग
सैलाना की बालम ककड़ियाँ केसरिया और खट्टी-मीठी नरम
- जैसा कुछ नहीं कहती
फ़क़त भयभीत चिड़ियों-सी देखती रहती हैं.......
सातों लड़कियाँ ये
सात सिर्फ़ यहाँ अभी इत्ती सुबह
दोपहर तक भिंडी, तोरू के ढीग के साथ हो जाएगी इनकी
लम्बी क़तार
कहीं गोल झुंड
ये सपने की तरह देखती रहेंगी
सब कुछ बीच-बीच में
ओढ़नी को कसती हँसती आपस में
गिनती रहेंगी खुदरा
देवताले हिन्दी के उन वरिष्ठ कवियों में एक रहे, जिन्होंने अपनी कविता में भारतीय स्त्री के विविध रूपों, दुखों और संघर्षों को सर्वाधिक पहचाना। उनके बारे में कवि विष्णु खरे का यह कथन नहीं भूलना चाहिए कि 'चन्द्रकान्त देवताले ने स्त्रियों को लेकर हिन्दी में शायद सबसे ज्यादा और सबसे अच्छी कविताएँ लिखी हैं। उनकी एक कविता है - 'औरत', जिसे पढ़ते हुए लगता है कि एक स्त्री के बारे में लिखते समय वह जीवन-जगत के कितने बड़े कैनवास पर कलम चलाते हैं -
वह औरत
आकाश और पृथ्वी के बीच
कब से कपड़े पछीट रही है,
पछीट रही है शताब्दिशें से
धूप के तार पर सुखा रही है,
वह औरत आकाश और धूप और हवा से
वंचित घुप्प गुफा में
कितना आटा गूंध रही है?
गूंध रही है मानों सेर आटा
असंख्य रोटियाँ
सूरज की पीठ पर पका रही है.....।
प्रेमचन्द गांधी के शब्दों में, जिन बड़े कवियों को पढ़कर हम बड़े होते हैं, उनके प्रति एक किस्म का श्रद्धा भाव हमेशा के लिए मन में बहुत गहरे पैबस्त हो जाता है। मेरे लिए चंद्रकांत देवताले ऐसे ही कवि हैं। जब आप उन्हें पढ़ते हैं तो बारंबार चकित होते हैं और कई बार श्रद्धा के साथ रश्क़ भी पैदा हो जाता है कि काश, हम भी इस तरह सोच पाते, लिख सकते। देवताले ऐसे कवि थे, जिनसे मिलकर आप जिंदगी से भर जाते। कवि बहुत कुछ अपने अतीत से सोखते-सहेजते हुए अपनी निर्मम-मुलायम यादों के सहारे बहुत कुछ बुनता, उधेड़ता रहता है। ऐसे ही एक बार देवताले 'माँ जब खाना परोसती थी' कविता में अपनी मां की यादों में कुछ इस तरह लौटते हुए,
वे दिन बहुत दूर हो गए हैं
जब माँ के बिना परसे पेट भरता ही नहीं था
वे दिन अथाह कुँए में छूट कर गिरी
पीतल की चमकदार बाल्टी की तरह
अभी भी दबे हैं शायद कहीं गहरे
फिर वो दिन आए जब माँ की मौजूदगी में
कौर निगलना तक दुश्वार होने लगा था
जबकि वह अपने सबसे छोटे और बेकार बेटे के लिए
घी की कटोरी लेना कभी नहीं भूलती थी
उसने कभी नहीं पूछा कि मैं दिनभर कहाँ भटकता रहता था
और अपने पान-तम्बाकू के पैसे कहाँ से जुटाता था
अकसर परोसते वक्त वह अधिक सदय होकर
मुझसे बार-बार पूछती होती
और थाली में झुकी गरदन के साथ
मैं रोटी के टुकड़े चबाने की अपनी ही आवाज़ सुनता रहता
वह मेरी भूख और प्यास को रत्ती-रत्ती पहचानती थी
और मेरे अकसर अधपेट खाए उठने पर
बाद में जूठे बरतन अबेरते
चौके में अकेले बड़बड़ाती रहती थी
बरामदे में छिपकर मेरे कान उसके हर शब्द को लपक लेते थे
और आखिर में उसका भगवान के लिए बड़बड़ाना
सबसे खौफनाक सिद्ध होता और तब मैं दरवाज़ा खोल
देर रात के लिए सड़क के एकान्त और
अंधेरे को समर्पित हो जाता
अब ये दिन भी उसी कुँए में लोहे की वज़नी
बाल्टी की तरह पड़े होंगे
अपने बीवी-बच्चों के साथ खाते हुए
अब खाने की वैसी राहत और बेचैनी
दोनों ही ग़ायब हो गई है
अब सब अपनी-अपनी ज़िम्मेदारी से खाते हैं
और दूसरे के खाने के बारे में एकदम निश्चिन्त रहते हैं
फिर भी कभी-कभार मेथी की भाजी या बेसन होने पर
मेरी भूख और प्यास को रत्ती-रत्ती टोहती उसकी दृष्टि
और आवाज़ तैरने लगती है
और फिर मैं पानी की मदद से खाना गटक कर
कुछ देर के लिए उसी कुँए में डूबी उन्हीं बाल्टियों को
ढूँढता रहता हूँ।
वरिष्ठ कवि उदय प्रकाश कहते हैं कि 'देवताले हमारे सबसे प्रिय और पुराने, लगभग उम्र के साथ-साथ चले आते ऐसे विरल कवि रहे, जिनमें अगर मुक्तिबोध के ही शब्दों का आसरा लें तो आत्म-चेतना और विश्व-चेतना अपने हर संभव तनावों और अंतर्द्वंद्वों के साथ उपस्थित है। ऐसी 'स्ट्रेस्ड' हिन्दी कविता, मुक्तिबोध के बाद दुर्लभ होती गयी है। देवताले कविता की आतंरिक संरचना से घबरा कर सतह की आसानी की ओर नहीं भागते, वे अपने समय के राजनीतिक या दूसरे विमर्शों के सामने अपनी बेचैनी और कविता के दुर्धर्ष चुनौती भरे लक्ष्य का 'आत्म-समर्पण' नहीं होने देते। वे शायद अकेले ऐसे कवि थे, (और यह बहुत कीमती तथ्य है) जिनकी निजता और कविता के बीच कोई फांक नहीं दिखाई पड़ा। उनकी 'और अंत में' हमे हमारे समय के सच से जिस तरह साक्षात्कार कराती है, लगता है, ऐसा बहुत कुछ तो हमारे भी आसपास तैर रहा है,
दिखाई दे रही है कई कई चीजें
देख रहा हूँ बेशुमार चीजों के बीच एक चाकू
अदृश्य हो गई अकस्मात तमाम चीजें
दिखाई पड़रहा सिर्फ चमकता चाकू
देखते के देखते गायब हो गया वह भी
रह गई आँखों में सिर्फ उसकी चमक
और अब अँधेरे में वह भी नहीं
और यह कैसा चमत्कार
कि अदृश्य हो गया अँधेरा तक
सिर्फ आँखें हैं कुछ नहीं देखती हुई
और अन्त में
कुछ नहीं देखना भी नहीं बचा
बेशुमार चीजों से कुछ नहीं तक को
देखने वाली आँखे भी नहीं बचीं।
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