हिमालय बचाने के लिए इस गांव के लोगों ने बदल दी शवदाह की परंपरा
"विकास के नाम पर पर्यावरण का विनाश करने पर तुले लोगों को शायद पता नहीं है कि प्रदूषण का सबसे ज्यादा प्रभाव सबसे पहले हिमालय पर ही पड़ता है...
आज प्रदूषण की मार से बड़े-बड़े महानगर और शहरों के अलावा हिमालय के क्षेत्र भी प्रभावित हो रहे हैं। प्रदूषण की वजह से हिमालय के इलाकों में संकट छाने लगा है। इसका सबसे प्रमुख कारण है कि हिमालय में विकास के नाम पर अंधाधुंध परियोजनाएं लगाई जा रही हैं, वहां के क्षेत्रीय लोग और पर्यटक अपने फायदे के लिए पर्यावरण की परवाह किए बगैर प्रकृति का लापरवाही से दोहन करने में लगे हुए हैं। यदि सबकुछ ऐसे ही चलता रहा, तो हिमालय नष्ट होना शुरू हो जाएंगे और पूरी पृथ्वी पर संकट मंडराना शुरू हो जाएगा...
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पर्यावरण बचाने के लिए उत्तराखंड चमोली के एक गांव के लोगों ने दे दी अपनी परंपराओं की आहुती, क्योंकि उनके लिए सबसे ऊपर है मनुष्य जाति की मदद और उसे बचाये रखने की सकारात्मक कोशिश।
उत्तराखंड के चमोली में द्रोनागिरी गांव पूरी तरह से हिंदुओं का गांव हैं। इस गांव में सिर्फ 65 परिवार रहते हैं। ये लोग मृत्यु के बाद शवों को जलाने की बजाय उसे जमीन में दफना देते हैं। क्योंकि जलाने पर एक तरफ पेड़ कटने शुरू हो जाते हैं और दूसरी तरफ शव से निकलने वाला धुआं भी पर्यावरण को नुकसान पहुंचाता है।
हमारी पृथ्वी संकट में है, पर्वत-पहाड़-पठार-नदियां सब संकट की मार झेल रहे हैं और संकट की इस घड़ी में उत्तराखंड के हिमालयी इलाके चमोली के एक गांव में सकारात्मक पहल शुरू हुई है। यहां के लोग पर्यावरण बचाने के लिए अपनी परंपराओं की भी आहुति देने से नहीं हिचक रहे हैं। उत्तराखंड के चमोली में द्रोनागिरी गांव पूरी तरह से हिंदुओं का गांव हैं। इस गांव में सिर्फ 65 परिवार रहते हैं। ये लोग मृत्यु के बाद शवों को जलाने की बजाय उसे जमीन में दफना देते हैं। क्योंकि जलाने पर एक तरफ पेड़ कटने शुरू हो जाते हैं और दूसरी तरफ शव से निकलने वाला धुआं भी पर्यावरण को नुकसान पहुंचाता है। इसी का असर है कि इस 12,000 स्क्वॉयर फीट इलाके में पेड़ों की संख्या में कोई कमी नहीं आ रही है। गांव के लोग हिमालय भोजपत्र को भी बचा रहे हैं जिसकी पत्तियां एक समय लिखने के पेपर के रूप में इस्तेमाल की जाती थीं।
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इतना ही नहीं गांव वाले घर में चूल्हा जलाने के लिए सूखे और बेकार हो गए पेड़ों की लकड़ी का ही इस्तेमाल करते हैं। गांव की प्रधान दीपा रावत बताती हैं, कि इस गांव के लोग हमेशा से पर्यावरण के लिए चिंतित रहे हैं। गांव के लोग प्रकृति का नुकसान करने वाले लोगों को माफ नहीं करते हैं। इनके लिए पहाड़ संजीवनी हैं। प्रसिद्ध पर्यावरणविद अनिल जोशी गांव वालों की तारीफ करते हुए कहते हैं. 'इस गांव से लोगों को सीखना चाहिए कि पर्यावरण को बचाना हमारे लिए कितना जरूरी है। शव को जलाने से लाख गुना बेहतर है उन्हें दफना देना क्योंकि इससे कोई कार्बन उत्सर्जन नहीं होता है।'
"आग लगने से वायुमंडल में कार्बन मोनोऑक्साइड बढ़ती है, जो हिमालय को गर्म करती है, जिससे हिमनद और बर्फ पिघल रहे हैं।"
गढ़वाल रीजन के एडिशनल कमिश्नर हरक सिंह रावत भी इसी गांव के रहने वाले हैं। वे कहते हैं, 'गांव के लोगों की मदद से पहाड़ की खूबसूरती बची हुई है। इस गांव को उत्तराखंड का ट्रेक ऑफ द ईयर का सम्मान मिला है। लोग पहाड़ों और पेड़ों की खूबसूरती बचाने के लिए प्रतिबद्ध हैं।' लोगों की मान्यता है, कि रामायण में हनुमान ने लक्ष्मण के लिए यहीं से संजीवनी बूटी ले गए थे, इसलिए गांव के हर घर में हनुमान की पूजा होती है।
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"विकास के नाम पर पर्यावरण का विनाश करने पर तुले लोगों को शायद पता नहीं है कि प्रदूषण का सबसे ज्यादा प्रभाव सबसे पहले हिमालय पर ही पड़ता है। क्योंकि पहाड़ा जितने कठोर होते हैं उतने ही संवेदनशील भी होते हैं। इसी वजह से हिमालय हिलता है। भूकम्प, बाढ़ जैसी आपदाएं इसका जीता-जागता उदाहरण हैं। दो साल पहले उत्तराखण्ड की भीषण त्रासदी भी इसी का प्रतीक है।"
अगर सही समय परकदम नहीं उठाए जाएंगे, तो ऐसी त्रासदी विनाश की नियती बन जाएगी। हिमालय में पानी का संकट भी बढ़ता जा रहा है। देश के लगभग 60-65 फीसदी लोगों की प्यास बुझाने वाला हिमालय अब यहां के लोगों की ही प्यास नहीं बुझा पा रहा है। यहां की आबादी मॉनसून पर निर्भर रहती है और अगर वो समय पर नहीं आया तो पानी के लिए यहां के लोगों को तरसना पड़ता है।
पर्यावरण के विशेषज्ञ मानते हैं, कि हिमालयी क्षेत्र से निकलने वाली नदियों और यहां के जंगलों को यदि समय रहते नहीं बचाया गया तो इसका दुष्प्रभाव पूरे देश पर पड़ेगा और हिमालय बचेगा, तभी नदियां बचेंगी और तभी इस क्षेत्र में रहने-बसने वाली आबादी का जीवन भी सुरक्षित रह पाएगा। इसके अलावा अक्सर हिमालय के जंगलों में आग भी लगती रहती है, जिससे बड़े पैमाने पर कार्बनमोनोआक्साइड निकलती है। इसी वजह से हिमालय के ग्लेशियर भी पिघल रहे हैं। इसलिए द्रोणागिरी गांव की पहल काफी सकारात्मक है। हिमालय के सभी लोगों को इससे प्रेरणा लेने की जरूरत है।