दिल की बात सुनकर दिल का डॉक्टर न बनने के फैसले ने डॉ. अम्बरीश मित्थल को चिकित्सा-क्षेत्र में दिलाई विशिष्ट पहचान
इन दिनों भारत में आयोडिन की कमी की वजह से होने वाली बीमारियाँ लोगों में बहुत ही कम देखने को मिल रही हैं तो इसकी एक बड़ी वजह नब्बे के दशक में कुछ वैज्ञानिकों, डॉक्टरों और शोधकर्ताओं की पहल और मेहनत ही है। इसी पहल और मेहनत का नतीजा था कि भारत में हर जगह आयोडिनयुक्त नमक उपलब्ध करवाना शुरू किया गया ताकि लोगों के शरीर में आयोडिन की कमी न रहे और वे घेघा जैसी बीमारियों का शिकार न बनें। इस पहल और मेहनत को कामयाब बनाने में डॉ. अम्बरीश मित्थल का भी योगदान रहा है।भारत में फ्लोराइडयुक्त पानी को ज़हर माना जाने लगा है तो इसका भी बड़ा श्रेय डॉ. अम्बरीश मित्थल को ही जाता है। उत्तरप्रदेश में उन्नाव जिले के कुछ गाँवों में पीने के पानी पर उनके शोध की वजह से ही ये बात उजागर हुई थी कि फ्लोराइडयुक्त पानी पीने से लोगों को हड्डियों की अलग-अलग बीमारियाँ हो रही हैं। उनके शोध से उजागर हुए सच ने लोगों को पीने के पानी के मामले में सजग और सचेत रहने के लिए प्रेरित किया था। इतना ही नहीं उन शोध के परिणामों ने कई राज्य सरकारों का ध्यान पानी में फ्लोराइड की समस्या की ओर खींचा था। अलग-अलग सरकारों ने लोगों को फ्लोराइड प्रभावित इलाकों में पीने का सुरक्षित पानी मुहय्या कराने के लिए काम करना भी शुरू किया था।ये डॉक्टर अम्बरीश मित्थल की कोशिशों का ही नतीजा है कि भारत में लोगों को शरीर में कैल्शियम और विटामिन डी की ज़रुरत के बारे में पता चला। अलग-अलग समाज-सेवी संस्थाओं के साथ मिलकर की गयी डॉ. अम्बरीश मित्थल की कोशिशों की वजह से ही इन दिनों दूध, घी और खाद्य तेल में विटामिन डी भी डाला जा रहा है ताकि लोग शरीर में विटामिन डी की कमी की वजह से अलग-अलग बीमारियों का शिकार न हों। अम्बरीश मित्थल एक ऐसे डॉक्टर हैं जिन्होंने स्वास्थ-रक्षा और चिकित्सा-विज्ञान में कई ऐसे काम किये हैं जोकि भारत में उनसे पहले किसी ने नहीं किये। भारत में पहली बार बोन डेंसिटी मेज़रमेंट सिस्टम की स्थापना करने का गौरव भी डॉ. अम्बरीश मित्थल को ही प्राप्त हैं। उन्होंने न केवल कई अनजान बीमारियों का पता लगाया बल्कि उनके उपचार की सही पद्धति निजाद की। अलग-अलग माध्यमों के ज़रिये अलग-अलग जानलेवा और खतरनाक बीमारियों से बचने के उपायों को भी उन्होंने लाखों लोगों तक पहुंचाया है। बतौर डॉक्टर उन्होंने लाखों मरीजों का इलाज किया है और कई ऐसे मरीजों को नया जीवन दिया है जोकि हर तरफ इलाज करवाकर जीने की सारी उम्मीदें खो चुके थे।डॉ. अम्बरीश मित्थल की कामयाबियां कई सारी हैं और वे बेमिसाल भी हैं। उनके व्यक्तित्व के कई सारे पहलू हैं जोकि काफी रोचक हैं। बचपन में वे जब बीमार पड़कर बिस्तर तक सीमित हो गए थे तब उन्होंने डॉक्टर बनने का फैसला लिया था। जब हर डॉक्टर का सपना दिल का डॉक्टर बनने का हुआ करता था तब उन्होंने लीक से हटकर चलने का फैसला लिया और काम के लिए एक ऐसा क्षेत्र चुना जिसके बारे में उस समय के बड़े-बड़े डॉक्टर भी ज्यादा नहीं जानते थे। अगर वे भी अपने दौर के डॉक्टरों की राह पकड़कर दिल का डॉक्टर बन जाते तो शायद डॉक्टरों की बड़ी फ़ौज में वे भी एक सिपाही होते, लेकिन अलग राह पकड़कर उन्होंने चिकित्सा-विज्ञान की दुनिया में अपनी विशेष और विशिष्ट पहचान बनाई है। अम्बरीश की कामयाबियों और उनके जीवन के कई सारे रोचक पहलुओं से सीखने के लिए बहुत कुछ है। उनकी शानदार कहानी में भी कामयाबी के कई सारे मंत्र छिपे हुए हैं।
लोगों को प्रेरणा देने और जीवन को कामयाब बनाने के तरीके सिखाने वाली बेमिसाल कहानी के नायक अम्बरीश मित्थल का जन्म लखनऊ में 29 मार्च, 1958 को हुआ। उनके पिता देवकीनंदन मित्थल उत्तरप्रदेश विधान-सभा के सचिव थे। माँ रुक्मिणी गृहिणी थीं। देवकीनंदन और रुक्मिणी मूलरूप से मेरठ के रहने वाले थे लेकिन प्रशासनिक नौकरी की वजह से उन्हें लखनऊ में आकर बसना पड़ा। दोनों को कुल चार संतानें हुईं जिनमें अम्बरीश सबसे छोटे थे। अम्बरीश के सबसे बड़े भाई उनसे बीस साल बड़े थे। बड़ी बहन अम्बरीश से 15 साल बड़ी हैं। और, अम्बरीश के दूसरे बड़े भाई उनसे ग्यारह साल बड़े हैं। अपने परिवार के बारे में अम्बरीश जब कभी किसी को भी कुछ भी बताते हैं तब ये ज़रूर कहते हैं कि, “सही मायने में मैं अपने घर में बच्चा ही था, सभी मुझसे बड़े थे।”
अम्बरीश के पिता अपने ज़माने के प्रभावशाली लोगों में एक थे। आज़ादी के बाद वे देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश के तीसरे सचिव थे। 9 फरवरी, 1956 से लेकर 1 मार्च, 1974 यानी 18 साल तक वे उत्तरप्रदेश की विधानसभा के सचिव रहे। मुख्यमंत्री, नेता विपक्ष और दूसरे विधायकों, मंत्रियों और आला अधिकारियां का उनके घर आना-जाना लगा ही रहता था। अम्बरीश बताते हैं, “मेरे पिताजी का रुतबा बड़ा था, लेकिन उनमें अपने पद का गुरूर नहीं था। हमारा परिवार मध्यमवर्गीय परिवार था और माता-पिता ने हमें इस बात की छूट दी थी कि हम जो चाहे वो बन सकते थे।” शुरू से ही अम्बरीश के घर में अनुशासन रहा। माता-पिता ने सादगी-भरे जीवन, ऊंचे आदर्शों और अनुशासन को हमेशा महत्त्व दिया।
अम्बरीश ने जब से होश संभाला तब से उन्हें अपने घर में विज्ञान और गणित की बातें ही ज्यादा सुनने को मिलीं। दोनों बड़े भाइयों ने विज्ञान और गणित की पढ़ाई की थी। बड़े भाइयों की देखा-देखी अम्बरीश पर भी गणित और विज्ञान का जादू सिर चढ़ने लगा था। बड़े भाई और दूसरे सभी परिचित लोग भी अम्बरीश को खूब पढ़-लिखकर आईआईटी में सीट हासिल करने की सलाह देने लगे थे। लेकिन, उनकी दिलचस्पी बायोलॉजी यानी जीवविज्ञान में ज्यादा थी। ऐसा भी नहीं था कि घर में सिर्फ पढ़ाई-लिखाई का ही माहौल था। बच्चों को खेलने-कूदने से भी कोई मनाही नहीं थी। लेकिन, पढ़ाई-लिखाई के लिए समय तय था। अम्बरीश ने बताया, “सर्दी के मौसम में शाम 6 से 8 और गर्मियों के मौसम में शाम 7 से 9 बजे तक का समय पढ़ाई-लिखाई के लिए तय था। इस निर्धारित समय के दौरान पढ़ाई-लिखाई के सिवाय किसी दूसरे काम की इजाज़त नहीं थी। बाकी समय मन-चाहे काम की पूरी आज़ादी थी।” अम्बरीश को बचपन से ही क्रिकेट में बहुत दिलचस्पी थी। क्रिकेट का जादू उनके सिर चढ़कर बोलता था। खेलने का समय हुआ कि नहीं वे सीधे मैदान की ओर दौड़ते थे और अपने साथियों के साथ क्रिकेट खेलने में मग्न हो जाते। पेशेवर क्रिकेटर बनने का सपना तो नहीं था लेकिन क्रिकेट से मोहब्बत हो गयी थी उन्हें।
घर-परिवार की एक और खूबी थी। रात के खाने पर सभी एक जगह इक्कट्ठा होते। भोजन करते समय पिता देवकीनंदन अपने बच्चों को राजनीति की बातें बताते। प्रदेश और देश के राजनीतिक हालात पर खूब चर्चा होती। बालक अम्बरीश को भी राजनीति की नरम-गरम बातें खूब भाने लगी थीं। बचपन में माँ का भी काफी ज्यादा प्रभाव अम्बरीश पर पड़ा। घर में अनुशासन बनाये रखने और बच्चों के देखभाल की बड़ी ज़िम्मेदारी माँ पर ही थी।
अम्बरीश जब नौवीं कक्षा में थे तब एक घटना हुई जिसने उन्हें उनके जीवन की मंजिल दिखा दी। हुआ यूं था कि अम्बरीश अचानक बीमार पड़ गए। उनके गुर्दों के कामकाज में कोई गड़बड़ी हो गयी जिससे उनकी तबीयत बिगड़ गयी। किशोर अम्बरीश की हालत इतनी बिगड़ी की उनका बिस्तर से बाहर निकलना भी मुश्किल हो गया। कई महीनों तक अम्बरीश अपने घर और बिस्तर में ही जकड़े रहे। लखनऊ शहर के बड़े-बड़े डॉक्टरों से उनके इलाज करवाया गया। डॉक्टरों के काम करने के तरीकों को देखकर अम्बरीश बहुत प्रभावित हुए। डॉक्टरों के सही इलाज की वजह से वे पूरी तरह से स्वस्थ भी हो गए। लेकिन, बीमारी और उसकी वजह से हुए दुःख-दर्द और इस दुःख-दर्द को दूर करने में डॉक्टरों की भूमिका ने अम्बरीश को एक बड़ा फैसला लेने के लिए प्रेरित किया। नौवीं के छात्र अम्बरीश ने फैसला कर लिया कि वे बड़े होकर डॉक्टर बनेंगे और लोगों की बीमारियों का इलाज करेंगे। जीवविज्ञान पहले से ही उनका पसंदीद विषय था और ऊपर से उनका इलाज करने वाले डॉक्टरों ने उनके मन-मश्तिष्क पर जो गहरा असर डाला था उसके प्रभाव में अम्बरीश ने डॉक्टर बनने की ठान ली। आठ महीनों तक बिस्तर पर रहने के दौरान अम्बरीश को अहसास हुआ कि अगर डॉक्टर बनकर लोगों की तकलीफ दूर की जाए तो उन्हें भी वैसी ही दुआएं मिलेंगी जैसी कि उन्होंने अपने डाक्टरों को दी हैं।
डॉक्टर बनने का मज़बूत इरादा कर लेने के बाद अम्बरीश ने पढ़ाई-लिखाई में जी-जान लगा दिया। दिन-रात मेहनत की और इसी मेहनत का नतीजा ये रहा कि दसवीं की बोर्ड की परीक्षा में उन्हें स्टेट रैंक मिला। अम्बरीश को वो दिन अच्छे से याद है जब उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की दसवीं क्लास के नतीजे घोषित हुए थे तब अखबारवाले उनकी तस्वीर लेने उनके घर पर आये थे। जब अगले दिन अम्बरीश की तस्वीर मशहूर अंग्रेजी अखबार पायनियर और दैनिक अखबार नवजीवन में छपी तब उनकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा।
दसवीं की परीक्षा में उम्दा नंबर लाने के बाद अम्बरीश ने इंटरमीडिएट की पढ़ाई में बायोलॉजी को ही अपना मुख्य विषय बनाया। इंटरमीडिएट की परीक्षा और प्री-मेडिकल टेस्ट में मिले नंबर के आधार पर अम्बरीश को मेडिकल कॉलेज में दाखिला तो मिल गया, लेकिन परीक्षाओं में अपने प्रदर्शन से वे न खुश थे; न संतुष्ट। अम्बरीश कहते हैं, “जिस तरह से मैंने दसवीं की परीक्षाओं में टॉप किया था वैसे ही प्रदर्शन की उम्मीद मुझसे बारहवीं की परीक्षा और प्री-मेडिकल टेस्ट में की जा रही थी। लेकिन, मेरी काबिलियत के हिसाब से मेरा प्रदर्शन औसत था, ये और बात थी कि इसी औसत प्रदर्शन के बावजूद मुझे मेडिकल कॉलेज में सीट मिल गयी थी।”
अम्बरीश को कानपुर मेडिकल कॉलेज में दाखिला मिला। यहीं से उन्होंने एमबीबीएस की डिग्री ली। एक बेहद ख़ास मुलाकात में अम्बरीश ने हमसे एमबीबीएस की पढ़ाई के सबसे यादगार लम्हों के बारे में भी बताया। अम्बरीश के मताबिक, डॉक्टरी की पढ़ाई के शुरुआत में ही उन्हें इस बात का अहसास हो गया कि डॉक्टर बनने का मतलब है चौबीस घंटे की ड्यूटी। एक डॉक्टर को चौबीसों घंटे लोगों की मदद करने के लिए तैयार रहना पड़ता है। अम्बरीश को मेडिकल कॉलेज के शुरूआती दिनों में ही ये बात भी पता चल गयी कि डॉक्टर के जीवन में काम का दबाव सुबह से रात तक बना ही रहता है।
अम्बरीश को एमबीबीएस की पढ़ाई के दौरान की एक बात अब भी बहुत खटकती हैं। वे कहते हैं, “उन दिनों ज्यादातर विद्यार्थी किताबों को रटा करते थे। मुझे ये रटना पसंद नहीं था। लेकिन, अक्सर ऐसा होता था कि जो जितना ज्यादा रटता था उसे उतने ज्यादा नंबर मिलते थे। और तो और, हमें उन दिनों ऐसी बहुत सारी बातें बताई गयीं जिनका हमारे डॉक्टरी जीवन या भविष्य से कोई वास्ता ही नहीं था। पता नहीं क्यों ऐसी बातें सिलेबस का हिस्सा हुआ करती थीं। हमें ऐसी बहुत सारी बातें बताई गयी थीं जिनका जीवन में कोई महत्त्व ही नहीं था। रटना-रटाना और बेमतलब की बातें सुनना मुझे बिलकुल पसंद नहीं था। उस समय हमारा मेडिकल एजुकेशन सिस्टम एक ढ़र्रे पर चलता था और पुराना हो चुका था। हमारे सिस्टम में अब भी सुधार की ज़रुरत है। मुझे लगता है कि अगर हमने इस सिस्टम में बदलाव बहुत पहले कर लिए होते तो बहुत फायदा होता।”
अम्बरीश ने एमबीबीएस की पढ़ाई के दौरान ही अपना जीवन-साथी भी चुन लिया था। यही वजह है कि, भूलना चाहे तब भी वे मेडिकल कॉलेज की उन यादों को भूल नहीं सकते क्योंकि उन यादों से उनकी जीवन-साथी का भी सीधा तालुक्क जो है। डॉ. मित्थल की पत्नी डॉ. रंजना आँखों की डॉक्टर हैं और वे इन दिनों नई दिल्ली के इन्द्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल में बतौर 'सीनियर कंसलटेंट एंड ऑय स्पेशलिस्ट' अपनी सेवाएं दे रही हैं।
एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी कर लेने के बाद अम्बरीश ने मेडिसिन के किसी फील्ड में स्पेशलाइजेशन करने की ठानी। घर-परिवार के लोगों ने भी अम्बरीश को दिल का डॉक्टर बनने की ही सलाह दी। कार्डियोलॉजी में अम्बरीश का रजिस्ट्रेशन भी हो गया था। लेकिन, अम्बरीश के मन में कुछ और ही चल रहा था। वे लीक से हटकर कुछ नया करने की सोच रहे थे। वे ऐसे रास्ते पर नहीं जाना चाहते थे जिसपर कई लोग जा चुके हैं और कई लोग और भी जाने को तैयार हैं। उनके मन में ये बात गाँठ बांधकर बैठ गयी थी कि जीवन में कुछ नया करना है, कुछ ऐसा करना है जो पहले किसी ने नहीं किया। अम्बरीश ने कार्डियोलॉजी में डीएम करने के रास्ते को छोड़कर कुछ नया और बड़ा करने के इरादे से नई दिल्ली का रुख किया। बड़ी बात ये भी है कि उन दिनों बड़े-बड़े अस्पतालों और बाज़ार में दिल के डॉक्टरों की मांग काफी ज्यादा थी। कार्डियोलॉजिस्ट होने का मतलब था समाज में बड़ा रुतबा होना। कार्डियोलॉजिस्ट होने से सिर्फ शोहरत ही नहीं मिलती थी, दिल के डॉक्टरों की आमदनी भी खूब ज्यादा थी। लेकिन, अम्बरीश ने अपने दिल की आवाज़ सुनी और दिल का डॉक्टर न बनकर ज़िंदगी में कुछ नया करने का मजबूत फैसला लिया। इसकी फैसले की वजह से वे अपनी ज़िंदगी में वे सब कामयाबियां हासिल कर पाए जो बड़े-बड़े डॉक्टर और बड़ी-बड़ी शख्सियतें अपनी ज़िंदगी में हासिल नहीं कर पायीं।
अम्बरीश वे दिन भी कभी नहीं भूल सकते जब वे दिल्ली में नौकरी की तलाश में इधर-उधर घूम-फिर रहे थे। इसी तलाश में वे एक दिन अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान यानी एम्स गए। वे अनायास ही एम्स गए थे और एम्स क्या गए उनके जीवन को एक नयी दशा और दिशा मिल गयी। उन दिनों एम्स में कुछ बड़े डॉक्टर घेघा उन्मूलन कार्यक्रम से जुड़े थे। इन डॉक्टरों को शोध और अनुसंधान के लिए प्रतिभाशाली और काबिल लोगों की ज़रुरत थी। चूँकि ये काम लाखों लोगों की स्वास्थ-रक्षा से जुड़ा था, अम्बरीश ने खुद को घेघा उन्मूलन कार्यक्रम से जोड़ लिया। उन दिनों घेघा बहुत बड़ी बीमारी थी। शरीर में आयोडिन की कमी की वजह से लोगों को ये बीमारी होती थी। इस बीमारी की वजह से लोगों का गला आसाधारण रूप से फूल जाता था। होता ये था कि शरीर में आयोडीन की कमी की वजह से थायरायड ग्रन्थि में सूजन आ जाती है और इसी से गला फूल जाता था। यह बीमारी ज्यादातर उन क्षेत्रों के लोगों को होती थी जहाँ पानी में आयोडीन नहीं होता था या फिर कम होता था।
एम्स की ओर से शुरू किये गए शोध, अनुसंधान और अध्ययन का हिस्सा बनने के बाद अम्बरीश को उत्तरप्रदेश, बिहार, असम जैसे कई राज्यों का दौरा करने और वहां घेघा बीमारी से पीड़ित लोगों से मिलने और उनकी समस्याएं जानने का मौका मिला। अपने शोध और अनुसंधान के दौरान अम्बरीश के सामने कई सारे चौकाने वाले तथ्य सामने आये। अम्बरीश को पता चला कि गर्भावस्था के दौरान महिलाओं के शरीर में आयोडीन की कमी की वजह से कई बच्चे ऐसे पैदा हो रहे हैं जोकि मानसिक और शारीरिक रूप से काफी कमज़ोर हैं।थायरायड ग्रन्थि से जुड़ी इस बीमारी का नाम क्रेटीनता कहते हैं। क्रियाटिन इफ़ेक्ट की वजह से कई बच्चे ऐसे पैदा हुए जिनको हड्डियों की लाइलाज बीमारी है। अम्बरीश ने आयोडीन की कमी की वजह पैदा हुए ऐसे बच्चे भी देखे जिनकी हड्डियां इतनी बिगड़ी हुई थीं कि वे चल-फिर भी नहीं सकते थे।
अम्बरीश ने भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान और संजय गाँधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान के प्रोफेसरों, दूसरे डॉक्टरों और विशेषज्ञों के साथ मिलकर भारत का सर्वव्यापी आयोडिनयुक्त नमक कार्यक्रम तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। इसी कार्यक्रम की वजह से ये सुनिश्चित हुआ कि भारत में जहाँ भी नमक बिकेगा वो आयोडिनयुक्त होगा ताकि कोई भी भारतीय आयोडीन की कमी की वजह से होने वाली किसी भी बीमारी का शिकार न हो। ये कार्यक्रम भारत में सफल हुआ और अब भी लागू है।
गौरतलब है कि उन दिनों यानी नब्बे के दशक में सर्वव्यापी आयोडिनयुक्त नमक कार्यक्रम को अमल में लाना आसान नहीं था। कुछ ताकतों/ संस्थाओं/ लोगों ने इस कार्यक्रम को विरोध किया था। इन संस्थाओं/ लोगों का आरोप था कि कुछ विदेशी कंपनियों के झांसे में आकर ही एम्स के डॉक्टर और विशेषज्ञ इस कार्यक्रम को भारत में लागू करवाने की कोशिश कर रहे हैं। आरोप ये भी था कि आयोडिनयुक्त नमक बनाने वाली कंपनियों को फायदा पहुँचाने के मकसद से ही सर्वव्यापी आयोडिनयुक्त नमक कार्यक्रम को अमल में लाने की पुरजोर कोशिश की जा रही है। इन संस्थाओं/ लोगों का कहना था कि इस कार्यक्रम की वजह से भारत के स्थानीय नमक निर्माताओं और कारोबारियों की रोजी-रोटी छिन जाएगी। अम्बरीश ने बताया, “जिन लोगों ने उस कार्यक्रम का विरोध किया था वे लोग ऐसे गाँव गए ही नहीं थे जहाँ आयोडिन की कमी की वजह से लोग बीमार और बदहाल थे। इन लोगों को शरीर में आयोडिन की कमी से होने वाले नुकसान के बारे में मालूम ही नहीं था। ये लोग बड़े-बड़े शहरों में और एसी कमरों में बैठकर लेख लिख रहे थे और कार्यक्रम का विरोध कर रहे थे। चूँकि ये कार्यक्रम लोकहित में था, सरकार ने इसे अमल में लाया और भारतीय लोगों में नमक के ज़रिये आयोडिन की कमी दूर की गयी।” सर्वव्यापी आयोडिनयुक्त नमक कार्यक्रम में अपने योगदान के बावजूद अम्बरीश इस कार्यक्रम की कामयाबी का ज़रा-सा भी श्रेय लेने के बचते दिखाई देते हैं। वे कहते हैं, “मेरी भूमिका मामूली थी।”
दिलचस्प बात ये भी है कि एम्स ने एन्डोक्रनालजी में सुपर स्पेशलिटी कोर्स भी शुरू किया और अम्बरीश 1987 में एम्स से एन्डोक्रनालजी में डीएम की डिग्री लेने वाले पहले डॉक्टर बने। अम्बरीश ने जब एन्डोक्रनालजी को अपना स्पेशलाइजेशन बनाया था तब देश में बहुत कम लोग इस फील्ड के बारे में जानते थे। कई डॉक्टर भी एन्डोक्रनालजी के बारे में ज्यादा नहीं जानते थे। जब अम्बरीश ने एन्डोक्रनालजी में डीएम की डिग्री ली तब उनकी माँ को भी नहीं मालूम था कि उनका बेटा आगे क्या करेगा और किस तरह के मरीजों का इलाज करेगा। अपनी इन्हीं शंकाओं का समाधान करने के मकसद से अम्बरीश की माँ ने लखनऊ में मेडिकल के एक प्रोफेसर से बात की। उस प्रोफेसर ने कहा था कि अम्बरीश बहुत ही तेज़ दिमाग वाला इंसान है और अब चूँकि उसने एन्डोक्रनालजी को चुना है वो अनुसंधान ही करेगा। ये बात सुनकर माँ कुछ निराश हुई थीं और इसके बाद उन्होंने अम्बरीश से कहा था – बेटा, तुम्हें जो करना है वो करो, लेकिन डॉक्टर बने हो तो लोगों की मदद ज़रूर करना और मरीजों को ज़रूर देखना। अम्बरीश कहते हैं, “वो दिन ही कुछ ऐसे थे कि प्रोफेसर को भी ये नहीं मालूम था कि एन्डोक्रनालजी फील्ड में काम करने वाले डॉक्टर क्या करते हैं। उस प्रोफेसर ने मेरी माँ से जो बातें कही थीं उसे सुनकर मुझे भी बड़ा आश्चर्य हुआ था। मुझे भी शुरू में लगा था कि ये फील्ड सिर्फ डायबिटीज़ और थाइरोइड से जुड़ा है, लेकिन मैं जैसे-जैसे काम करता गया वैसे-वैसे मुझे अहसास हुआ कि ये एक ऐसा फील्ड है जो किसी न किसी रूप में हर भारतीय से जुड़ा है।”
एम्स से डीएम की डिग्री लेने के बाद अम्बरीश संजय गाँधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान से जुड़े। इस संस्थान में काम करते हुए भी अम्बरीश ने देश को जो सेवाएं दीं वो अमूल्य हैं। इसी संस्थान में काम करते हुए अम्बरीश ने देश और दुनिया का ध्यान फ्लोराइडयुक्त पानी पीने से होने वाले नुकसान की ओर आकर्षित किया। इतना ही नहीं अम्बरीश ने संजय गाँधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान के ज़रिये भारत में पहली बार बोन डेंसिटी मेज़रमेंट सिस्टम की स्थापना की और भारत में ऑस्टियोपोरोसिस के बारे में लोगों में जागरूकता लाना शुरू किया।
फ्लोराइडयुक्त पानी से होने वाले नुकसान पर शोध करने के पीछे एक बड़ी घटना थी। बात उन दिनों की है जब अम्बरीश संजय गाँधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान में काम कर रहे थे। 16 साल का एक नवयुवक अस्पताल आया था। उस नवयुवक की हड्डियां कुछ इस तरह से मुड़ गयी थीं कि वो ठीक तरह से चल भी नहीं पा रहा था। अस्पताल में हड्डियों के डॉक्टरों ने उस नवयुवक का परीक्षण किया। उन्हें बीमारी के बारे में कुछ भी ठीक तरह से समझ में नहीं आया। समस्या हड्डियों की ही दिख रही थी लेकिन बीमारी की वजह क्या थी इसके बारे में उन्हें कुछ भी पता नहीं चल पा रहा था। हड्डियों के डॉक्टरों को लगा कि मामला शायद हॉर्मोन से जुड़ा हुआ हो सकता है इसी वजह से उन्होंने मामले को एन्डोक्रनालजी के विशेषज्ञ अम्बरीश को रिफर कर दिया। अम्बरीश ने जब उस नवयुवक को देखा तो उन्हें भी बहुत आश्चर्य हुआ। मरीज की हालत बहुत खराब थी। उसका शरीर बड़े ही अजीब ढंग का हो गया था। अर्धचन्द्राकार में उसका शरीर मुड़ गया था। अम्बरीश ने इस मामले को गंभीरता से लिया। उन्होंने ठान ली कि वे शरीर के इस विकार के कारणों का पता लगाकर ही रहेंगे। अम्बरीश ने नवयुवक के खून की जांच करवाई। और भी दूसरे सारे परीक्षण करवाए। जांच और परीक्षण से एक बात तो साफ़ हो गयी थी कि समस्या हड्डियों की है और इस समस्या का कारण खान-पान से जुड़ी चीज़ें ही हैं। अम्बरीश ने अपना शोध-अनुसंधान शुरू किया। किताबों की ख़ाक छान मारी। कुछ किताबों में शरीर उस तरह से बिगड़ जाने जा ज़िक्र था जिस तरह से उस नवयुवक का शरीर था। इसी बीच अम्बरीश को लगा कि उन्हें नवयुवक के घर और गाँव जाकर भी मुआयना करना चाहिए। अम्बरीश ने अपना स्कूटर लिया और उसपर सवार होकर मरीज के गाँव गए। मरीज उन्नाव जिले के असोहा इलाके का रहने वाला था। जब अम्बरीश मरीज के इलाके पहुंचे तो वे ये देखकर दंग रह गए कि वहां पर कई लोगों की हड्डियां टेड़ी-मेड़ी हैं । क्या बच्चे, क्या जवान और क्या बूढ़े .. क्या मर्द और क्या औरतें, कईयों को हड्डियों की समस्या थी। अम्बरीश ने इलाके से पीने के पानी के सैम्पल लिए और उनकी जांच के लिए उन्हें लैब भेज दिया। जब लैब से रिपोर्टें आयीं तब अम्बरीश को लोगों की हड्डियों के बिगड़ जाने का कारण मालूम चल गया। उन्नाव जिले में लोग जो पानी पीते थे उसमें फ्लोराइड की मात्रा ज्यादा थी। पानी में फ्लोराइड की मात्रा ज्यादा हो जाने की वजह से वह ज़हर जैसा हो जाता है। फ्लोराइडवाला पानी पीने के फ्लोराइड जाकर हड्डियों पर जम जाता है और उनकी ताकत को कमज़ोर करने लगता है। उन्नाव और आसपास के इलाकों में लोग हैण्ड-पम्पों और कुओं के ज़रिये ज़मीन का पानी पिया करते थे और इसी भू-जल में फ्लोराइड की मात्रा ज्यादा थी।
लोगों की हड्डियों से जुड़ी बीमारियों और दिक्कतों के कारणों का पता लगा लेने के बाद अम्बरीश ने लोगों को सुरक्षित पीने का पानी मुहैय्या करवाने के लिए एक मुहीम चलाई। अम्बरीश की कोशिशों और पहल की वजह से ही फ्लोराइड प्रभावित गाँवों में सरकार ने टैंकों के ज़रिये सुरक्षित पीने का पानी उपलब्ध करवाना शुरू किया। महत्वपूर्ण बात ये भी है कि अलग-अलग राज्यों में कराये गए शोध-अनुसंधान से ये पता चला कि देश-भर में 6 से 7 करोड़ ऐसे लोग हैं जोकि फ्लोराइडयुक्त पानी का शिकार है। देश-भर में लोगों को सुरक्षित पानी उपलब्ध करवाने के लिए तरह-तरह के कार्यक्रम शुरू किये गए। अम्बरीश को इस बात का दुःख है कि भारत में अभी भी कई ऐसे गाँव हैं जहाँ लोगों को सुरक्षित पानी नहीं उपलब्ध करवाया जा रहा है और ये लोग फ्लोराइडयुक्त पानी जोकि ज़हर के बराबर है, पीने को मजबूर हैं।
अपने डॉक्टरी जीवन के अम्बरीश ने दौरान लोगों को अलग-अलग तरह की बीमारियों से बचाने के लिए कई सारे प्रयोग किये हैं। लोगों को स्वस्थ रखने के लिए कई सारे शोध और अनुसंधान किये हैं। उत्तरप्रदेश के कई गाँवों में फ्लोराइडयुक्त पानी से लोगों को हुए नुकसान पर किये गए उनके शोध की महत्ता और गुणवत्ता को ध्यान में रखते हुए हार्वर्ड मेडिकल स्कूल ने उन्हें अपने यहाँ लेक्चर देने के लिए भी आमंत्रित किया। इतना ही नहीं, इसी तरह का शोध उनकी प्रयोगशाला में करने की भी गुज़ारिश की। बड़ी बात ये रही कि अम्बरीश को हार्वर्ड मेडिकल स्कूल ने प्रतिष्टित फोगेर्टी फ़ेलोशिप भी प्रदान की। उन दिनों हर साल किसी एक व्यक्ति को ही फोगेर्टी फ़ेलोशिप दी जाती थी और साल 1993-94 में ये गौरव भारत के अम्बरीश को प्राप्त हुआ।
वैसे भी अम्बरीश ने अपने जीवन में कई ऐसे काम किये जोकि भारत में कभी नहीं हुए। अम्बरीश के प्रयोगों ने भारत में चिकित्सा-विज्ञान के क्षेत्र में कई नए मापदंड स्थापित किये। उनके शोध-पत्रों ने भारत में चिकित्सा-विज्ञान को नए आयाम भी प्रदान किया। अम्बरीश ने ही साल 1997 में संजय गाँधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान में भारत का पहला बोन डेंसिटी मेज़रमेंट सिस्टम स्थापित किया। वे पहले ऐसे भारतीय बने जिन्होंने जेआईसीए फेलो के रूप में जापान में बोन डेंसिटी मैनेजमेंट का प्रशिक्षण प्राप्त किया। अम्बरीश ही भारत के ऐसे पहले डॉक्टर हैं जिन्होंने बताया कि भारत में ऑस्टियोपोरोसिस एक बहुत बड़ी समस्या है और इससे 5 करोड़ से ज्यादा लोग पीड़ित हैं। अम्बरीश ने ही लोगों में ऑस्टियोपोरोसिस से बचने के उपायों के बारे में जागरूकता लाना भी शुरू किया। अम्बरीश ने ही अपने शोध-अनुसंधान से ये पता लगाया कि भारत में लाखों लोग शरीर में विटामिन डी की कमी की वजह से तरह-तरह की बीमारियों का शिकार हैं। भारतीयों के शरीर में विटामिन डी की कमी को दूर करवाने के मकसद ने अम्बरीश ने कुछ संस्थाओं के साथ मिलकर विटामिन डी युक्त दूध और खाद्य तेल बनवाने और उसका इस्तेमाल करवाने की पहल शुरू करवाई। अम्बरीश ने इस बात के बारे में भी लोगों में जागरूकता लाई कि कई भारतीय महिलाओं को गर्भावस्था के दौरान मधुमेय यानी डायबिटीज़ हो जाता है। अम्बरीश ही पहले ऐसे भारतीय हैं जिन्होंने विश्व स्वास्थ संगठन की ग्लोबल टास्क फ़ोर्स ऑन ऑस्टियोपोरोसिस, एशिया पसिफ़िक एडवाइजरी कौंसिल और बोर्ड ऑफ़ गवर्नेंस ऑफ़ द इंटरनेशनल ऑस्टियोपोरोसिस फाउंडेशन जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं में काम करने और अपनी सेवाएँ देने का अवसर प्राप्त हुआ।
अम्बरीश दो या तीन नहीं बल्कि कई सारी राष्टीय और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं से जुड़े रहे हैं। उन्होंने सालों तक कई संस्थाओं का सफल नेतृत्व भी किया है। वे एनडोक्रिन सोसाइटी ऑफ़ इंडिया, इंडियन सोसाइटी ऑफ़ बोन एंड मिनरल रिसर्च और बोन एंड जॉइंट डिकेड के अध्यक्ष के रूप में देश को अपनी अमूल्य सेवाएँ दे चुके हैं। अम्बरीश के शोध-पत्र और लेख देश और दुनिया की कई नामचीन पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं। अलग-अलग समाचार-पत्रों में अपने लेखों और टेलीविज़न चैनलों पर अलग-अलग कार्यक्रमों के ज़रिये भी. अम्बरीश लोगों को बीमारियों से दूर रहने के उपाय बता रहे हैं।
चिकित्सा और स्वास्थ के क्षेत्र में उनकी आसाधारण सुविधाओं को मान्यता देते हुए देश-विदेश ने कई बड़ी संस्थाओं ने उन्हें अलग-अलग बड़े पुरस्कारों/अवार्डों से सम्मानित किया है। वे पहले और अब तक के अकेले ऐसे भारतीय हैं जिन्हें अमेरिकन सोसाइटी ऑफ़ बोन एंड मिनरल रिसर्च ने ‘बॉय फ्रेम अवार्ड’ से सम्मानित किया है। ये प्रतिष्ठित अवार्ड अम्बरीश को साल 2004 में दिया गया था। साल 2005 में उन्हें इंटरनेशनल ऑस्टियोपोरोसिस फाउंडेशन का हेल्थ प्रोफेशनल अवेयरनेस अवार्ड दिया गया। भारत सरकार अम्बरीश की सेवाओं को ध्यान में रखते हुए साल 2015 में उन्हें ‘पद्मभूषण’ से भी अलंकृत कर चुकी है।
भारत में एन्डोक्रनालजी को स्थापित करने और उसकी महत्ता को जन-जन तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाने वाले अम्बरीश मित्थल इन दिनों गुडगाँव के मेदांता द मेडिसिटी अस्पताल में एन्डोक्रनालजी और डायबिटीज़ प्रभाग के मुखिया हैं। मेदांता अस्पताल ज्वाइन करने से पहले कुछ सालों के लिए अम्बरीश मित्थल ने नई दिल्ली के इन्द्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल में भी अपनी सेवाएं दीं। सरकारी चिकित्सा संस्थाओं को छोड़कर बड़े निजी अस्पतालों को शिफ्ट हो जाने को लेकर कुछ लोगों ने उनकी आलोचना भी की। अम्बरीश इन आलोचनाओं पर ध्यान नहीं देते और ये कहकर अपने फैसलों का सही ठहराते हैं कि, “आप काम कहीं भी क्यों न करें, आपको मरीजों का इलाज करना ही है। अस्पताल बदलने से आपका काम थोड़े ही बदलता है। थोड़े ही आपके इलाज करने का तरीका बदलता है। सरकारी अस्पताल हो या कॉर्पोरेट हॉस्पिटल डॉक्टर का काम तो वही रहेगा – मरीजों का इलाज करना।” एक सवाल के जवाब में अम्बरीश के ये भी कहा, “मैं जहाँ भी रहूँ, लोगों की सेवा करता ही रहूँगा। मेरी ज़िंदगी का मकसद ही हैं - लोगों को स्वास्थ-लाभ पहुँचाना। पब्लिक हेल्थ के सेक्टर में मैं जितना कर पाऊँगा उनता करूंगा।” एक और बात अम्बरीश जोर देकर कहते हैं। ये बात उनकी ओर से उन लोगों को सलाह भी है जोकि डॉक्टर बनना चाहते हैं। अम्बरीश कहते हैं, “अगर लोगों की सेवा करने का इरादा है तभी किसी इंसान को डॉक्टर बनना चाहिए। जो इंसान बड़ी-बड़ी कारों, बड़े-बड़े बंगलों और खूब-धन दौलत के लिए डॉक्टर बनना चाहता है वो ज़िंदगी में निराश ही रहेगा।”
महत्वपूर्ण बात ये भी है कि बतौर डॉक्टर अम्बरीश ने अपने जीवन में अब तक लाखों मरीजों का इलाज किया। उन्होंने कई ऐसे मरीजों को इलाज किया है जिनकी बीमारी को दूसरे कई सारे डॉक्टर समझ ही नहीं पाए थे। पिछले कई सालों से अम्बरीश कर दिन कई सारे मरीजों की जांच करते हुए उनकी बीमारी का पता लगाने के अलावा उनका इलाज कर रहे हैं। अपने अनुभव और ज्ञान के आधार पर उन्होंने कई सारे पेचीदा मामलों को बड़ी आसानी से सुलझाया है। दो ऐसे मामले हैं जिनके बताते हुए अम्बरीश बहुत भावुक हो जाते हैं और उनके चहरे पर खुशी साफ़ छलकती है।
गोरखपुर के रहने वाले एक बच्चे को एक अजीब-सी बीमारी हो गयी थी। उसकी हड्डियां कमज़ोर पड़ने लगी थीं और उनमें बहुत दर्द होने लगा था। कई सारे डॉक्टरों ने उसका परीक्षण किया लेकिन बीमारी और उसके कारण का पता नहीं लगा पाए। कुछ डॉक्टरों ने उस मरीज को अम्बरीश के पास जाने की सलाह दी। जब वो मरीज अम्बरीश के पास पहुंचा तब उसकी हालत काफी खराब थी। अम्बरीश ने मामले को अपने हाथों में लिया और मरीज के खून की जांच करवाई और दूसरे परीक्षण भी। कुछ परीक्षणों से ये बात सामने आयी कि उस बच्चे को हाइपो-पैराथाइरोइडइज़म की समस्या है। उस लड़के के खून में कैल्शियम ज़रुरत से काफी कम हो जाता था। बीमारी का पता लगने के बाद अम्बरीश ने इलाज शुरू किया और कुछ ही दिनों में वो लड़का रोगमुक्त हो गया। अम्बरीश ने बताया, “वो लड़का अब बड़ा हो चुका है और अमेरिका में आराम से अपनी जिंदगी जी रहा। अब भी वो मुझसे संपर्क में रहते है।”
दूसरा मामला एक महिला का था। इस महिला की बीमारी को भी दूसरे डॉक्टर नहीं जान पाए थे। कई सारे परीक्षण किये गए फिर भी बीमारी का पता नहीं चल पाया था। दिल्ली की रहने वाली इस महिला को भी हड्डियों की परेशानी थी। उसकी हड्डियों में असहनीय दर्द होता था और वो चल-फिर भी नहीं पाती थी। उसकी ज़िंदगी व्हीलचेयर पर सिमट कर रह गयी थी। कुछ डॉक्टरों की सलाह पर वो अम्बरीश से मिलने आयी थी। अम्बरीश को देखते ही वो रो पड़ी थी। उसके आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। उसके हावभाव और उनकी बातों से साफ़ था कि अम्बरीश में ही उसकी आखिरी उम्मीद टिकी है। अम्बरीश ने महिला की हड्डियों की जांच करवाई। जांच में पता चला कि कई हड्डियों में फ्रैक्चर है यानी हड्डियां टूट चुकी हैं। खून की जांच से पता चला कि इस महिला के खून में कैल्शियम और विटामिन डी था ही नहीं। अम्बरीश ने उस महिला का इलाज शुरू किया और तीन महीने में ही वो महिला भी पूरी तरह से ठीक हो गयी। अम्बरीश की दवाइयों का असर कुछ इस तरह से हुआ था कि उस महिला की हड्डियां फिर से मज़बूत हो गयीं और वो महिला चलने-फिरने लगी। पूरी तरह से ठीक होकर जब वो महिला अस्पताल पहुँची और अम्बरीश को देखा तो उसके चेहरे पर खुशी और कृतज्ञता का भाव साफ़ दिखाई दे रहा था। अम्बरीश कहते हैं,“मेरे लिए अपने मरीजों की खुशी ही सबसे ज्यादा मायने रखती हैं। मरीजों का इलाज करने के बाद जब वे ठीक हो जाते हैं और दिल से दुआ देते हैं तब मुझे सबसे ज्यादा खुशी मिलती हैं।”
एक सवाल के जवाब में इस लोकप्रिय और प्रसिद्ध डॉक्टर ने कहा, “अवार्ड मिलने पर खुशी तो होती ही हैं। अवार्ड की वजह से मान्यता मिलती है और कई सारे लोगों को ये भी पता चलता है कि मैं क्या काम कर रहा हूँ। लेकिन, अवार्ड मिले या न मिले मेरा काम तो चलता ही रहता है। मरीजों की खुशी में ही मेरी खुशी है। और जब मैं पब्लिक हेल्थ सेक्टर में अपने योगदान को देखता हूँ तब भी मुझे खुशी मिलती है और अहसास होता है कि हाँ, मैंने अच्छा काम किया है।”
यहाँ ये बताना भी ज़रूरी है कि अम्बरीश ने कई बीमारियों के बारे में पता लगाया है और लोगों को ये बीमारियाँ न हों इसके लिए किये जाने वाले उपाय भी लोगों को बताये हैं। वे कहते हैं, “हर दिन मेरे पास कई ऐसे मामले आते हैं जोकि काफी पेचीदा होते हैं। हकीकत तो ये भी है कि हर मरीज का इलाज अपने आप में एक चुनौती होती है। ज्यादातर लोग ऐसे आते हैं जोकि हर जगह कोशिश कर चुके होते हैं, इसी वजह से हर मरीज का इलाज आसान नहीं होता।” अम्बरीश इस बात को स्वीकार करने में ज़रा-सा भी संकोच नहीं करते कि डॉक्टरों से भी गलतियां होती हैं। वे ये भी कहने से ज़रा भी नहीं हिचकिचाते कि उनसे भी गलतियां हुई हैं। अम्बरीश कहते हैं, “कई बार ऐसा होता है कि डॉक्टर को समझ में नहीं आता कि क्या किया जाय। डॉक्टर भी उपाय ढूँढने लगते हैं। वैसे भी हर मरीज अपने आप में हर डॉक्टर के लिए एक चुनौती ही होता हैं। हर डॉक्टर को ये बात कभी भी नहीं भूलनी चाहिए कि हर मरीज तकलीफ के साथ ही डॉक्टर के पास आता है और डॉक्टर का काम भी यही है किसी भी तरह से मरीज की तकलीफ को दूर किया जाय। हर डॉक्टर को एक बार मरीज की स्थिति में खुद को बिठाकर देखना चाहिए, तभी जाकर उन्हें इस बात का अहसास होगा कि मरीज किस हालत में डॉक्टर के पास आते हैं। हर डॉक्टर की बस एक ही कोशिश होनी चाहिए कि उसके पास आने वाला हर मरीज खुश और संतुष्ट होकर जाए।”
अम्बरीश इन दिनों सूचना-प्रौद्योगिकी और नयी टेक्नोलॉजी की मदद से भी मरीजों का इलाज करने में जुटे हैं। वे इन्टरनेट, मोबाइल फ़ोन एप्प जैसी सुविधाओं का इस्तेमाल कर लोगों तक अपनी बात और सलाह पहुंचाने की कोशिश में भी हैं। अम्बरीश चाहते हैं कि कई मरीज, ख़ास तौर पर वो मरीज जो ज्यादा बीमार हैं वे घर बैठे ही व्हाट्सएप्प जैसे मोबाइल फ़ोन एप्लीकेशन्स के ज़रिये उनकी सलाह ले सकें।अम्बरीश ने बताया कि वे कभी भी कोई लक्ष्य लेकर नहीं चलते, लेकिन फिलहाल उनकी तीन-चार प्राथमिकताएं हैं। पहली प्राथमिकता है – मरीजों को बेहतर सेवाएं देना। दूसरी प्राथमिकता है – आईटी का इस्तेमाल कर मरीजों को सलाह-मशवरा देना ताकि हॉस्पिटल-विजिट कम हो सकें। तीसरी प्राथमिकता – सरकारों के ज़रिये दूध, घी और तेल में विटामिन डी डलवाने के लिए संस्थाओं और कंपनियों को मजबूर करना और चौथी प्राथमिकता है - मीडिया के ज़रिये अलग-अलग मुद्दों को लेकर लोगों में स्वास्थ और चिकित्सा-शास्त्र के प्रति बनी गलत धारणाओं को दूर करना। इन दिनों अम्बरीश सोशल मीडिया की मदद से भी लोगों में जागरूकता लाने और उन्हें बीमारियों से बचने के उपाय बता रहे हैं। वे सोशल मीडिया पर काफी एक्टिव हैं और ई- कंसल्टेंसी यानी इन्टरनेट के ज़रिये सलाह-मशवरा देने को भी खूब बढ़ावा दे रहे हैं।