हरिवंशराय बच्चन को याद करते हुए: बने रहें ये पीने वाले, बनी रहे ये मधुशाला
'हालावाद' सृजनकर्ता हरिवंश राय बच्चन के जन्मदिन पर विशेष...
कहा जाता है कि बच्चन जी ने हिन्दी में 'हालावाद' का सृजन किया। हिन्दी कविता को 'मधुशाला' से नया आयाम मिला। बच्चन के काव्य की विलक्षणता उनकी मंचीय लोकप्रियता भी रही है। उनका निसंदेह भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय कवियों में शीर्ष स्थान रहा है।
आजीवन हिन्दी साहित्य को समृद्ध करते रहे डॉ. हरिवंश राय बच्चन एक वक्त में आकाशवाणी केंद्र इलाहाबाद में भी कार्यरत रहे, बाद में अपने दिल्ली प्रवास के दौरान विदेश मंत्रालय में दस वर्षों तक महत्वपूर्ण पद पर आसीन रहे। वह छह वर्ष तक राज्यसभा के विशेष सदस्य भी रहे।
"सुन, कलकल़ , छलछल़ मधुघट से गिरती प्यालों में हाला,
चहक रहे, सुन, पीनेवाले, महक रही, ले, मधुशाला।।
सुन, रूनझुन रूनझुन चल वितरण करती मधु साकीबाला,
बस आ पहुंचे, दुर नहीं कुछ, चार कदम अब चलना है..."
छायावाद मुखरित करने वाले 'मधुशाला' के कवि हरिवंश राय बच्चन की आज पुण्यतिथि है। कालजयी कृति 'मधुशाला' पहली बार सन् 1935 में प्रकाशित हुई थी। कवि सम्मेलनों में उससे पहले देशभर के कवि सम्मेलनों के मंचों से 'मधुशाला' की रूबाइयां जन-जन के कंठ में उतर चुकी थीं। प्रकाशित होने के बाद 'मधुशाला' खूब बिकी। हरसाल उसके दो-तीन संस्करण छपने लगे। बच्चन जी ने इस लोकप्रिय कृति में मधु, मदिरा, हाला (शराब), साकी (शराब परोसने वाला), प्याला (कप या ग्लास), मधुशाला और मदिरालय की मदद से जीवन की जटिलताओं के विश्लेषण का प्रयास किया है। 'मधुशाला' का जब पहला संस्करण लोगों तक पहुंचा तो कृति में शराब की बेमिसाल प्रशंसा के लिए कई लोगों ने उनकी आलोचना की।
महात्मा गांधी ने 'मधुशाला' का पाठ सुनकर कहा था कि इसकी आलोचना करना ठीक नहीं है। उल्लेखनीय है कि 'मधुशाला' बच्चन जी की रचनात्रयी 'मधुबाला' और 'मधुकलश' का अगला पड़ाव रही है जो उमर खैय्याम की रूबाइयों से प्रेरित है। उमर खैय्याम की रूबाइयों को हरिवंश राय बच्चन 'मधुशाला' के प्रकाशन से पहले ही हिंदी में अनुवाद कर चुके थे। बाद के दिनों में 'मधुशाला' इतनी मशहूर हो गई कि जगह-जगह इसे नृत्य-नाटिका के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा। मशहूर नर्तकों ने इसे मंचों से स्वर दिया। 'मधुशाला' की चुनिंदा रूबाइयों को मन्ना डे ने एलबम के रूप में प्रस्तुत किया। इस एलबम की पहली पंक्ति स्वयं बच्चन जी के सुर में मुखरित हुई। बच्चन जी के अभिनेता पुत्र अमिताभ बच्चन भी देश-विदेश के कई मंचों पर अब तक 'मधुशाला' की रूबाइयों का पाठ कर चुके हैं-
बने पुजारी प्रेमी साकी, गंगाजल पावन हाला,
रहे फेरता अविरत गति से मधु के प्यालों की माला'
'और लिये जा, और पीये जा', इसी मंत्र का जाप करे'
मैं शिव की प्रतिमा बन बैठूं, मंदिर हो यह मधुशाला।।
बजी न मंदिर में घड़ियाली, चढ़ी न प्रतिमा पर माला,
बैठा अपने भवन मुअज्ज़िन देकर मस्जिद में ताला,
लुटे ख़जाने नरपितयों के गिरीं गढ़ों की दीवारें,
रहें मुबारक पीनेवाले, खुली रहे यह मधुशाला।।
आजीवन हिन्दी साहित्य को समृद्ध करते रहे डॉ. हरिवंश राय बच्चन एक वक्त में आकाशवाणी केंद्र इलाहाबाद में भी कार्यरत रहे, बाद में अपने दिल्ली प्रवास के दौरान विदेश मंत्रालय में दस वर्षों तक महत्वपूर्ण पद पर आसीन रहे। वह छह वर्ष तक राज्यसभा के विशेष सदस्य भी रहे। वह 1972 से 1982 तक परिवार के साथ कभी दिल्ली के गुलमोहर पार्क स्थित 'सोपान' में तो कभी मुम्बई में वक्त बिताते रहे। आखिरी वक्त उनका मुम्बई में पुत्र अमिताभ के साथ बीता। कहा जाता है कि बच्चन जी ने हिन्दी में 'हालावाद' का सृजन किया। हिन्दी कविता को 'मधुशाला' से नया आयाम मिला। बच्चन के काव्य की विलक्षणता उनकी मंचीय लोकप्रियता भी रही है। उनका निसंदेह भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय कवियों में शीर्ष स्थान रहा है।
बच्चन जी जिस समय लिख रहे थे, पाठकवर्ग छायावाद के अतिसुकुमार-मधुर मनोभावों से, उसकी अतीन्द्रिय और अतिवैयक्तिक सूक्ष्मता से, उसकी लक्ष्णात्मक अभिव्यंजना शैली से उकताया हुआ था। हिन्दी कविता जनमानस से दूर होती जा रही थी। ऐसे व्यापक खिन्नता और अवसाद के युग में बच्चन जी ने मध्यवर्ग के विक्षुब्ध, वेदनाग्रस्त मन को वाणी का वरदान दिया, सरल, जीवन्त और सर्वग्राह्य भाषा में छायावाद की लाक्षणिक वक्रता की जगह संवेदनासिक्त अभिद्या के माध्यम से अपनी बात कविता के माध्यम से कहना आरम्भ किया और पाठकवर्ग सहसा चौंक पड़ा क्योंकि बच्चन वही कह रहे थे जो पाठकों के दिलों की बात थी।
बच्चन ने अनुभूति से प्रेरणा पायी थी और अनुभूति को ही काव्यात्मक अभिव्यक्ति देना उन्होंने अपना ध्येय बनाया। उन्होंने 'हालावाद' के माध्यम से व्यक्ति के जीवन की सारी निस्सारताओं को स्वीकार करते हुए भी उससे मुंह मोड़ने के बजाय उसका उपयोग करने की, उसकी सारी बुराइयों और कमियों के बावजूद, जो कुछ मधुर और आनंदपूर्ण होने के कारण ग्राह्य है, उसे अपनाने के लिए प्रेरित किया-
जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अंबर के आंगन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फिर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अंबर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई।
जीवन में वह था एक कुसुम
थे उस पर नित्य निछावर तुम
वह सूख गया तो सूख गया
मधुबन की छाती को देखो
सूखीं कितनी इसकी कलियाँ
मुरझाईं कितनी वल्लरियाँ
जो मुरझाईं फिर कहाँ खिलीं
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुबन शोर मचाता है
जो बीत गई सो बात गई।
जीवन में मधु का प्याला था
तुमने तन मन दे डाला था
वह टूट गया तो टूट गया
मदिरालय का आँगन देखो
कितने प्याले हिल जाते हैं
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं
जो गिरते हैं कब उठते हैं
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है
जो बीत गई सो बात गई।
बच्चन जी ने उमर खैय्याम के जीवन दर्शन 'वर्तमान क्षण को जानो, मानो, अपनाओ और भली प्रकार इस्तेमाल करो', को अपने शब्दों का आदर्श बना लिया। 'हालावाद' दरअसल, गम गफलत करने का निमंत्रण है, गम से घबराकर खुदकुशी करने का नहीं। उन्होंने पलायन पर जोर न देकर वास्तविकता को स्वीकारा और वास्तविकता की शुष्कता को अपने अंतरमन से सींचकर हरा-भरा सा कर दिया। आत्मानुभूति, आत्म-साक्षात्कार और आत्माभिव्यक्ति के बल पर मधुशाला को शब्दायित किया। समाज की आभावग्रस्त व्यथा, परिवेश का चकाचौंध भरा खोखलापन, नियति और व्यवस्था के आगे आम आदमी की असाघ्यता और बेबसी उनके शब्दों में मुखरित हुई।
उनकी 'निशा निमंत्रण', 'एकांत संगीत', 'नीड़ का निर्माण फिर', 'क्या भूलूं, क्या याद करूं', 'सतरंगिनी', 'मिलन यामिनी' आदि कृतियों को भी अपार प्रसिद्धि मिली। बच्चन जी ने शेक्सपियर के दुखांत नाटकों का हिन्दी अनुवाद करने के साथ ही रूसी कविताओं का हिन्दी संग्रह भी प्रकाशित कराया। उनकी कविताओं में सभी प्रवृतियों यथा, छायावाद, रहस्यवाद, प्रयोगवाद और प्रगतिवाद का एक साथ समावेश रहा। उन्हें 'दो चट्टानें' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। बिड़ला फाउन्डेशन ने उनकी तीन खंडों में प्रकाशित आत्मकथा के लिए उन्हें सरस्वती सम्मान दिया। उन्हें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार तथा एफ्रो एशियाई सम्मेलन के 'कमल पुरस्कार' से भी सम्मानित किया गया। वह हिंदी साहित्य सम्मेलन की ओर से साहित्य वाचस्पति से सम्मानित हुए। इसके अलावा 1976 में वह पद्म भूषण से समादृत हुए। जब तब आज भी मधुशाला की पंक्तियां लोगों के कानों में मधुरस घोलती रहती हैं -
मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला,
प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला,
पहले भोग लगा लूँ तेरा फिर प्रसाद जग पाएगा,
सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला।।
प्यास तुझे तो, विश्व तपाकर पूर्ण निकालूँगा हाला,
एक पाँव से साकी बनकर नाचूँगा लेकर प्याला,
जीवन की मधुता तो तेरे ऊपर कब का वार चुका,
आज निछावर कर दूँगा मैं तुझ पर जग की मधुशाला।।
प्रियतम, तू मेरी हाला है, मैं तेरा प्यासा प्याला,
अपने को मुझमें भरकर तू बनता है पीनेवाला,
मैं तुझको छक छलका करता, मस्त मुझे पी तू होता,
एक दूसरे की हम दोनों आज परस्पर मधुशाला।।
भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला,
कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला,
कभी न कण-भर खाली होगा लाख पिएँ, दो लाख पिएँ!
पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला।।
मधुर भावनाओं की सुमधुर नित्य बनाता हूँ हाला,
भरता हूँ इस मधु से अपने अंतर का प्यासा प्याला,
उठा कल्पना के हाथों से स्वयं उसे पी जाता हूँ,
अपने ही में हूँ मैं साकी, पीनेवाला, मधुशाला।।
मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवाला,
'किस पथ से जाऊँ?' असमंजस में है वह भोलाभाला,
अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ -
'राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला'।।
चलने ही चलने में कितना जीवन, हाय, बिता डाला!
'दूर अभी है', पर, कहता है हर पथ बतलानेवाला,
हिम्मत है न बढूँ आगे को साहस है न फिरुँ पीछे,
किंकर्तव्यविमूढ़ मुझे कर दूर खड़ी है मधुशाला।।
मुख से तू अविरत कहता जा मधु, मदिरा, मादक हाला,
हाथों में अनुभव करता जा एक ललित कल्पित प्याला,
ध्यान किए जा मन में सुमधुर सुखकर, सुंदर साकी का,
और बढ़ा चल, पथिक, न तुझको दूर लगेगी मधुशाला।।
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