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200 कलाकारों ने श्रमदान से मधुबनी पेंटिंग द्वारा दिलाई स्टेशन को नई पहचान

200 कलाकारों ने श्रमदान से मधुबनी पेंटिंग द्वारा दिलाई स्टेशन को नई पहचान

Thursday April 12, 2018 , 5 min Read

आप जैसे ही मधुबनी स्टेशन पर पहुंचेंगे आपको मिथिला की लोक संस्कृति की झलक देखने को मिल जाएगी। स्टेशन पर 46 थीम को 100 से भी ज्यादा कलाकारों ने मिलकर सजाया है। इसमें रामायण की सीताविवाह, कृष्ण लीला, झिझिया, कितकित जैसी थीमें प्रमुख रूप से दीवारों पर देखने को मिलेंगी।

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इस पेंटिंग का दायरा काफी विस्तृत है और यह लगभग 7,000 फीट लंबी पेंटिंग है। उम्मीद जताई जा रही थी कि स्टेशन की इस पेंटिंग को गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में शामिल किया जाएगा। लेकिन प्रशासन की लापरवाही से ऐसा हो नहीं पाया।

बिहार के मिथिलांचल क्षेत्र में की जाने वाली पेंटिंग पूरी दुनिया में अपने अनोखेपन और सुंदरता के लिए प्रसिद्ध है। अब इस पेंटिंग से मधुबनी स्टेशन को नई पहचान मिल रही है। तमाम कलाकारों ने अपने श्रमदान से मधुबनी स्टेशन को एक नया रूप दे दिया है। लोगों की मान्यता है कि सबसे पहले सीता विवाह में पूरे शहर को मधुबनी पेंटिंग से सजाया गया था। तब से अब तक पेंटिंग की यह कला चली आ रही है। मधुबनी पेंटिंग का देश की संस्कृति में कितना योगदान है, इस बात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अब तक मधुबनी पेंटिंग करने वाले पांच कलाकारों को पद्मश्री से नवाजा जा चुका है।

आप जैसे ही मधुबनी स्टेशन पर पहुंचेंगे आपको मिथिला की लोक संस्कृति की झलक देखने को मिल जाएगी। स्टेशन पर 46 थीम को 100 से भी ज्यादा कलाकारों ने मिलकर सजाया है। इसमें रामायण की सीताविवाह, कृष्ण लीला, झिझिया, कितकित जैसी थीमें प्रमुख रूप से दीवारों पर देखने को मिलेंगी। स्टेशन पर पेंटिंग के काम को अंजाम देने में अहम भूमिका निभाने वाले कार्यक्रम के आयोजक मनोज कुमार ने बताया कि फेसबुक के जरिए इस मुहिम की शुरुआत हुई। उन्होंने बताया कि फेसबुक पर क्राफ्ट्सवाला नाम के पेज के एडमिन राकेश झा ने मधुबनी पेंटिंग से जुड़ी कुछ बात साझा की थी। उस पर मनोज की नजर पड़ी और बातों का सिलसिला चल निकला।

स्टेशन के बाहर का बदला नजारा

स्टेशन के बाहर का बदला नजारा


राकेश ने मनोज का नंबर लिया और दोनों की मुलाकात में यह तय हुआ कि मधुबनी स्टेशन को मधुबनी पेंटिंग से ही नए रूप में ढालना है। मनोज ने कहा कि वह सभी कलाकारों को श्रमदान के जरिए पेंटिंग करने के लिए मनाया। ये भी हैरत की बात है कि 100 से ज्यादा कलाकारों ने मुफ्त में पूरे स्टेशन को सुंदर बना दिया। इस प्रॉजेक्ट में मधुबनी पेंटिंग के जानकार एक प्रोफेसर भी छुट्टी लेकर पहुंच गए। उनका कहना था कि यहां ज्यादातर कलाकार अशिक्षित हैं इसलिए वे उनका हौसला बढ़ाने के लिए वहां गए थे। इन कलाकारों में बच्चों से लेकर बूढ़े और मूक बधिर पेंटरों ने अपना योगदान दिया।

इस पेंटिंग का दायरा काफी विस्तृत है और यह लगभग 7,000 फीट लंबी पेंटिंग है। उम्मीद जताई जा रही थी कि स्टेशन की इस पेंटिंग को गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में शामिल किया जाएगा। लेकिन प्रशासन की लापरवाही से ऐसा हो नहीं पाया। ईस्ट सेंट्रल रेलवे के समस्तीपुर डिविजन के अंतर्गत आने वाले इस स्टेशन की सुंदरता के लिए भारतीय रेलवे ने भी सहयोग देने का वादा किया था लेकिन कलाकारों को कुछ नहीं मिला। यह प्रॉजेक्ट पिछले साल गांधी जयंती के दिन 2 अक्टूबर को शुरू हुआ था। इस पेंटिंग के जरिए स्टेशन को खूबसूरत बनाने के साथ ही स्वच्छ भारत अभियान को बढ़ावा देने की बात कही गई और स्थानीय कलाकारों की प्रतिभा को एक नया मंच मिलने की उम्मीद जताई गई।

पेंटिंग के दौरान काम में लगे कलाकार

पेंटिंग के दौरान काम में लगे कलाकार


इसका विधिवत शुभारंभ डीआरएम ने किया था। अब इस स्टेशन को दूर से देखकर ही पहचाना जा सकता है कि यह मधुबनी स्टेशन है। मनोज बताते हैं कि मधुबनी पेंटिंग भले ही दुनियाभर में प्रसिद्ध हो, लेकिन इस पर काफी काम होना बाकी है। वह कहते हैं, 'मिथिला पेंटिंग पर कई लोगों ने काम करके अपना भला तो कर लिया लेकिन पेंटिंग का भला नहीं हो पाया।' यहां के कलाकारों के साथ कई सारी समस्याएं हैं। उन्हें कई बार भूखे रहकर काम करना पड़ता है, लेकिन उनका भला करने वाला कोई नहीं है। इस स्टेशन पर पेंटिंग करने वाले कलाकारों से भी वादा किया गया था कि उन्हें मेहनताना दिया जाएगा, लेकिन उन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ और बाद में उन्हें ठगा सा महसूस हुआ।

उन्होंने आगे बताया, 'मिथिला पेंटिंग पर जितना काम होना चाहिए था, जितना शोध होना चाहिए था, उसका आधा भी नहीं हुआ। इस पेंटिंग में अर्थशास्त्र से लेकर समाज शास्त्र तक की झलक देखने को मिल जाती है। ' मनोज ने बताया कि मिथिलांचल की जितनी भी लोक कलाएं हैं वे विधवा की कोख से पैदा होती हैं। क्योंकि यहां पहले बाल विवाह का काफी प्रचलन था और जब उन लड़कियों के पति का देहांत हो जाता था तो उन्हें किसी भी समारोह या त्योहार में हिस्सा लेने की इजाजत नहीं होती थी। इस हालत में वे इन लोक कलाओं के जरिए अपना दुख और दर्द बयां करती थीं। शायद यही वजह है कि जिन पांच मधुबनी पेंटर्स को पद्मश्री पुरस्कार मिला उनमें से सभी बाल विधवा थीं।

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